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दुर्गा पूजा का रहस्य

वेद विज्ञान
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रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तू कामान सकलानभिष्टान.
त्वामाश्रितानाम न विपन्नराणाम त्वामाश्रिता ह्याश्रयताम प्रयान्ति.
(श्री मार्कंडेय पुराण – श्री दुर्गा सप्तशती)
अर्थात हे माता! तुष्ट या प्रसन्न होने पर क्रोध पूर्वक तुम समस्त रोगों का नाश कर देती हो. तथा समस्त चाही हुई इच्छाओं की पूर्ती कर देती हो. जो भी नर तुम्हारे ऊपर आश्रित है उसे और कही किसी आश्रय में जाने की ज़रुरत नहीं है.
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वास्तव में नव दुर्गा का विधान गणितीय पद्धति से संतुलित है. कारण यह है कि संसार में समस्त चराचर प्राणी सौर मंडल के 9 ग्रहों के ही प्रभाव से दुःख या सुख पाता है. इन्ही नवो ग्रहों से इन नव दुर्गाओ को सम्बद्ध कर दिया गया है. जिस किसी भी व्यक्ति को किसी ग्रह से या सारे ग्रहों से पीड़ा है. उसे क्रम से इन नवो दुर्गाओ की पूजा अर्चना करनी चाहिए. इसकी व्यवस्था तांडवरहस्यम. ग्रहप्रभाकर एवं वेदविधान में विस्तृत रूप से बताया गया है. किन्तु जैसा कि प्रचलन है या धीरे धीरे यह एक परम्परा बन गयी है कि इसे केवल माता के रूप में श्रद्धा एवं विश्वास के साथ पूजा की जाती है. अस्तु जो भी हो श्रद्धा एवं विश्वास का तो फल मिलता ही है. किन्तु जिस प्रकार तीखे एवं मसाले दार भोजन तीखा चट पटा स्वाद तो दे सकता है किन्तु सेहत एवं पोषण की दृष्टि से इसके अन्दर कुछ भी नहीं होता है. उसी प्रकार केवल नव दुर्गा का परम्परागत पूजन एवं विधान संतोष एवं शांति तो प्रदान करता है. किन्तु इससे किसी ठोस उपलब्धि नहीं होती है.
दुर्गा का प्रत्येक रूप एक एक ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है. उसका क्रम निम्न प्रकार है. नवरात्र के दौरान जिस दिन मंगल वार पड़े उस दिन से कात्यायनी देवी की पूजा प्रारम्भ होती है. परम्परा के अनुसार छठे दिन कात्यायनी देवी की पूजा की जाती है. किन्तु विभिन्न तांत्रिक ग्रंथो एवं वैदिक गणित के अनुसार नवरात्री के प्रारम्भ में प्रथम मंगलवार के दिन से कात्यायनी देवी की गणना की जाय तो क्रम से बुधवार को कालरात्री, वृहस्पतिवार को महागौरी, शुक्रवार को सिद्धिदात्री, शनिवार को शैलपुत्री, रविवार को ब्रह्मचारिणी, सोमवार को चंद्रघंटा, फिर दुबारा मंगलवार को कुष्मांडा एवं बुधवार को स्कन्दमाता की पूजा होनी चाहिए.
किन्तु आदि काल में जब दिनों की गणना शनिवार से प्रारम्भ होती थी तब पहले शैलपुत्री की पूजा से शुरुआत होती थी. यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि रविवार से गणना का क्रम बहुत बाद में शुरू हुआ था. यह तब की बात है कि जब शनि एवं यमराज दोनों भाईयों में झगडा हुआ तो सूर्य की दूसरी पत्नी एवं शनि देव की माता जी छाया ने सूर्य देव को शाप दिया था कि यदि मै भगवान त्वष्टा की पुत्री परम साध्वी संज्ञा की छाया होऊँगी तो तुम्हारे पाँव कुष्ठ रोग से पीड़ित हो जायेगें. तब से भगवान सूर्य देव के पैर में कोढ़ हो गया. जब भगवान त्वष्टा ने अपनी पुत्री के रूप में शनि की माता छाया को बहुत समझाया तब छाया ने भगवान सूर्यदेव को यह आशीर्वाद दिया कि जो कोई भी व्यक्ति सूर्यदेव के सिर के भाग अर्थात गोलाकार भाग की पूजा करेगा उसका कुष्ठ रोग जड़ से समाप्त होम जाएगा. तभी से भगवान सूर्य देव के गोल मुखाकृति की ही पूजा होती है. उनके शरीर के शेष भाग की पूजा नहीं होती है. उसी दिन भगवान सूर्य देव ने अपने पुत्र शनि को यह आशीष दिया कि आज से मेरे उदय की गणना तुम्हारे ही दिन अर्थात शनिवार से ही होगी.
यह वास्तविकता गणित एवं ज्योतिष से आज भी स्वयं सिद्ध है. क्योकी आज भी जो ग्रहों की महादशाओं की गणना प्राचीन काल से चली आ रही है वह कृतिका नक्षत्र के अंत विन्दु से ही होती है जो सूर्य महादशा के तहत आती है. तथा नक्षत्रो में प्रथम नक्षत्र अश्विनी का प्रारम्भ भी शनि दशांत में ही होता है. इस प्रकार आदि काल में दिन के गणना की शुरुआत शनिवार से ही हुई थी.
जब समस्त शक्तियों को एक ही रूप में एकत्रित किया गया तो वह दुर्गा के नाम से विख्यात हुई. विविध देवी देवताओं के रूप नवो ग्रहों ने अपनी अपनी शक्तियों को एक ही जगह इकट्ठा कर दिया. किन्तु जब देवासुर संग्राम हुआ तो दुर्गा माता ने अपने को अनेक रूपों में बाँट लिया था. वही नवो रूप नव दुर्गा के नाम से जाने जाते है.
देवासुर संग्राम में भयंकर रक्त पात हुआ था. धरती इस खून खराबे से मांस एवं रक्त के लोथड़ो से भर गयी थी. इसका संतुलन अब बिगड़ रहा था. पर्यावरण भी असंतुलित हो चला था. अनेक ज्ञात एवं अज्ञात बीमारियों का खतरा बढ़ गया था. प्रकृति असंयमित हो गयी थी. अग्नि. वायु, जल, पृथ्वी एवं आकाश सब प्रदूषित हो गए थे. तब सबने मिल कर पृथ्वी के पुत्र मंगल से इस मांस एवं रक्त आदि के सर्वनाश का उपाय करने के लिए कहा. क्योकि उसकी माता धरती पीड़ा एवं प्रदूषण से काँप रही थी. मंगल ने कहा कि यह केवल मेरे ही कारण नहीं हुआ है. बल्कि इसमें सब देवी देवताओं का योग दान भी है. तब सबने कहा कि लेकिन पृथ्वी माता तो केवल तुम्हारी ही है. मंगल बहुत ही क्रोधित हुए. उन्होंने कहा कि तब जाने दो. यदि पृथ्वी केवल मेरी माता है. और यह सब जिम्मेदारी मेरी और मेरे मा क़ी ही है. तो हम मा बेटे रसातल को चले जाते है. तुम लोग सुखी रहो. अभी सब देवता लोग और घबडा गए. तब सबने मिल कर मंगल एवं पृथ्वी दोनों को प्रार्थाना एवं विविध पूजा पाठ से संतुष्ट किया. और कहा कि इस मांस एवं रक्त को ज़मीन में गाड़ दो. पृथ्वी बोली कि मै इसे अपने गर्भ में तभी समाहित करूंगी जब तुम सब देवी देवता लोग केवल मेरे गर्भ में इन समस्त मांस एवं रक्त को हीरा ज़वाहरात आदि रत्नों में बदल दो. तथा मेरी छाती पर उगे अन्न से ही यज्ञ एवं पूजा के पूर्ती हो. अन्यथा पूजा पाठ अधूरा रहे. सब ने धरती को यह आशीर्वाद दिया कि बिना धरती पर उगे अन्न को यज्ञ में शामिल किये चाहे स्वर्ग हो या पाताल कही भी कोई पूजा सफल नहीं होगी. तथा मंगल को यह आशीर्वाद दिया कि ग्रहों में तुम सबसे आगे अर्थात पहले रहोगे. तभी से नक्षत्रो क़ी शुरुआत शनि से नहीं बल्कि मंगल ग्रह से हुई. आप को यह ज्ञात होना चाहिए कि अश्विनी नक्षत्र मेष राशि में आती है जो नक्षत्रो में सबसे पहली नक्षत्र है. तथा जिसका स्वामी मंगल है. उस प्रार्थना से प्रसन्न होकर मंगल ने उन सारे रक्त एवं मांस के लोथड़ो को धरती के अन्दर मिट्टी में मिला दिया. और वह सब हीरा मोती आदि रत्न बन गए और धरती का नाम “रत्नगर्भा” प्रसिद्ध हो गया.
इस प्रकार यदि हम प्राचीन वैदिक गणित एवं मूल रहस्य ग्रंथो को मानें तो नवरात्र के प्रारम्भ में उस देवी के उस रूप को मानना चाहिए जो गणित तथा तंत्र से सिद्ध होता हो. उदाहरण स्वरुप वर्त्तमान सम्बत 2068 अर्थात 28 सितम्बर 2011 को प्रारम्भ होने वाले नवरात्र क़ी शुरुआत बुधवार से हो रही है. तथा 4 सितम्बर को मंगलवार पड़ रहा है. अतः 4 सितम्बर को कात्यायनी देवी क़ी पूजा होनी चाहिए. किन्तु परम्परा के अनुसार यह छठे दिन अर्थात 3 सितम्बर को पडेगा. तथा शुरुआत सिद्धि दात्री से होनी चाहिए किन्तु परम्परा के अनुसार यह शैलपुत्री से होगा.
आप को यह जानना चाहिए कि इस ब्रह्माण्ड में कोई भी चीज स्थिर नहीं है. प्रत्येक चीज गति शील है. जिससे सदा ही परिवर्तन होता रहता है. हमें ज्ञात है कि धरती अपनी धुरी पर कुछ झुकी हुई है. तथा निरंतर अपनी कक्ष्या में घूमती हुई यह सूर्य क़ी परिक्रमा करती है. चूँकि यह सीधी नहीं है. इसीलिए हमेशा इसके ऊपर प्रभाव डालने वाले तारे, नक्षत्र एवं ग्रहों क़ी स्थितियों में भी सदा ही परिवर्तन होता रहता है. यही कारण है कि आदि काल अर्थात जब ज्योतिष क़ी शुरुआत हुई तो महादशा क़ी गणना प्रारम्भिक नक्षत्र अश्विनी से होती थी. किन्तु कालान्तर में यह कृतिका से होने लगी. तथा उसके बाद में ज्योतिषियों के आलस्य अथवा कठिन श्रम से घबराने के कारण इसमें संशोधन, परिमार्जन अथवा अन्वेषण नहीं किया गया. जिस प्रकार वर्त्तमान अंग्रेजी कैलेण्डर को बनाने वाले यूरी गागरीन ने स्वयं कहा था कि प्रत्येक चार सौ वर्ष बाद इसमें संशोधन होना चाहिए. किन्तु किसी ने इस बात क़ी तरफ ध्यान नहीं दिया. तथा वही कैलेण्डर आज भी उसी रूप में प्रयोग में लाया जा रहा है. अमेरिका आदि पश्चिम के देशो में तो कम से कम जाड़े एवं गर्मी के दिनों में कैलेण्डर को आज भी बदल दिया जाता है. तथा घड़ी को एक घंटा आगे तथा पीछे कर दिया जाता है. किन्तु हमारे भारत देश में इसकी तरफ ध्यान देने को किसी को ज़रुरत नहीं महसूस हुई. परिणाम यह हो रहा है कि आज भारत में जन्माष्टमी, रामनवमी, संक्रांति आदि त्यौहार दो दो दिन मनाये जा रहे है.
अस्तु हम नवरात्री के बारे में बात करेगें. जैसा कि सबको ज्ञात है कि 23 सितम्बर को दिन एवं रात बराबर होते है. उसके बाद दिन छोटा एवं रात बड़ी होने लगती है. यह सब नवरात्र के शुरू के दिन से ही शुरू हो जाता है. ज्यो ज्यो दिन छोटा होना शुरू होता है धरती पर सूर्य से निकलने वाली परावैगनी किरणें, चन्द्रमा से परावर्तित होकर निकलने वाली युग्मायन किरणें, मंगल से निकलने वाली धूमयुति किरणें, बुध से प्राश्रुत, वृहस्पति से प्रज्ञामूल, शुक्र से परिचारीय, शनि से दीर्घायत, राहू से अपवर्तक एवं केतु से संघातक किरणें धरती पर कम पड़ना शुरू हो जाती है. इन किरणों से विविध रोगाणुओ, विषाणुओ एवं घातक विषैले कीटाणुओ का नाश होता रहता है. किन्तु जब इनका कम हिस्सा धरती पर पडेगा तो इन रोगाणुओ एवं विषाणुओ में वृद्धि होती चली जायेगी. विविध बीमारियों का प्रकोप बढ़ता चला जाएगा. प्राकृतिक विपदाओं में बढ़ोत्तरी होती चली जायेगी. यही कारण है कि सूर्य ग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण को अशुभ बताया गया है. कारण यह है कि ग्रहण लगने पर इनकी किरणें धरती पर नहीं आती है.
कलिकाल में अर्थात वर्त्तमान समय में दुर्गा क़ी पूजा ही अति शीघ्र एवं पूर्ण फल देने वाली बतायी गयी है. “कलौ चंडी विनायकौ” अर्थात कलिकाल में सिर्फ चण्डी अर्थात दुर्गा एवं विनायक अर्थात गणेश क़ी पूजा ही फल देने वाली होगी. इसके पीछे कारण यह है कि एकमात्र दुर्गा क़ी पूजा करने से ही नवो ग्रहों क़ी पूजा सम्पन्न हो जाती है. पूजा का वेद- विशेषतः अथर्ववेदीय या दूसरे शब्दों में आयुर्वेदीय विधान निम्न प्रकार है.
शैलपुत्री- तंत्र एवं रहस्य ग्रंथो में इसे शनिवार को करने को बताया गया है. धुप, दीप एवं फूल आदि तो सामान्य रूप में दुर्गा जी के प्रत्येक रूप में एक ही समान प्रयुक्त होता है. किन्तु कुछ एक चीजें अलग हो जाती है. जैसे- शैल पुत्री क़ी पूजा में सफ़ेद तिल, दूध, सफ़ेद चन्दन, बेलपत्र एवं एवं सूखे फल में मखाना ही चढ़ाना चाहिए. शैलपुत्री क़ी पूजा में चन्दन आदि चढाने के लिए हमेशा दाहिने हाथ क़ी सबसे छोटे एवं सबसे बड़ी वाली अंगुली के बीच वाली अंगुली – अनामिका का ही प्रयोग करना चाहिए. आसन कम्बल का होना चाहिए.
ब्रह्मचारिणी- यह रविवार के दिन करने को बताया गया है. परम्परा गत रूप में इसे नवरात्री के दूसरे दिन किया जाता है. तिलक दही एवं चावल का होना चाहिए. दही, सिंघाड़ा- एक तरह का पानी में उगने वाला फल, कमल गत्ते का फूल, सूखे फल में चिरौंजी, एवं तिलक लगाने के लिए दाहिने हाथ क़ी सबसे बड़ी उंगली का प्रयोग करना चाहिए. आसन पलास के पत्ते का होना चाहिए.
चन्द्रघंटा- परम्परा गत तौर पर इसे नवरात्री के तीसरे दिन मनाया जाता है. किन्तु सिद्धांत ग्रंथो के अनुसार इसकी पूजा सोमवार के दिन होनी चाहिए. फूल बेला या चमेली का होना चाहिए. तिलक के लिए घी का प्रयोग करें. किसी चन्दन का प्रयोग न करें. अनार क़ी गीली लकड़ी से तिलक लगायें. अगर बत्ती का प्रयोग न करें. अगरबत्ती का प्रयोग तो किसी भी पूजा में नहीं करना चाहिए. कारण यह है कि इसमें बांस क़ी लकड़ी का प्रयोग होता है. हमेशा धुप का प्रयोग करें. आसन पुरईन या कमल के पत्ती का होना चाहिए.
कुषमांडा- इसकी पूजा मंगलवार को करनी चाहिए. फूल कूष्मांडा अर्थात कुम्हड़े का होना चाहिए. फल इलायची एवं कमलगट्टे का दाना होना चाहिए. तिलक अष्टगंध, तिलक के लिए पान के पत्ते क़ी सहायता से तथा कोई भी गोरस अर्थात दूध, दही, घी आदि का प्रयोग नहीं होना चाहिए. आसन मृगचर्म होना चाहिए. यदि साबूत कुम्हड़ा चढ़ाया जाय तो और अच्छा होगा.
स्कन्दमाता- इनकी पूजा बुधवार को होती है. परम्परा गत रूप में इनकी पूजा नवरात्री के पांचवें दिन होती है. नारियल, दही, शहद, पान का पत्ता, नैवेद्य में गुड, तिलक के लिए हल्दी, पूप अर्थात पूवा, एवं फूल सरसों का हो तो बहुत अच्छा. स्कंदमाता को प्रायः विविध मीठे व्यंजन चढाने का विधान है. सिर्फ खीर न चढ़ावें. इनको बेसन का लड्डू भी चढ़ाया जाता है. मार्कंडेय पुराण में लिखा है कि मूर्ती के सामने त्रिकोण बना कर उसके नवो त्रिकोण पर बेसन के 27 लड्डू चाधायें
कात्यायनी देवी- वृहस्पतिवार को पूजी जाने वाली कात्यायनी देवी के परम्परागत रूप में नवरात्री के छठे दिन पूजन का विधान है. अंगूर, बेर, अंजीर, महुवा एवं माजू फल चढ़ावें. तिलक खैर एवं शमी का रस निकाल कर बना लें.कच्ची सुपारी एवं नारियल अर्पण करें. भेड़ से बने उन का आसन प्रयोग करें. कृत्यासन लगाकर पूजा करें. अर्थात दोनों घुटने मोड़ कर बैठें. नारियल से बना प्रसाद चढ़ावें एवं स्वयं भी खाएं.
कालरात्रि- काल रात्री क़ी पूजा शुक्रवार को होती है. केले का फूल एवं फल चढाते है. बेल के गूदे को सुखाकर और उसे पीस कर चूरन बनाकर तथा उसमें हल्दी मिलाकर उसी का तिलक लगावें. तिलक के लिए बीच वाली बड़ी उंगली का प्रयोग करें. आसन कुश का प्रयोग करें. नौकासन में पूजा का विधान बताया गया है. रहस्य मल्लिका में लिखा है कि केले के पत्ते का आसन बनाकर उसी पर बैठें. केले क़ी ही बाले देवें. कद्दू के बीज को भून कर तथा उसे केले के हलवे में मिलाकर गाय को खिलायें.
महागौरी- इनकी पूजा शनिवार को तथा परम्परा के अनुसार आठवें दिन होती है. गुड़हल का फूल, गुलाब का सत, विविध सुगंध, पूड़ी एवं घी से बने पदार्थ अर्पण करें. तिलक के लिए कुश का प्रयोग करें. आसन में बेंत से बनी चटाई का प्रयोग करें. एकासन क़ी मुद्रा में पूजा का विधान बताया गया है. बिना छिला साबूत छिलके समेत नारियल को अर्पण कर नदी में बहा दें.
सिद्धि दात्री- इनकी पूजा में ह़र चीज चढ़ाई जाती है. विशेष रूप से खीर चढ़ाई जाती है. खीर बनाने में सावधानी यह रखनी पड़ती है कि इसे मिट्टी के बर्तन में पकायें. एक ही बार में चावल एवं दूध ड़ाल दें. चीनी या गुड या कोई भी मीठा प्रयोग न करें. अर्थात खीर में मीठा न डालें. दूसरी बात यह कि इसे चलाने के लिए सरकंडे क़ी लकड़ी का प्रयोग करें. करछी आदि का प्रयोग न करें.
प्रायः नवरात्रि के व्रत में अक्सर लोग सेंधा नमक का प्रयोग करते है. नमक के बारे में यह पौराणिक कहावत है कि एक बार अगस्त्य ऋषि क्रोध करके समुद्र को ही पी गए. इससे धरती का संतुलन बिगड़ने लगा. प्रकृति का भी संतुलन असामान्य हो गया. तब सब देवी देवता मिल कर अगस्त्य ऋषि से समुद्र को छोड़ने क़ी प्रार्थना किये. तब अगस्त्य ऋषि ने समुद्र को पेशाब के रास्ते निकाल दिया. मूत्र मार्ग से निकलने के कारण इसका स्वाद खारा नमकीन हो गया. इसी लिए कहा गया है कि समुद्र में स्नान के बाद लोग अशुद्ध हो जाते है. तथा उसके बाद घर आकर पूजा यज्ञ आदि करना पड़ता है. चूँकि नमक समुद्र से ही बनता है. इसी लिए अशुद्ध होने के कारण व्रत उपवास आदि में नमक का प्रयोग वर्जित है. कुछ लोग सेंधा नमक का प्रयोग करते है. किन्तु कल्प भास्कर में लिखा है कि सैन्धव नमक यद्यपि पत्थर से बनता है. किन्तु यह पत्थर बहुत दिनों तक समुद्र में रहने के कारण ही नमकीन होता है. अतः कोई भी नमक व्रत में वर्जित है.
इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि नमक सोडियम क्लोराईड होता है. यदि पेट में कोई अनाज नहीं होगा तो सोडियम को प्रतिक्रया करने का कोई आधार नहीं मिलेगा. तथा अत्यंत तीक्ष्ण होने के कारण यह तत्काल गैस्ट्रो इन्ट्रेटाईटिस पैदा कर देता है. यही नहीं यदि कही नमक में क्लोरिन क़ी मात्रा अधिक हुई तो ड्यूओडिनम अर्थात संग्रहणी अशक्त या डैमेज्ड हो जाती है. इसीलिए उपवास या व्रत में नमक नहीं खाना चाहिए.
नवरात्रि के सम्बन्ध में यह और भी अच्छा एवं शास्त्र विहित होगा कि जब दुर्गा के प्रत्येक रूप का नवग्रह के विधान से पूजा किया जाय. अर्थात कात्यायनी क़ी पूजा पहले मंगल का विधान कर लें तब करें. तभी यह पूजा सम्पूर्ण होगी. ये दुर्गा के नव रूप नवो निधियो के देने वाले है. ये नवो निधियां है.- जन- अर्थात परिवार, धन- अर्थात चल एवं अचल संपदा, ध्यान- उच्च स्तरीय बुद्धि, धैर्य- शारीरिक एवं मानसिक शक्ति, भुक्ति- भोग उपभोग अर्थात सामाजिक मान प्रतिष्ठा, भक्ति- उन्नति का सशक्त एवं सरल मार्ग, मुक्ति- चिंता, बंधन, तनाव, भय, अपराध एवं विकार से छुटकारा, आरोग्य- अर्थात रोग व्याधि से छुटकारा, एवं दीर्घायु- अर्थात लम्बी आयु एवं आकस्मिक एवं अकाल मृत्यु से निश्चिन्त. यद्यपि विविध धर्म ग्रंथो में इसे अलग प्रकार से बताया गया है. किन्तु तंत्र ग्रंथो में ऊपर का ही वर्णन प्राप्त होता है.
दुर्गा के प्रत्येक रूप के ध्यान एवं पूजन के लिए एक मात्र एक ही मंत्र है-
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै ॐ.
इस मंत्र को जितनी बार भी पढ़ें वह 9 के गुणक में होना चाहिए अर्थात 9 बार से ज्यादा पढ़ना हो तो 9 गुणे 2 = 18 बार पढ़ें यदि 18 बार से ज्यादा पढ़ना हो तो 9 गुणे 3 = 27 बार पढ़ें. यदि 27 बार से ज्यादा पढ़ना हो तो 9 गुने 4 = 36 बार पढ़ें. अर्थात 9 , 9 बार ही पढ़ना है.
शुरुआत में जब पहली बार उपरोक्त मंत्र पढ़ना हो तो दोनों हाथ सिर पर रखें. दूसरी बार दोनों आँख पर रखें. तीसरी बार मुंह पर दोनों हाथ रखे. चौथी बार नाक पर दोनों हाथ रखे. पांचवी बार छाती पर दोनों हाथ रखे. छठे बार दोनों हाथ पीठ पर रखे. सातवी बार दोनों हाथ जंघे पर रखे. आठवी बार दोनों हाथ दोनों घुटने पर रखे. नवी बार दोनों पाँव के दोनों अंगूठो को स्पर्श करे. फिर दुबारा यदि पढ़ना हो तो इसी क्रम में दुहराते हुए 9 बार मंत्र पढ़ना चाहिए. ध्यान रहे इसके पीछे चिकित्सा विज्ञान के प्रा कृ तिक रूप का कारण है. ये मंत्र ऊपर्प्क्त प्रकार से पढ़ने पर हमारी कशेरुका अर्थात स्पैनल कार्ड क़ी नवो कशेरुकायें अर्थात वर्टिब्रा अपने सतह में जमे धूसर द्रव्य अर्थात ग्रेमैटर का तिर्यक रूप से अर्थात रेट्रोगेटेड तरीके से अंतर्विनिमय अर्थात ट्रांसफ्यूजन प्रारम्भ कर देती है.
नव दिन पूजा के बाद दशवें दिन भद्रा एवं योग देख कर अग्नि वास पूर्वक हवन कर दे. हवन में और कुछ न डाले. सिर्फ काला तिल, सफ़ेद तिल, जौ, चावल, धान, लाख, गूगल, लोबान, अगर, तगर, गुड, पंचमेवा एवं शुद्ध घी. सब सामान बराबर मात्रा में होना चाहिए. सब सामान अलग अलग खरीद कर स्वयं अपने हाथो मिलाएं. बाज़ार से रेडीमेड हवन सामग्री न खरीदें. हवन सामग्री कदापि किसी बर्तन में न रखें इसे किसी पत्ते से बने प्लेट या केले के पत्ते पर रखें, चम्मच का प्रयोग न करें. आम के पत्ते या लकड़ी के बने श्रुवा का प्रयोग करें.
पंडित आर. के. राय.
प्रयाग

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