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तीन का रहस्य

वेद विज्ञान
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प्रत्येक प्राणी का सांसारिक अस्तित्व पूर्व निर्धारित त्रिगुणात्मक (सतोगुण, रजोगुण एवं तमोगुण) के समानुपातिक समन्वय का ही परिणाम है. यह त्रिगुणात्मक रज्जू त्रिदेव के कारणभूत सार गर्भित नियोजन का प्रकृष्ट स्वरुप है. त्रिदेव कोई पार लौकिक एवं अदृश्य संज्ञा नहीं बल्कि पितर के तीन कभी न मिटने वाले “अक्षर”
(1)- पि- अर्थात पिंड या दिखाई देने वाला कारण या ठोस रूप दूसरे शब्दों में हाड मांस का खोखला नश्वर शरीर जो “त” तथा “र” के नैसर्गिक विभव एवं पराभव का अंतिम कारण है, तथा जो स्वयं में तथा नितांत एकाकी रूप में निर्जीव भी है. जो “त” तथा “र” के समागम के बाद सजीव की सँज्ञा प्राप्त करता है.
(2)- त- अर्थात अस्तित्व का मध्य प्रारूप जो तरली कृत प्रवाह के एक ध्रुवी कृत अंत पर बनता एवं बिगड़ता है जो तर्क (तरणाय तृप्त़ाय सीमितम यत्कारणः तदेव तर्कः अर्थात तरन या मोक्ष एवं तृप्ति के लिए ही जिसके कार्य सीमित हो वह तर्क है. अस्तु ) इस तर्क का तात्पर्य तर्क वितर्क वाले तर्क से नहीं है. अर्क का अर्थ होता है सत या किसी चीज का निचोड़. जैसे नीबू का सत या अर्क, पुदीने का अर्क आदि. आप स्वयं जानते है कि अर्क का स्वाद कितना कड़वा होता है. इस कड़वाहट को दूर करने की प्रक्रिया को ही तारना कहते है. इसी लिए इस “त” को ध्यान में रखते हुए कहा गया है कि “पु” “त” “र” या पुत्र या दूसरे शब्दों में “पुम” नाम के नरक से जो त्राण दे या मुक्ति दिलावे वह पुत्र है. इस प्रकार “त” प्राकृत है (प्रकृति नहीं) या सीधे सीधे “वीर्य” (Genital Semen) है. यहाँ एक रहस्य मै अवश्य स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि इसी तर्क के स्वर विभेद से तक्र बनता है जिसका साधारण शाब्दिक अर्थ दही होता है. जो गाय का हो तो गव्य, पशु का हो तो हव्य एवं किसी निर्जीव का हो तो नव्य (भाषा सिद्धांत की व्याकरण विधा वाला नव्य नहीं) के नाम से जाना जाता है. और इसी तीन सामग्रियों का सम्मिश्रण हवन कहलाता है हवन में भी तीन ही शब्दों का संयोग है. ह व न . प्रत्येक वर्ण अंतर्द्वेलित आभ्यंतर एवं बाह्य मूक एवं निनादित प्रयत्न का प्रत्यक्ष रूप होता है. चूंकि यह एक अति जटिल रहस्यात्मक गूढ़ एवं क्लिष्ट वैदिक तत्त्व विवेचन का विषय है जिसे “नेति नेति” अर्थात “न इति” या “नहीं है अंत” इसका. कह कर बड़े बड़े ऋषि मुनि भी प्राकृत पुरुष की समग्र लीला कह कर मूक हो गए तो मै किस श्रेणी में आता हूँ. फिर भी दैव कृपा से इस राह पर कुछ दूर चलने का प्रयास अवश्य किया हूँ. अस्तु, मै इस विषय को खीच कर और लंबा नहीं करना चाहता किन्तु इस लेख के अंत में आप के लिए एक मानसिक उलझन भरे रहस्य को प्रश्न वाचक चिन्ह के साथ इस आशा एवं विश्वास के साथ छोडूंगा कि आप इस का अवश्य उत्तर देगें. अभी ऊपर के “त” के विवेचन से यह स्पष्ट हो गया होगा कि “त” का अर्थ तार्क्ष्य अर्थात वीर्य से है.
(3)- र- अर्थात रक्त. यह रक्त खून या लहू नहीं बल्कि “रिक्त + आ” या रिक्त का तात्पर्य खाली तथा आ का अर्थ सीमा. अर्थात रिक्तता को जो सीमित करता है वह रक्त. आ का मतलब सीमा होता है. जैसे आकंठ. अर्थात कंठ तक सीमित. इसी रिक्तता से जो जन्म प्राप्त करता है वह “रज” कहलाता है. विराट रूप में इसे प्रकृति कहा गया है. प्रकृति, पुरुष एवं शून्य से प्राप्त विभूति ही पिंड है. जो सजीव है.
इस प्रकार ठोस, द्रव एवं गैस (वायु) के सम्मिश्रण के उपरांत पितर आशीर्वाद से निर्मित इस पिंड का आविर्भाव इस लोक में होता है. संभवतः आप को यह ज्ञात होगा कि जीव भी तीन ही प्रकार के होते है. वैसे तो जीव चार प्रकार के होते है. किन्तु जिस प्रकार ब्रह्मा जी के चार मुख होते है. किन्तु तीन ही दिखाई देते है. चौथा मुंह पीछे पड़ जाने के कारण दिखाई नहीं देता है.उसी प्रकार जीव चार ही होते है-
अंडज- जिस जीव का जन्म सीधे गर्भ से न होकर अंडे से होता है उसे अंडज कहते है. जैसे सर्प, मुर्गा, बिच्छू, मछली एवं अन्य पक्षी.
पिंडज- जिस जीव का जन्म पिंड अर्थात सीधे गर्भ से होता है उसे पिंडज कहते है. जैसे मनुष्य, हाथी, कंगारू, बन्दर, कुत्ता आदि.
श्वेदज- जिस जीव का जन्म श्वेद अर्थात पसीने से होता है उसे श्वेदज कहते है. खटमल, जूँ, चीलर आदि.
ज़रायुज़- जिनका जन्म पिंड के ज़रावस्था प्राप्त होने के बाद होता है उसे ज़रायुज़ कहते है. जैसे गन्ना, पान, बेल, अंगूर, शकरकंद, आदि.
इस प्रकार आप “पितर” का तात्पर्य अवश्य समझ गए होगे. मै भी कितना घमंडी मूरख हूँ जो आप से पूछ रहा हूँ कि आप समझे या न समझे. ऐसा लगता है जैसे मै ही सबसे बड़ा समझ दार हूँ. चलिए यदि आप को पहले से यह विषय ज्ञात है तो कोई बात नहीं यदि ज्ञात नहीं है तो संभवतः अब ज्ञात हो गया होगा यही आशा है.
पितर में से यदि हम “र” को हटा दें तो केवल पिता ही बचता है. मातृत्व भाव का लोप हो जाता है. इसी रिक्तता को भरने के लिए अर्थात पितर की पूर्ती के लिए “रक्त” स्वरुप रज की आवश्यकता होती है. और तब अंत में पितर का भाव पूरा होता है. तथा इसी के परिशोधन, परिवर्धन, परिपोषण एवं परिपक्वीकरण हेतु पिंडदान या पितृ तर्पण किया जाता है. अब आप की बारी है. यदि आप इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहते है तो कोई बात नहीं लेकिन सोचियेगा अवश्य.
तीन देव- ब्रह्मा, विष्णु, महेश
तीन लोक- आकाश, पाताल, मृत्यु
तीन अग्नि- जठराग्नि, दावाग्नि, बदवाग्नी
तीन रोग- दैहिक, दैविक भौतिक
तीन लिंग- स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसक लिंग
तीन रूप- ठोस, द्रव, गैस
तीन नाडी- इंगला, पिंगला, सुषुम्ना
तीन गुण- सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण
तीन काल- भूत, भविष्य, वर्त मान
तीन समय- दिन, रात, संध्या
तीन स्वाद- खट्टा, मीठा, तीखा
तीन कार्य- यन्त्र, मंत्र, तंत्र
तीन वर्ण- स्वर, व्यंजन, विसर्ग
तीन यज्ञ- अंशु (मन में जपना), उपांशु (बुद बुदाना), प्रगल्भ (जोर जोर से बोल कर जाप karanaa)
प्राकृत शब्दों में तीन ही वर्ण- अक्षर, नारद, पाताल, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, जगत, संसार, गायत्री, आहार, विहार, संहार, आचार, विचार, (केवल नैसर्गिक शब्द ही)
जानेवा के तीन धागे- जनेव तीन ही धागों से बनता है
तीन अवस्थाएं- जाग्रत, सुषुप्त, अचेत
तीन ग्रह- शुभ (गुरु, शुक्र) अशुभ (चन्द्र, बुध, शनि, मंगल, सूर्य) छाया (राहू एवं केतु) यहाँ आप लोगो को संदेह होगा कि चन्द्रमा एवं बुध तो शुभ ग्रह है. फिर ये पाप कैसे हो गए? तो देखें शास्त्र का यह वचन- “क्षीणश्चन्द्रो रविर्भौमो पापो राहू शानिश्शिखी. बुधो अपि तैर्युतो पापो होरा राश्यर्धमुच्यते”
आज जब आधुनिक विज्ञान अपने अति उन्नति शील वैज्ञानिक उप कारणों, उपस्करों एवं अन्य यंत्रो एवं संयंत्रो के बल पर चन्द्रमा एवं मंगल शनि आदि ग्रहों पर पहुँच रहा है. वह विज्ञान भी जब अणु (Molecule ) को तोड़ कर छोटा किया तो परमाणु (Atom) पाया. उसको जब तोड़ कर छोटा किया तो उसके नाभिक (Nucleus) में तीन ही द्रव्य पाया- इलेक्ट्रान, प्रोटान एवं न्युट्रान. इन तीन कणों पर आवेश भी तीन ही मिले- धनावेश, रिनावेश एवं उदासीन . उसके आगे कुछ भी नहीं मिला. उससे निकलने वाली किरणों को खोजा तो मात्र तीन ही किरणे मिली- अल्फा, बीटा एवं गामा. यानी कि तीन के बाद चौथा कुछ नहीं मिला. या केवल दो ही नहीं मिला. इन तीन की खोज तो हमारा वेद विज्ञान बहुत पहले ही कर चुका है. इसमें नया क्या है? इंगला को ये अंग्रेजी में इलेक्ट्रान कहते है. इलेक्ट्रान पर भी रिणावेश होता है. इंगला भी रिनावेषित नाडी ही है. इसी प्रकार पिंगला नाडी को अंग्रेजी में प्रोटान कहा गया है. इस पर धनावेश ही होता है. न्यूट्रान या न्यूट्रल या उदासीन या सुषुप्त ही सुषुम्ना है. इसकी खोज तो हजारो हजारो साल पहले ही वेद विज्ञान कर चुका है.
लेकिन आप बताएं कि यह तीन ही क्यों? इस तीन का रहस्य क्या है?
पंडित आर. के. राय
प्रयाग

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