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क्या आप जानते है?

वेद विज्ञान
वेद विज्ञान
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निकले थे हरि भजन को ओटन लगे कपास
जी हां कहा चोटी बाँध कर सिर पर तिलक लगाकर घंटी शंख लेकर लोगो के शनि के घर में मंगल को घुसा कर कुंडली में राहू एवं केतु की शान्ति करना और कहा मैं समाज कल्याण विभाग की वृहत सारिणी के अवलोकन में माथा खपा कर सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में अपने लिखे लेख पर लोगो की अधिक से अधिक प्रतिक्रया गिन कर फूले न समाना. बड़ा अच्छा लगता होगा यह देख कर कि ज्यादा से ज्यादा लोग मेरे लिखे लेख को पढ़ते है. खूब शाबासी देते है. मेरी भूस भरी खोपड़ी में यह बात पहले नहीं घुसती है. बहुत बाद में बात समझ में आती है. लेकिन तब तक पानी सिर से ऊपर गुज़र गया होता है.
जी हां यही होता है. जब आदमी अपनी मौलिक क्षमता के विकाश को अवरुद्ध कर दूसरे की नक़ल करते हुए जबरदस्ती उसके बराबर बनने की असफल कोशिश करता है या उसकी भी टांग खींच कर नीचे अपने सतह पर ला पटकने की कोशिश करता है. बिल्कुल सही कहा है- Rolling stone gathers no mass. लेकिन प्रचंड कलिकाल के परम शुभ चिन्तक मन जी जो है उनके नौ रत्नों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, राग, द्वेष एवं ईर्ष्या में से बलशाली नौरत्न लोभ जी अपने अति विचित्र जटिल फांस में शेष दस इन्द्रियों को इस तरह बांधते है कि चित्त, विवेक एवं बौद्धिक क्षमता तीनो गर्म गर्म श्वास की आहें ही भरते रह जाते है. और मै भी इस भयंकर जटिल एवं विकराल प्रक्रिया से घबराकर अपनी असमर्थता के आगे घुटने टेक देता हूँ, तथा जिस तरह से इन्द्र देवता तपस्वियों एवं यज्ञ कर्ताओं से हमेशा घबराये रहते है कि कोई उनके स्वर्ग के आधिपत्य को छीन न ले, और हमेशा अपने स्वर्ग की गद्दी पर गिद्ध दृष्टि लगाए रहते है उसी प्रकार मै भी अपने लेख की सारिणी खोल कर प्रक्रिया दाताओं पर ललचाई दृष्टि लगाए रहता हूँ. उसके बावजूद भी मै उन महानुभावो के द्वारा दया की भीख में दिये गए प्रक्रिया स्वरुप दो चार शब्दों का उत्तर देकर अपनी प्रतिक्रिया की संख्या को नहीं बढ़ा पाता हूँ.
अभी आप ही देखिये क्या लिखने को और क्या लिख रहा हूँ. वास्तव में बात यह है कि मै कोई लेखक तो हूँ नहीं. “कवि विवेक नहि एकौ मोरे, सत्य कहौ लिखी कागज़ कोरे. ” बस संगणक संयंत्र के अंगुलिका निर्देशित संलग्न उपस्करों पर स्वर व्यंजन मुद्रण के लिए आवश्यक प्रयास करते हुए समय को स्वच्छंद गति से विचरने के लिए मुक्त कर देता हूँ. वैसे समय को मै क्या मुक्त करूंगा? समय कभी प्रतिबंधित हो ही नहीं सकता. हां मेरे इस लेखन प्रयत्न के पढ़ने में जो आप का समय अपव्ययित होता है उससे मुझे प्रसन्नता होती है कि चलो मै अकेले नहीं हूँ जो समय के मूल्य को न समझू. और भी लोग मेरे साथ है.
जी हां, वास्तव में मै सर्व प्रथम भारतीय सेना का एक सशस्त्र योद्धा हूँ. उसके बाद एक पंडित हूँ. और अब कुछ लिखने पढ़ने की दिशा में भी हाथ पाँव मारने की कोशिश में जुटा हूँ. मेरे ऊपर के दिये गए सारे विवरण का कोई अर्थ नहीं है. सिर्फ और सिर्फ अरण्य रोदन ही है. किन्तु इसके पीछे जो मेरी लेखन भावना छिपी है वह यह है कि जिस चीज के बारे में मुझे कोई ज्ञान नहीं है उसे सीखने और समझने की कोशिश तो अवश्य ही करनी चाहिए किन्तु उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप कर अपनी झूठी विद्वता का पाखण्ड पूर्ण प्रदर्शन कर उपहास का पात्र नहीं बनना चाहिए.
मैंने एशिया महाद्वीप के एक मात्र सुप्रसिद्ध गौरव शाली विश्व विद्यालय B.H.U. से सबसे पहले जैव रसायन (Biochemistry) में स्नातकोत्तर (Post Graduate) की उपाधि (डिग्री) प्राप्त किया. उसके पहले अभी भारत में जैव रसायन की पढाई नहीं होती थी. दुर्भाग्य वसात परिक्षा में मुझे अच्छे अंक प्राप्त नहीं हो सके. गणित की मुझे जान कारी अच्छी थी (जैसा कि मेरे सहपाठी एवं शिक्षक कहते थे. पता नहीं वास्तव में मुझे अच्छा ज्ञान था या नहीं) इसी आधार पर मुझे संस्कृत विश्वविद्यालय में ज्योतिष में प्रवेश मिल गया. मैंने पूर्व मध्यमा. उत्तर मध्यमा शास्त्री एवं आचार्य की उपाधि प्राप्त की. और जजमानी करने लगा. मै यहाँ विषद विवरण नहीं देना चाहता. मै सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि लोग मुझे अपना हाथ दिखा कर अपना भविष्य पूछते है. मै कह देता हूँ कि मै हाथ नहीं देखता. तो बड़ी घृणा एवं उलाहना भरे शब्दों में लोग कहते है कि कैसे पंडित हो जो हाथ नहीं देखते? अब मुझे नहीं देखने आता तो क्या करू? वैसे आडम्बर एवं जाल ताल रच कर मै भी कुछ उलटी सीधी बातें बता सकता हूँ. लेकिन बहुत ही डर एवं शर्म लगता है. मै इसमें अपनी कोई बेइज्ज़ती नहीं समझता. हाथ देखने मुझे नहीं आता है तो नहीं आता है. अब आप चाहे मुझे पंडित माने या न माने. यही कारण है कि मै किसी की भी रचना पर अपना विचार या प्रतिक्रिया प्रकट नहीं करना चाहता. वैसे मै हस्त रेखा के विषय में कुछ सीखना चाहता हूँ. किन्तु इसका कोई सुदृढ़ वैदिक प्रमाण न मिलने से तथा अब “बुड्ढा तोता राम राम क्या सीखेगा?” के कारण मेरी इसमी रूचि नहीं रही. अब मै सोचता हूँ कि कुछ लिख कर “फ्री फंड” में तथाकथित लेखक का सम्मानित ओहदा पा लूं. ईश्वर सबको सदबुद्धि दें. मुझे भी. पंडित आर. के. राय प्रयाग

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