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होनहार बिरवान के होत चिकने पात- कृतिका नक्षत्र फल

वेद विज्ञान
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पीछे के लेख में जैसा की मैंने बताया है की जन्म के समय जो नक्षत्र उदित या क्षितिज में विराज मान रहती है वह तत्काल ही अपने अति प्रभाव शाली किरणों के द्वारा सद्यः जन्म लेने वाले शिशु को अपने अनुरूप बना लेती है. उस नवजात के रक्त, वसा, मज्जा, मांस, अस्थि, मेदा आदि प्रत्येक अवयव को अपने प्रभाव में ले लेती है. क्योंकि नक्षत्रो से निकलने वाली किरणों की वेधन क्षमता किसी पदार्थ के भारी भरकम परमाणु संख्या वाले परमाणु यथा प्लुटोनियम या यूरेनियम के इलेक्ट्रान से बारह करोड़ खरब (1200,00000,0000000000) गुना ज्यादा तेज होती है. सूर्य से सबसे नजदीक जो नक्षत्र कृतिका है वह सूर्य से बीस लाख योजन की दूरी पर है. वर्त्तमान गणना के अनुसार एक योजन में 12 किलोमीटर होते है. आदिकाल में सूर्य से सबसे नजदीक अश्विनी नक्षत्र हुआ करता था. किन्तु ग्रहों के निरंतर भ्रमण एवं ऊर्जा क्षय के कारण इनकी स्थिति में भी निरंतर परिवर्तन होता चला गया. और आज सूर्य से नजदीक कृतिका नक्षत्र है. यही कारण है की वर्त्तमान समय में ज्योतिष की गणना में विंशोत्तरी दशा की गणना अश्विनी नक्षत्र से न होकर कृतिका से की जाती है.
यदि मेरे इस लेख या मंतव्य से किसी विद्वान को ठेस या आघात न पहुंचे तो मैं यह कटु सत्य प्रस्तुत करना चाहूंगा कि 23वां अयनांश व्यतीत होने को अग्रसर होने के बावजूद भी दशाओं की गणना अभी कृतिका से ही की जा रही है. समस्त सौरमंडल जब एक अंश पर एक चक्र पूरा कर लेता है तो चार युगों का एक चतुर्युग समाप्त हो जाता है. इसमें ग्रह एवं काल की अनियमितता के कारण विविध युगों का भोग काल भिन्न भिन्न होता है. इसीलिए कलियुग का मान सबसे कम है. वर्त्तमान समय में यह अट्ठाईसवाँ कलियुग चल रहा है. इसके समाप्त होते ही अट्ठाईसवाँ चतुर्युग समाप्त हो जाएगा. 30 चतुर्युग या दूसरे शब्दों में 30 अंश की सौर मंडलीय परिक्रमा व्यतीत हो जाने पर वाराह का श्वेतकल्प समाप्त हो जाएगा. अब अगर हम 9 ग्रहों से इन 30 अंशों को विभाजित करते है तो 3 नक्षत्र पूरा होकर चौथे में प्रवेश काल प्रारम्भ होना चाहिए. क्यों कि 9 गुने 3 बराबर 27 अंशो पर ही तीसरी नक्षत्र बीत जानी चाहिए. इस प्रकार गणितीय मान से नक्षत्र का प्रवेश काल कृतिका से आगे चौथे नक्षत्र रोहिणी से शुरू होना चाहिए. लेकिन आज भी ज्योतिषी वृन्द इसे कृतिका से ही गणना कर ज्योतिष की इति श्री कर देते है. चूंकि यह एक श्रम साध्य जटिल गणितीय प्रक्रिया है. और हम आधुनिक कालीन ज्योतिषी आराम पसंद जाहिल एवं कर्त्तव्यच्युत उत्तरदायित्वविहीन हो चुके है. इतना पेचीदा एवं ऊबाऊ काम कौन करने जाय? बस सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए समस्त ज्योतिष को कलंकित करते जा रहे है. आज यदि बहुधा ज्योतिषीय गणनाएं असत्य हो रही है तो इसके पीछे हमारी यही त्रुटी पूर्ण गैर जिम्मेदाराना धारणा है.
अस्तु हम अपने मूल प्रसंग पर आते है. विविध पौराणिक एवं शास्त्रीय मतानुसार कृतिका कश्यप ऋषि की पत्नी दिति के गर्भ से उत्पन्न हुई थी. नागराज वासुकी से इसकी शादी हुई थी. प्राचीन वैरभाव के कारण जब अदिति पुत्र गरुण ने अपनी माँ के आदेशानुसार सर्पों का सत्यानास करना शुरू किया तो दिति पुत्री कृतिका अपनी कृत्या के साथ युद्ध मैदान में आकर खडी हो गयी. सामने एक औरत को देख कर गरुण ने अपना अस्त्र शस्त्र ज़मीन पर रख दिया. और तब वासुकी ने गरुण को बंदी बना लिया. कश्यप ऋषि के साथ सब देवता मिल कर कृतिका एवं वासुकी से गरुण को छोड़ने के लिए कहे. उसी समय से कृतिका को नक्षत्र मंडल में स्थिर किया गया. तथा वासुकी की अवहेलना से कालसर्प योग का उदय हुआ. इसी शर्त पर गरुण की रिहाई हुई. तभी से कुंडली में कालसर्प योग की गणना होती है. तथा कृतिका नक्षत्र अस्तित्व में आयी. आज भी ग्रामीण इलाकों में कृतिका नक्षत्र की वर्षा अशुभ मानी जाती है. कहते है कि यदि कृतिका नक्षत्र में वर्षा होगी तो कीट पतंग ज्यादा जन्म लेते है.
कृतिका से दारुकायन नामक किरण निकलती है. इस पर विज्ञान अभी असमंजस में है. इनके अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि इससे मैक्लोथिनिक बार्बीटोन की उत्पत्ति होती है. जो भी हो, कृतिका की गणना देव एवं दानव दोनों में ही होती है. देवताओं के बीच नक्षत्र के रूप में इसकी गणना देवता की श्रेणी तथा जन्म से दानवी होने के कारण दैत्य की श्रेणी में होती है. इसी लिए इसका पहला चरण मेष राशि में तथा शेष तीनो चरण वृष राशि में आते है. महर्षि पाराशर (बृहत्पाराशर होराशास्त्रं अध्याय 21श्लोक 3) के अनुसार कृतिका नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति –
“धर्म मतिर्बहूवित्तः स्वाध्यायाभिजन रूपसम्पन्नः
अकृपणमतिः शाशियुते जातः स्यादाग्निदैवत्ये.”

अर्थात जिसका जन्म कृतिका नक्षत्र में होता है वह धार्मिक बुद्धि, अधिक धनिक, स्वाध्याय शील, कुलीन रूप युक्त, अकृपन होता है. किन्तु मान सागरी के प्रथम अध्याय के नक्षत्र जातक के तीसरे श्लोक के अनुसार फल निम्न प्रकार है-
“कृपणः पापकर्मा च क्षुधालुर्नित्य पीडितः. अकर्म कुरुते नित्यं कृतिका संभवो नरः.”
अर्थात जिसका जन्म कृतिका नक्षत्र में हुआ हो वह कंजूस, पापी, क्षुधा से पीड़ित दुखी और असत्कर्म करने वाला होता है. दोनों ही प्राचीन ग्रंथों में आयी विचलन को आप स्वयं ही देख सकते है. इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? केवल कृतिका के दोहरे रूप का प्रभाव है. अब हम चरण क्रम से कृतिका के फल को कहेगें-
यदि कृतिका के प्रथम चरण में जन्म हुआ है. तथा कुंडली में चन्द्रमा से-
सूर्य केंद्र में बुध के साथ है. तो यह बुधादित्य योग नहीं कहलायेगा. किन्तु यदि गुरु चन्द्र दशवें में हो तो यह बुधादित्य योग और ज्यादा शक्ति शाली हो जाता है. तथा व्यक्ति एक उच्च सामाजिक मान प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति होता है.
गुरु एवं मंगल प्रथम भाव में हो तो उसकी पत्नी शुभ आचरण वाली एवं व्यवसाय अधिक उन्नति देने वाला होता है.
शुक्र कही भी बुध के साथ हो तो आजीवन झगड़ा विवाद एवं मुक़द्दमें में उलझा रहना पड़ता है. तथा सम्पत्ती का नास विवाद में ही होता है. प्रायः ऐसे व्यक्ति अशांत दिमाग एवं खुराफाती स्वभाव के होते है.
चौथे स्थान में गुरु एवं दशवें स्थान में मंगल हो तो ऐसा व्यक्ति धरा का भूषन एवं अति प्रसिद्द होता है. किन्तु यदि मंगल के साथ राहू एवं गुरु के साथ बुध हो तो ऐसा व्यक्ति अति प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेकर भी पापी एवं भ्रष्टाचारी होता है.
छठे, आठवें या बारहवें के अलावा कही भी चतुर्ग्रही योग बन जाय तो ऐसे व्यक्ति के बारे में अनुमान लगाना असंभव है. दूसरे शब्दों में इसकी भाग्य कब करवट बदल देगी कुछ पता नहीं है. या इस व्यक्ति की पूर्व निर्धारित कोई योजना सफल नहीं होती है.
सूर्य, शुक्र एवं मंगल किसी भी केंद्र या कोण में एकत्रित हो जाय तो अति दरिद्र कुल में जन्म लिया हुआ व्यक्ति भी विश्व का सबसे धनी आदमी बन जाता है.
यदि कृतिका के दूसरे चरण में जन्म हो तथा चन्द्रमा से-
ग्रहों की स्थिति ऊपर के पहले संख्या वाले के अनुसार हो तो व्यक्ति को कारावास की सज़ा होती है. और कई बार बंदी बनाना पड़ता है.
दूसरी संख्या वाले के अनुसार हो तो व्यक्ति की पत्नी उग्र स्वभाव वाली किन्तु सामाजिक मान मर्यादा के प्रति जागरूक होती है. या दूसरे शब्दों में पति को दास बना कर रखती है.
तीसरी संख्या वाले में व्यक्ति क़ानून वेत्ता या न्यायाधीश होता है. किन्तु दुश्मनो की संख्या ज्यादा होती है.
चौथी संख्या वाले में व्यक्ति शुरुआती जीवन सुख एवं आनंद में व्यतीत करता है. किन्तु जीवन का उत्तरार्द्ध गरीबी एवं कष्ट में बीतेता है.
पांच वेएं संख्या वाले में व्यक्ति धन संपदा होते हुए भी समाज एवं परिवार से दुखित एवं दूर रहता है. या फिर विक्षिप्त होता है.
छठे संख्या वाले में व्यक्ति आजीवन भोग विलास करता है. किन्तु यह भोग विलास गैर कानूनी होता है. तथा विषय वासना से भर पूर होता है.
यदि तीसरे चरण में जन्म हो तथा कुंडली में चन्द्रमा से-
पहली संख्या वाली स्थिति हो तो व्यक्ति लेखाधिकारी अथवा सूद खोर होता है. किन्तु धनी अधिक होता है.
दूसरी शर्त में व्यक्ति अपने पत्नी के बल पर समाज में ऊँची जगह बनाता है. इसका दूसरा पहलू यह भी है कि व्यक्ति जान बूझ कर अपनी पत्नी को गैर कानूनी काम करने पर मज़बूर करता है.
तीसरी शर्त में व्यक्ति प्रवक्ता या पंडित होता है. या फिर किसी धर्म का प्रतिनिधि या धर्म प्रचारक होता है. किसी कंपनी का एजेंट भी हो सकता है.
चौथी शर्त में व्यक्ति गरीब होकर भी संयुष्ट, प्रसन्न एवं सुखी होता है. कुछ एक शर्तो पर सन्यासी भी हो सकता है.
पांचवें में विदेश वासी होता है. या फिर इसकी नौकरी या व्यवसाय का सम्बन्ध विदेशों से होता है. कई बार विदेह जाता है.
छठे में व्यक्ति कुष्ठ रोग से पीड़ित होता है. या कोई चिर स्थाई लाइलाज रोग से भयंकर रूप से प्रपीदित होता है.
यदि चौथे चरण में जन्म हो तथा कुंडली में चन्द्रमा से –
ऊपर के पहले की स्थिति में व्यक्ति हीरे जवाहरात का व्यवसाई होता है. या इसी के संगठन अथवा खदान में काम करता है.
दूसरी स्थिति में पति एवं पत्नी दोनों ही व्यभिचारी होते है. समाज या कुल खानदान से इन्हें कुछ नहीं लेना देना होता है.
तीसरी स्थिति में दलाल या ब्रोकर होता है. किन्तु इसके ऊपर क़र्ज़ का बहुत बड़ा बोझ होता है. लापर वाह भी होता है.
चौथी शर्त में व्यक्ति को मान मर्यादा के आगे धन की कोई परवाह नहीं होती है. ऐसे व्यक्ति सरपंच या दंडाधिकारी होते है.
पांचवें में सेना अथवा ऐसी नौकरी में होता है जिसमें बराबर स्थानान्तरण होता हो. अर्थात एक जगह स्थिर नहीं रहता.
छठी शर्त में व्यक्ति रोग विहीन, सुन्दर शरीर वाला एवं हृष्ट पुष्ट होता है. विपरीत योनि की तरफ ज्यादा झुकाव रहता है. कभी कभी ऐसा व्यक्ति विपरीत योनि की तरफ झुकाव के कारण बहुत बड़ी मुसीबत में फंस जाता है.
अगले लेख में रोहिणी नक्षत्र का फल लिखा जाएगा.
द्वारा-
पंडित आर. के. राय
प्रयाग

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