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क्या आप के पास है जवाब

वेद विज्ञान
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क्या आप के पास है जवाब
एक बार आदि गुरु शंकराचार्य एवं बल्लभाचार्य में उच्चस्तरीय वैदिक शास्त्रार्थ का आयोजन काशी क्षेत्र में गोपाल मंदिर में होना निश्चित हुआ. बल्लभाचार्य बल्लभ सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे. तथा शंकराचार्य शैव मत के प्रवर्तक थे. दोनों ही वेद तत्त्व के प्रकांड पंडित एवं सूत्र भाष्यकार थे.इस प्रकार इनका शास्त्रार्थ भी अत्यंत गूढ़ रहस्य से परिपूर्ण था. ये दोनों ही ब्रह्म के परमाणु सत्ता के केंद्रीभूत अस्तित्व के विकेंद्रीकरण के उपरांत भी प्रत्येक शाश्वत बिंदु को सनातन धर्म के आश्रय दाता होने के पक्ष में थे. आप ने एक प्रचलित मंत्र अवश्य ही सुना होगा.
“ॐ पूर्ण मदः पूर्णमिदम पूर्णात पूर्णमुदच्यते.
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशीष्यते.
अर्थात परमात्मा एक पूर्ण सत्ता है. आत्मा भी एक पूर्ण सत्ता है. इस परमात्मा क़ी पूर्ण सत्ता में से ही आत्मा क़ी पूर्ण सत्ता का आविर्भाव हुआ है. किन्तु उस पूर्ण (परमात्मा) में से यह पूर्ण (आत्मा) निकलने के बाद भी वह पूर्ण (परात्मा) फिर भी पूर्ण बना रहता है.
पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति एवं आधुनिक उत्कृष्ट विज्ञान पर भरोसा कर इतराने वाले तथाकथित अत्याधुनिक विकसित बुद्धि वाले किन्तु वास्तव में अंधे, बहरे एवं निर्बुद्धि सज्जन जन ज़रा इस मंत्र पर गौर फरमाएं. यह एक औपनिषद मंत्र है. जिसकी रचनावधि के बारे में किसी को पता नहीं कि यह कितने हजार साल पुराना है. मै उनको उनकी ही भाषा में इसके चमत्कृत कर देने वाले सत्य को उनके सामने चुनौती के रूप में रख रहा हूँ.
इन तथाकथित बुद्धि जीवियों का यह एक उपहास पूर्ण कथन है कि जब किसी वस्तु को पूर्ण रूप से अन्यत्र स्थानांतरित कर दिया जाएगा तो फिर उस स्थान पर बचा ही क्या? टुकड़ा भी नहीं बचेगा. पुरा बचने क़ी तो बात ही और है. किन्तु उन्हें यह जानना चाहिए कि यह उनकी ही खोज है कि इस जगत का एक सबसे छोटा प्राणी है जिसका इन्होने “अमीबा” (Amoeba) नाम रखा है. यह एक अकशेरुकीय जीवधारी है. यह जब परिपक्व (matured) हो जाता है तो स्वयं दो टुकड़ो में बट जाता है. और इस तरह दो स्वतंत्र अमीबा अस्तित्व में आ जाते है. एक ही अमीबा में से एक पुरा अमीबा निकल गया फिर भी वह अमीबा स्वतंत्र और पूर्ण कैसे बचा है? और भी—– परमाणु के नाभिक (nucleus) से विकिरित होने वाले इलेक्ट्रान हजारो लाखो टुकड़ो में टूटने के बाद भी सब पूरे ही कैसे रहते है? पूर्ण में से पूर्ण निकलने के बाद भी पूर्ण कैसे बचा?
चलिए, इसका विवरण देने से प्रसंग विचलन हो जाएगा.
जब दोनों परम विभूतियों शंकराचार्य एवं बल्लभाचार्य में शास्त्रार्थ आरम्भ होने को हुआ तो सबसे पहले परिचय एवं संबोधन स्वागत आदि के लिए बल्लभाचार्य प्रसारण मंच पर आसीन हुए. सबसे पहले उन्होंने वेद मंत्र- गायत्री का सस्वर उच्चारण करना शुरू किया. अभी वह ॐ भू भुवः का ही उच्चारण किये थे तब तक शंकराचार्य ने शीघ्रता पूर्वक लपक कर उनके मुंह पर दृढ़ता पूर्वक हाथ जमाकर बन्द कर दिया. और बोले “धिक्कार है, ऐसी अनमोल निधि को नृशंसता पूर्वक बिखेर रहे हो.” जब क्षण भर बाद बल्लभाचार्य का मुंह मुक्त हुआ तो वह हंसते हुए बोले कि ” हे सज्जन साधु समुदाय, मै इतनी बहुमूल्य निधि अपने अन्दर छिपा कर रख कर चोरी नहीं करना चाहता. मै चाहता हूँ कि इस धन से सभी धनी हो जाय. किन्तु परम विद्वान् शंकराचार्य मुझे इसको आम जनता से छिपा कर रखने क़ी सलाह दे रहे है. ताकि कोई इसका लाभ न उठा सके.” शंकराचार्य बोले कि ” यजन (भिक्षा) का अधिकार याज्ञिक (ब्रह्मचारी) , दान लेने का अधिकार ध्येता (ब्राह्मण), दया प्राप्ति का अधिकार निरीह (भिखारी), ममता लेने देने का अधिकार माता, वात्सल्य प्राप्ति का अधिकार संतति एवं अधिकार प्राप्ति का अधिकार उत्तरदायी को होता है. श्रेष्ठ बल्लभाचार्य जी उपस्थित समुदाय को किस श्रेणी में रखना चाहते है. क्योकि दूध को सुरक्षित रखने के पूर्व पात्र का सर्वविध परीक्षण अनिवार्य होता है. अब आप बल्लभाचार्य जी यह बताएं कि इस उपस्थित समुदाय का वर्गीकरण किस श्रेणी में करना चाहते है? बल्लभाचार्य जी बोले “क्या आप को उपस्थित समुदाय में खोटे लोग दिखाई दे रहे है?” शंकराचार्य जी बोले ” अन्धकार के बिना प्रकाश, कलियुग के बिना सत्य युग, शोक के बिना हर्ष, नारी (स्त्री) के बिना अनारी (पुरुष), जीव बिना जगत, असत्य के बिना सत्य एवं अज्ञान के बिना बुद्धि क़ी क्या पहचान? आदरणीय बल्लभाचार्य जी, समुद्र मंथन के समय अमृत पीने के लोभ में राहू भी देवताओं क़ी पंक्ति में बैठ गया था. यह ठीक है कि उसका शीश भगवान विष्णु ने अपने चक्र से विच्छिन्न कर दिया था. किन्तु आज भी सूर्य एवं चन्द्रमा को उसके कारण ग्रहण का शिकार बनना पड़ता है या नहीं? मै आप को गायत्री मंत्र बिखेरने से रोका हूँ, उसे बाटने से नहीं. मेरा आप से यही अनुरोध था कि पहले आप दही से घी तो अलग करें. फिर मै भी आप के साथ इसे बाटने में सहयोग करूगा. कारण यह है कि यदि सौ सज्जनों को यह मंत्र नहीं मिला तो अच्छा है बनिस्पत उसके कि एक भी अपात्र को यह बाँट दिया जाय. वरना अनर्थ हो जाएगा. कम खाओ शुद्ध खाओ. कम पूजा करो शुद्ध पूजा करो. कम लोगो को बांटो सुपात्र लोगो को बांटो. और अंत में मै उपस्थित सज्जन वृन्द से यह निवेदन करना चाहूंगा कि सोने को जितना तपाओ उसमें उतनी ही चमक आती है. यदि आप सब पर संदेह क़ी दृष्टि से परखने क़ी आवश्यकता पडी तो आप इस परिक्षा के लिए तत्पर अवश्य होगें ”
अस्तु मै अपने इस कथन का यही पर समाहार करते हुए आप से इन दो युग पुरुष स्वरुप विभूतियों के कथन का सामाजिक औचित्य एवं उपदेश क़ी सदिश सार्थकता जानना चाहूंगा. वह भी वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में.
प्रतीक्षारत
पंडित आर. के. राय
प्रयाग
सिद्धांत वही सार्थक है जिसे हम आत्मसात कर सकें

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