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वासना का रिश्ता सब रिश्तों से ऊपर – न्यायपालिका

वेद विज्ञान
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वह आता
अंतर्मन की उग्र व्यथा पर नयन नीर बरसाता
वह समाज अब लाचारी से तड़प तड़प रह जाता
वह आता.
हृदय विदारक क्रंदन से तार तार
पश्चाताप के पत्थर से सर पीटता बार बार
जिसके कंधो पर दिया अपनी रक्षा का भार
वही हृदय को चीर खून पीने को जीभ बढाता
वह आता
अंतर्मन की उग्र व्यथा पर नयन नीर बरसाता————–(1)
गहरे लगाव के विविध मधुर बंधन दिया
खाली और निश्चेत मष्तिस्क को स्पंदन दिया
वात्सल्य, भ्रातृत्व, मातृत्व, ममता, आत्मीयता
स्त्रीत्व, पुरुषत्व, सतीत्व, आदर्श की विकीर्णता
हबस की आग में सबको जला दिया
माँ ने जवान बेटे को पति बना लिया
पर अपने खून में हुई मिलावट पर दम भर पछताता
वह आता
अंतर्मन की उग्र व्यथा पर नयन नीर बरसाता——————–(2)
मैं समाज हूँ, लज्जा के मारे ना मैं कह पाऊं.
अपना काला मुहं लेकर के और कहाँ पर जाऊं.
घोर घृणित वासना की विकृत भूख मिटाने को
बहन को ही चुन लिया पत्नी बनाने को
हाय! कह मूर्छित हो पथ पर गिर जाता
वह आता
अंतर्मन की उग्र व्यथा पर नयन नीर बरसाता——————-(3)
खुद बनाकर इसको पहना दिया क़ानून का जामा
बन गया सौहर जो कभी था मामा
अब कौन बांधेगा राखी रक्षा के लिए हाथ पर
कौन उठाएगा उंगली नाजायज़ साथ पर
इन्द्रिय जनित क्षणिक सुख खातिर असली सुख को मिटाता
वह आता
अंतर्मन की उग्र व्यथा पर नयन नीर बरसाता ———————(4)
नहीं रही माँ जिसके आँचल की छाँव में
चिंता भय मिट जाता जननी के पाँव में
अनुजा, तनुजा, जाया प्रेम भरे बंध ऐसे
बन गया विधान हबस ऊपर है इन सबसे
हाथो पर राखी बाँध जो कभी इतराता
बहन की शील रक्षा की कशमें खाता
पति बन उस भगिनी से हबस को मिटाता
वह आता
अंतर्मन की उग्र व्यथा पर नयन नीर बरसाता ———————(5)
मैथुनी असंतुलन से इंसान हैवान बन गया.
हबस का सुरूर अब परवान चढ़ गया.
लूटो लुटाओ अस्मत को क़ानून तो है हाथ में.
कह देगें प्यार है करते औ रहते साथ में.
लूला लंगडा समाज इस कोढ़ को खुजलाता
वह आता
अंतर्मन की उग्र व्यथा पर नयन नीर बरसाता———————(6)
मै समाज हूँ, मैंने तुम्हे पढ़ाया
भले बुरे का ह़र रहस्य समझाया
रिश्ता रीति रिवाज़, मान, मर्यादा
के मन्त्रों ने तुम्हे मूढ़ से इतना चतुर बनाया.
कहते समाज क़ानून से है, समाज से नहीं क़ानून
दो हरूफ क्या हलक में गए बन गए अफलातून
सिला दिया मुझको पांवों के तले रौंदता जाता.
वह आता
अंतर्मन की उग्र व्यथा पर नयन नीर बरसाता. ———————–(7)
चलो, भगवान शिव ने भी भस्मासुर को दिया वरदान
और उसी ने दौड़ा लिया और शिव को किया हलकान
संतति स्नेह बंधा बिन समझे सारी सीख दिया
और भस्मासुरी संतान ने मुझे ही लील लिया.
शिव समर्थ बच गए मुझे अब इससे कौन बचाता.
वह आता
अंतर्मन की उग्र व्यथा पर नयन नीर बरसाता. ———————-(8)

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