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कर्म हीन नर पावत नाही.

वेद विज्ञान
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प्रिय पाठक वृन्द,
यद्यपि मेरे लिये अब थोड़ा कठिन काम हो गया है क़ि मैं कुछ लिख पाऊं. किन्तु एक अति श्रद्धालु पाठक के आदेश भरे विनम्र आग्रह पर यह विश्लेषण प्रस्तुत कर रहा हूँ.
इसके पहले क़ि कुछ लिखूं, मै संतशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास की निम्न पंक्तियाँ उधृत करना चाहूंगा.
“कादर कर मन एक अधारा. देव देव आलसी पुकारा.”
भगवान कृष्ण ने माननीय श्रीमद्भागवत गीता में केवल और केवज दो ही कर्मों का उल्लेख किया है. एक कर्म योग तथा दूसरा सांख्य योग. तीसरे किसी कर्म का कोई उल्लेख नहीं है. कर्म योग व्यक्तिगत परिवार के सांसारिक पास में बंधे व्यक्तियों के लिए अपेक्षित है. तथा संख्या योग जो सांसारिकता के बंधन से ऊपर वसुधैव कुटुम्बकम की आदर्श मर्यादा से परिसीमित हैं.
पहले कर्म योग के ऊपर प्रकाश डालते है. इसके लिए थोड़ा व्याकरण का सहयोग लेना पडेगा. एक वाक्य में तीन भाग होते है. प्रथम कर्ता, दूसरा कर्म एवं तीसरा क्रिया. कर्ता साधक है. कर्म साधन तथा क्रिया साधना है. इन तीनो का समापन परिणाम के रूप में होता है. परिणाम को ही फल या भाग्य कहा जाता है. साधन मात्र ग्यारह ही है. पांच कर्मेन्द्रिय. पांच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन. साधना के भी मात्र तीन ही भेद है- अंशु, उपांशु एवं प्रगल्भ. अंशु अर्थात शरीर का कोई भी छोटा या बड़ा अवयव या अंग थोड़ी भी गति न करे. उपांशु अर्थात केवल होठ ही हिले. शेष कोई अंग हरक़त न करे. तथा प्रगल्भ अर्थात शरीर का प्रत्येक अवयव सक्रिय हो. किन्तु यदि किसी निश्चित पूर्व निर्धारित परिणाम को प्राप्त करना है तो चाहे जितना साधन बदल लें, समन्वित मस्तिष्क में पूर्व नियोजित दृढ परियोजना का समापन पूर्व निर्धारित परिणाम ही होगा. चाहे अन्न का टुकड़ा नाक के अन्दर जाय या मुंह के रास्ते अन्दर जाय, उसकी राह आहार नाल में ही समाप्त होगी. तथा उसकी परिणति मल बन कर ही बाहर आना होगा. इस तरह यह प्रमाणित होता है क़ि चतुर्दिक परिपक्व फल में किसी तरह के परिवर्तन की कोई गुन्जाईस नहीं है.
लेकिन एक बहुत ही गूढ़ रहस्य पर ज़रा विचार करें. झूठ-सच, हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, सम-विषम, अनुकूल-प्रतिकूल, अन्धेरा-उजाला, देव-दानव, सजीव-निर्जीव, जन्म-मृत्यु, गूढ़-सरल, भ्रामक-स्पष्ट, द्वैत-अद्वैत आदि द्विविधा का क्या रहस्य है? उपनिषद् के इस कथन को देखें-
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत.
अर्थात जगत में जो कुछ भी है वह सब ईश्वर से व्याप्त है. अर्थात कुछ जगत में है जो ईश्वर से व्याप्त है. इस प्रकार दो अस्तित्व स्वतः ही सामने आ जाते है. एक तो ईश्वर तथा दूसरा जो ईश्वर से व्याप्त है. इसे यूं कहने में ज्यादा आसानी होगी क़ि यदि जगत में कुछ है तभी ईश्वर से व्याप्त है. यदि नहीं होता तो ईश्वर से क्या व्याप्त होता? और अब इसे यूं कहें क़ि यदि कर्म नहीं होता तो भाग्य की कल्पना कैसे होती?
अब रहा भाग्य के बदलने का सवाल. भाग्य एक वह निर्धारित प्रक्रिया है जिसकी शुरुआत हमने कर डाली है. तथा लक्ष्य तक उसके पहुँचने का मार्ग हमने प्रशस्त कर दिया है. अब उसकी परिणति लक्ष्य तक पहुँचने पर ही पूर्ण होगी. और लक्ष्य तक पहुँचने में जो ईंधन का सुव्यय या अपव्यय होगा उसकी आपूर्ती हमारी मज़बूरी है. उस ईंधन के ऊपार्ज़न एवं तत्पश्चात उसकी आपूर्ती में हमें सरल या कठोर श्रम करना ही पडेगा. उसी कठोर या सरल श्रम को और ज्यादा सरल या कठोर बनाने के लिए हम दूसरा भाग्य निर्माण प्रारम्भ कर देते है.
उदाहरण स्वरुप सूर्य (सौभाग्य या दुर्भाग्य) जब दोपहर में अपनी प्रचंड ऊष्मीय किरणों से भयंकर गरमी के द्वारा हमें त्रस्त कर देता है तो उससे बचने के लिए हम किसी पेड़ के नीचे जाते है. या छतरी लगा लेते है. या वातानुकूलित कक्ष में घुस जाते है. तथा उस सूरज की भयावह गरमी से राहत पाते है. किन्तु छतरी लगाने या वातानुकूलित कक्ष में घुसने से सूरज तो डूबता नहीं है. केवल हम अपने आप को उस भीषण ज्वाला से बचा लेते है. इसी प्रकार भाग्य नहीं बदलता बल्कि हम अपने कर्मो (पूजा, पाठ, जंत्र, मंत्र जप, तप, दान आदि रूपी छतरी और वातानुकूलित कक्ष) द्वारा उस दुर्भाग्य से अपने आप को बचा लेते है.
संभवतः मैंने आप के संदेहास्पद कुछ तथ्यों का खुलासा कर दिया है. किन्तु यह मेरा प्रयत्न है. कोई ईश्वरीय मर्यादित रेखा या लक्ष्मण रेखा नहीं.
विशेष- मेरे इस विश्लेषण पर मेरे स्वयं के ज्ञान वर्धन हेतु परामर्श, टिप्पणी, आलोचना या सहमति सादर आमंत्रित है. प्रार्थना यही है क़ि जो भी हो वह तर्क पूर्ण एवं तथ्यगत होना चाहिए,

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