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दुर्गा पूजा में विशेष

वेद विज्ञान
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माता दुर्गा एवं प्रेम समर्पण
एक बार पवन पुत्र हनुमान जी ने माता सीता से पूछा” हे माता! आप सिन्दूर क्यों लगाती है? ” अचानक सीता माता को हनुमान जी के इस अट पटे सवाल का कोई जवाब नहीं सूझ पडा. फिर थोड़ी देर सोच कर उन्होंने उत्तर दिया “हे आंजनेय! भगवान श्री राम चन्द्र जी को सिन्दूर बहुत ही प्रिय है. इसीलिए मै उनकी प्रसन्नता के लिए सिन्दूर लगाती हूँ.” हनुमान जी कुछ नहीं बोले. चुप चाप वापस अपने निवास पर आये. और उन्होंने अपने पूरे शरीर पर ही सिन्दूर का गाढा लेप लगा लिया. फिर वह भगवान राम के पास पहुंचे. सब लोग हनुमान जी को देख कर हंसने लगे. भगवान राम ने पूछा” हनुमान! तुमने यह क्या वेष बना रखा है?” हनुमान जी ने उत्तर दिया” माता जी ने बताया है कि आप को सिन्दूर बहुत ही प्रिय है. इसीलिए मैंने अपने पूरे शरीर पर सिन्दूर लपेट लिया है.” भगवान राम हनुमान क़ी इस सरलता पर बहुत ही प्रसन्न हुए. तथा उन्होंने यह आशीर्वाद दिया कि जो कोई भी हनुमान के इस सिन्दूर लपेटे रूप का दर्शन एवं पूजन करेगा उसे विद्या एवं बुद्धि तथा रोग व्याधि से मुक्ति प्राप्त होगी.
अस्तु, कहने का तात्पर्य यह है कि माता क़ी पूजा उनकी प्रसन्नता से है. जिस चीज से माता को प्रसन्नता मिले वही पूजा करनी चाहिए. वही चीज अर्पण करनी चाहिए. अपनी प्रसन्नता का नहीं बल्कि आराध्य देवी एवं देवता क़ी प्रसन्नता का ध्यान रखना चाहिए. मै यह बात इस लिए कह रहा हूँ कि अक्सर हम यह कह देते है कि जिस पूजा से अपने मन एवं आत्मा को संतोष मिले वह पूजा श्रेष्ठ है. तो जब हम पहले अपनी ही आत्मा एवं मन के संतोष एवं खुशी का प्रयत्न एवं विधान करेगें तो फिर माता क़ी ख़ुशी एवं प्रसन्नता का क्यों प्रयत्न करना? जी हां, यह अवश्य है कि अंत में अर्थात समस्त पूजा एवं यज्ञ का उद्देश्य अपनी सुख शांति एवं परमेश्वर से एकीकृत सानिध्य ही है. किन्तु अज्ञानता पूर्ण एवं अशुद्ध पूजा एवं अनुष्ठान से मन को झूठा संतोष एवं क्षणिक आत्म बोध करा कर दीर्घ कालिक कष्ट एवं हानि का भागी बनना अपने भविष्य क़ी ह्त्या करना ही है. किसी भी पूजा पाठ एवं अनुष्ठान यज्ञ आदि का एक निश्चित विधान, मुहूर्त एवं निर्दिष्ट प्रक्रिया है. इसलिए यदि संभव हो सके तो अनजानी पूजा या अनुष्ठान न करें या किसी अल्प ज्ञानी अथवा अज्ञानी या पाखंडी से कोई भी विधान न करावें. पुराणादि प्राचीन धर्म ग्रंथो में लिखा है कि अनपढ़, पाखंडी एवं अज्ञानी से कराये गए धार्मिक कृत्यों से पुण्य तो नहीं ही मिलता है. इसके विपरीत जो पुण्य पहले से अर्जित होता है वह भी नष्ट हो जाता है. तथा आदमी घोर कष्ट का भागी बन बहुत ही पीड़ा उठाता है. ज़रा मारकंडेय पुराण के अट्ठाईसवें अध्याय के 27 , 28 , 29 एवं 35वें श्लोक को देखें-
“अवकीर्णी तथा रोगी न्युनांगस्त्वधिकान्गकः. पौनर्भवस्तथा काणः कुंडो गोलों अथ पुत्रकः. मित्रध्रुक कुनखी कुन्ठी श्याबदंतो निराकृतिः. अभिशस्तस्तथास्तेयः पिशुनः सोमविक्रयी. कन्या दूषिता वैद्यो गुरु-पितरोस्तथोज्झकः. भ्रीतकाध्यापको मित्रं परदुष्टापतिस्तथा. वेदोंज्झ्श्चाग्निसंत्यागी वृखलापत्यदूषितः. तथा अन्ये च विकर्मस्था वर्ज्याः पैत्र्येषु वै द्विजः. —————————————- अप्राप्तौ तद्दिने चापि वर्ज्या योषित प्रसंगिनः ”
अर्थात संक्षेप में इस पुराण का यह कहना है कि अज्ञानी, मूर्ख एवं लोभी ब्रह्मण से कराये गए सारे धार्मिक कृत्य एवं इनको दिया गया दान दक्षिणा पुण्य, वंश, यश, धन एवं स्वास्थ्य सबका नाश कर डालते है.
अतः श्रद्धा एवं विश्वास के साथ उस विधि विधान का चतुर्दिक औचित्य भी होना चाहिए. श्रद्धा के कारण भगवान राम ने शबरी के जूठे बेर खाए. लेकिन जूठे बेर का तात्पर्य यह नहीं कि शबरी प्रत्येक बेर ही जूठा कर के खाने के लिए देती थी. बल्कि जिस पेड़ अथवा जिस ड़ाल के बेर मीठे होते थे उस ड़ाल अथवा पेड़ के बेर वह खाने को देती थी. किन्तु जूठा वह इस ध्येय से हो गया कि जस तरह हम कोई वस्तु भोग लगाने के लिए लाते है. तथा उसमें से एक भी टुकड़ा यदि कोई खा लेता है तो वह पूरा सामान ही जूठा हो जाता है. उसी प्रकार शबरी एक बेर खाकर हाथ तो साफ़ करती नहीं थी. उसी हाथ से फिर तोड़ने लगती थी. इसी लिए शबरी के जूठे बेर कहा जाता है. लेकिन एक बात यहाँ पर यह ध्यान देने क़ी है कि यदि कोई बेर बनैला, ज़हरीला या रोग संक्रमित होता तो भगवान भी रोग ग्रस्त हो सकते थे. इस प्रकार चतुर्दिक परीक्षण के बाद ही शबरी ने ह़र तरह से सुरक्षित बेर भगवान राम को खाने को दिये थे. और शुद्ध बेर जो पूजन अर्चन के लिए सर्वथा सुरक्षित था उसे भगवान को अर्पण कर शबरी वह स्थान पा गयी जिसे पाने के लिए ऋषि-मुनि जन्म जन्मान्तर तपस्या करते रहते है.
इस प्रकार हम देखते है कि अति शुद्ध एवं प्रशंसित वस्तु भी श्रद्धा से ही समर्पित करने पर ही आराध्य देवी या देवता को ग्राह्य होती है. अभी हम मुख्य प्रसंग पर बात करेगें. माता दुर्गा क़ी पूजा में भी वस्तु अर्थात पूजन सामग्री, पूजन काल, पूजन स्थल एवं उपासक के औचित्य के बारे में विचार करेगें. वैसे तो नवरात्री में तो प्रत्येक दिन क़ी पूजा अलग अलग महान फल देने वाली है. किन्तु उसमें भी हम संसार वासियों के लिए कुछ विशेष अति प्रशंसित तिथिया है जो पूजा का कोटि गुणा फल बढ़ा देती है. जैसे प्रतिपदा अर्थात प्रथम दिन, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, अष्टमी एवं नवमी. इनमें भी अष्टमी एवं नवमी क़ी पूजा तो अमोघ फल देने वाली है. फल में अनार, अंजीर, फूल में गुड़हल एवं गेंदा, सूखे फल में लोंग एवं इलायची, पकवान में पूप या पूआ, तथा प्रसाद में पञ्चमेवा. स्थान में बिल्कुल कोलाहल से दूर शांत दुर्गा मंदिर, उससे उत्तम आबादी से दूर अरण्य में , उससे उत्तम नदी का सून सान किनारा तथा सबसे उत्तम अपना धो पोंछ कर साफ़ सुथरा किया हुआ पवित्र आवास या घर होता है.
पूजा के लिए माता क़ी मूर्ती यदि ताम्बे के अलावा किसी धातु क़ी बनी हो तो उत्तम होती है. किन्तु ज़स्ता या लोहे क़ी नहीं होनी चाहिए. उससे भी उत्तम पके हुए लाल मिट्टी क़ी मूर्ती, उससे भी उत्तम पत्थर के तीन साफ़ टुकडे जैसा कि वैष्णव देवी क़ी तीन पिंडी ही है कोई मूर्ती नहीं है, उससे भी उत्तम स्वयं क़ी बनायी हुई साफ़ मिट्टी क़ी मूरत, और सबसे उत्तम माता का यन्त्र होता है.
उत्तम समय प्रत्येक महीने क़ी अष्टमी, नवमी एवं दशमी, उससे उत्तम संक्रांति, उससे उत्तम ग्रहण का मोक्ष काल, उससे उत्तम होली, दीपावली एवं दशहरा, उससे भी उत्तम आश्विन एवं चैत्र मॉस और उससे उत्तम इन् दो महीनो क़ी शुक्ला पक्ष क़ी अष्टमी एवं नवमी तिथिया होती है.
मंत्र में कवच, अर्गला एवं कीलक, उससे उत्तम ग्यारहवा अध्याय, उससे उत्तम देवी का अथर्व शीर्ष और सबसे उत्तम नवार्णव् मंत्र के द्वारा पूजन होता है.
हवन में घी युक्त लाक्षा का हवन सबसे उत्तम माना गया है.
बहुत मज़बूरी हो तो व्यावसायिक ब्राह्मण का वरण करें अन्यथा सदा ही वेदपाठी शिक्षार्थी सबसे उत्तम माना गया है. यदि आप गृहस्त या वानप्रस्थी है तो एक आचार्य अवश्य ही वरण करें.
हवन कभी भी किसी लोहे अथवा किसी भी धातु के पात्र में न करें. न ही गड्ढा खोद कर हवन कुंड बनाएं समतल ज़मीन पर ही मिट्टी क़ी दीवार जैसे त्रिकोनात्मक घेरा बना लें. वर्गाकार अथवा आयताकार हवन कुंड में देवी का हवन नहीं होता है. बिना घेरा बनाए भी आप सीधी समतल ज़मीन पर रेत रखकर त्रिकोण रूप में लकड़ी सजाकर हवन कर सकते है.
लकड़ी ह़र हालत में सिर्फ आम क़ी ही होनी चाहिए. दूसरे किसी पेड़ क़ी नहीं. मार्तण्ड संहिता में तो यहाँ तक कहा गया है कि यदि देवी क़ी पूजा में आम क़ी लकड़ी के सिवाय किसी अन्य लकड़ी का प्रयोग होता है तो वह चिता के समान हो जाता है. देवी रहस्यम में बताया गया है कि यदि वर्गाकार अथवा आयताकार लकड़ी सजाई जाती है तो उसमें किया हवन भूत, प्रेत या चांडाल ले लेते है.
अंत में एक बात मै फिर दुहराना चाहूंगा कि मिर्च चाहे प्रेम से कोई खिलाये, मज़बूरी में खाना पड़े, शौक से खाना पड़े अथवा आदती खाना पड़े मिर्ची हमेशा तीखी ही लगेगी. अतः प्रेम में कोई गलत मंत्र, आचार्य, वस्तु या प्रार्थना अर्पण या वरण न करें.
सूचना- ऊपर के लेख संकलन में श्रीमद्देवीभागवत, मारकंडेय पुराण, देवीरहस्यम, तंत्रविरेचन, वृद्ध कापालिकम, वृद्धयवनजातकम, श्रीमद्भागवत पुराण, लिंगाख्यानाम एवं शक्तिविलास नामक ग्रंथो क़ी सहायता ली गयी है.
द्वारा-
पंडित आर. के. राय
प्रयाग
९८८९६४९३५२

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