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पितृ तर्पण से निम्न दोषों की शांति होती है.
यदि कुंडली में सर्पदोष के कारण संतान बाधा हो.
परिवार में किसी अदृश्य एवं चिकित्सको तथा चिकित्सालयो की पहुँच से बाहर की कोई व्याधि हो.
कोई रोग या कुरीति आनुवांशिकीय हो. अर्थात वंश क्रम में कोई रोग या अवान्छानीय गतिविधि होती चली आ रही हो.
कुंडली में शनि के कारण अपघात या विष कंटक नामक अशुभ योग पडा हो.
केमद्रुम योग से पीड़ा हो या शनि के कुप्रभाव के कारण चन्द्रमा शक्ति हीन हो गया हो.
परिवार में कुष्ठ रोग (Leprosy) , क्षय (Pulmonary tuberculosis), अंगघात या लकवा (Paralysis) या अपश्मार (Hysteria) से दुःख हो.
परिवार में सुमति न हो तथा बिखराव होता चला जा रहा हो.
अविवाहित रहने की स्थिति उत्पन्न हो गयी हो.
मात्र पितृपक्ष में अपने पितरो के निमित्त किये गए तर्पण से इन समस्त दुखो से सद्यः मुक्ति मिल जाती है.
पितृ तर्पण एक बहुत ही सहज, आवश्यक, सरल एवं शुद्धता से किया जाने वाला अति पवित्र कार्य क्रम है. सरल भोजन, सादा रहन सहन, सत्य भाषी एवं निर्दिष्ट परम्परा के अनुसार से ही इसे पूरा करना चाहिए. यह काल मात्र पंद्रह दिनों के लिए ही वर्ष में एक बार आता है.
जैसा कि सर्व विदित है कि जब ग्यारहो इन्द्रिया अपने कार्य को कर सकने में असमर्थ हो जाती है. तथा पञ्च महाभूत (Five Basic Elements) अन्तः एवं बाह्य इन्द्रियों के साथ अपना सहयोग नहीं दे पाते तो कहा जाता है कि प्राणी का देहावसान हो गया. अन्तः एवं बाह्य का तात्पर्य कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रिय से है. पांच कर्मेन्द्रिय एवं पांच ज्ञानेन्द्रियाँ होती है. ये पञ्च महाभूत प्राण, अपान, व्यान, समान एवं उदान है जो वायु रूप में पांचो स्थान- भू, भुवः, मह, तप एवं सत्य पर पांच ज्योति या किरण– प्रत्यक्ष, परोक्ष, वक्री, मार्गी एवं उदासीन प्रकार से दशो इन्द्रियों को प्रभावित करते है.
आधुनिक विज्ञान की भाषा में यदि कहा जाय तो
(1)-अस्थि या हड्डी जो पांच कज्जलो–कार्बन, कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटेशियम एवं सल्फर,
(2)- मज्जा या आयरन, आयोडीन, सोडियम, फास्फोरस एवं कापर,
(3)- वसा या ब्रोमीन, मरकरी, लेड, जिंक एवं टिन,
(4) मांस या गोस्त –सिल्वर, गोल्ड, थोरियम, लिथियम एवं टिटेनियम एवं
(5)– रक्त या खून — नाईट्रोजन, हाईड्रोजन, आक्सीजन, क्लोरीन एवं हीलियम
इन्ही के पारस्परिक पूर्व निर्दिष्ट आनुपातिक जटिल रासायनिक विधान (As per sceduled Proportionate d Chemical Composition) से शरीर का निर्माण होता है. नित्य प्रति के आचार, विचार, आहार एवं व्यवहार में प्रदूषण या अनियमितता से जब इनके संयोग में विचलन या ब्यवधान पैदा होता है तो इनमें विखंडन पैदा होता है. तथा ये सारे तत्त्व या पञ्च महाभूत स्वतंत्र रूप से अंतरिक्ष या ब्रह्माण्ड में बिखर जाते है.किन्तु जब व्यक्ति या प्राणी इन्ही तत्वों को या पञ्च महाभूतो को नियम संयम से बनाए रखता है तो वह चिर जीवी हो जाता है. पूर्व वैदिक काल में जैसा कि हम कहावतो के रूप में पढ़ते या सुनते है लोग योग तथा तप के बल पर चिर जीवी हो जाते थे. आज भी सात लोगो को चिर जीवी माना जाता है-
“अश्वत्थामा बलिर्व्यासो जाम्बवान्श्च विभीषणः. हनुमान नारादाश्चैव सप्तैतश्चिर जीविनः.”
अर्थात अश्वत्थामा, महाराजा बलि. वेद व्यास, जामवंत, विभीषण, हनुमान एवं नारद ये सात अमर है. कारण यह है कि ये शरीर निर्माण के मूल भूत पञ्च महाभूतों को संयमित एवं नियमित रखते थे. उन्हें तत्त्व विज्ञान का पूरा ज्ञान था.
तर्पण के द्वारा प्राणी जो इस क्रिया में विविध सामग्रियों का प्रयोग करता है तथा जो प्रक्रिया पूरा करता है वह सब इन्ही तत्वों का निर्दिष्ट एवं निर्धारित स्थान पर स्थापित एवं अचल करने का प्रावधान ही है. ध्यान रहे जब किसी प्राणी की मृत्यु होती है तो उसके शरीर से बिखरने वाले रासायनिक कणों (Chemical Components) से परिवार, ग्राम, राज्य एवं देश प्रभावित होता है. इसी लिए इस और्ध्वदैहिक क्रिया के समापन के लिए भाई बंधू एवं नातेदार रिश्तेदार सबको इसमें शामिल कर ब्रह्म भोज का आयोजन किया जाता है. ध्यान रहे चाहे किसी भी जाती, वर्ग या समुदाय का प्राणी क्यों न हो उसके अंतिम संस्कार में अवश्य सहभागी बनें इससे आप हम सबका भला एवं लाभ होगा. मत भूलिए कि रामायण काल में जटायु नामक गिद्ध (Ostrich or Vulture) का अंतिम संस्कार भगवान राम ने स्वयं अपने हाथो किया था.
पंडित आर. के. राय
प्रयाग
+919889649352
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