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एक श्रद्धावान पाठक को पत्र: क्या हम मूर्ख, लाचार या पाखंडी है?

वेद विज्ञान
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प्रिय संतोष जी
भाषा भावाभिव्यक्ति का एक प्रधान माध्यम होता है. किन्तु यही एक मात्र माध्यम है, ऐसी बात नहीं है. एक और माध्यम का उल्लेख करना चाहूंगा जिसे कविवर विहारी ने अपनाया है-
“अमिय हलाहल मद भरे श्वेत श्याम रतनार.
जियत, मरत, झुकि झुकि परत चितवत जेहि एक बार.”

जी हाँ, विहारी ने एक नायिका के नेत्र के प्राकृतिक गुणों का वर्णन करते हुए बताया है क़ि उसकी आँखों में जब अमिय या अमृत की परछाई दिखाई देती है और उस दृष्टि से किसी को देखती है तो “जियत” अर्थात बर्बाद होता हुआ मनुष्य भी जी उठता है. जब उसकी आँखों में “हलाहल” अर्थात विष की झलक दिखाई दे और उस दृष्टि से किसी को देखे तो “मरत” अर्थात आदमी अपना सब कुछ लुटाकर मर जाता है. या दूसरे शब्दों में ज़िंदा शव बन जाता है. जब उसकी आँखों में “मद” अर्थात मदिरा की छाया दिखाई दे तथा उस दृष्टि से नायिका देखे तो नायक मदमस्त सुध बुध खो कर झुकते, गिरते पड़ते चलता है. आप स्वयं देखें. नायिका अकेली, उसकी आँख अकेली लेकिन उसमें कितने उदगार? काम. क्रोध, लोभ, मोह, मद, राग, ईर्ष्या, द्वेष, मत्सर, भय, स्नेह, प्रेम, कुंठा तथा वैराग्य आदि उदगार या उद्वेग है जो समय, स्थिति एवं परिवेश के अनुसार अनुकूल माध्यमो से उत्सर्जित होते रहते है. ये उदगार या उद्वेग अपनी पूर्णता के लिए विभिन्न इन्द्रियों या अवयवो के द्वारा अपनी प्रायोजित पूर्व परिकल्पित प्रारूप को क्रिया रूप प्रदान करवाते है, तथा उस क्रिया या कार्य विशेष के कारण ही व्यक्ति भी विशेष हो जाता है. इन छोटी छोटी किन्तु नितांत एक दूसरे से पृथक गुणों या विशेषताओं को तदनुरूप निरंतर सञ्चालन के लिए ही प्रकृति या सर्वशक्तिमान परमेश्वर विविध आकार प्रकार के शारीरिक आवरण डाल कर इन गुणों को मनुष्य के रूप में एक निश्चित आकृति प्रदान करता है. इसी लिए प्रत्येक दूसरा व्यक्ति पहले वाले से भिन्न होता चला जाता है. कोई रूप में, कोई गुण में कोई शिक्षा में, कोई संस्कार में,कोई विचार में कोई दिनचर्या में तो कोई जगद्व्यवहार में. प्रत्येक दूसरे से भिन्न होता है. हम केवल अपनी सुविधा के लिए एक निश्चित आकार वाले को एक अलग वर्ग- जैसे बौना, एक निश्चित कार्य करने वाले को अलग वर्ग- जैसे- पंडित, एक अलग नीति चलाने वाले को अलग श्रेणी- जैसे राजनीतिज्ञ आदि में सूचीबद्ध कर देते है. किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है. डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद राजनीतिज्ञ होने के बावजूद भी उत्कृष्ट विचारक थे. अतः उन्हें एक मात्र राजनीतिज्ञ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है.
मै यदि पंडित हूँ तो दूसरा न्यायविद भी है. तीसरा चिकित्सक एवं चौथा सैनिक एवं पांचवा लेखक तथा छठा भक्त एवं धार्मिक भी है. इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति विशेष होता है.
महर्षि भृगु के वंश में दो जुड़वा पुत्र उत्पन्न हुए. वे दोनों लोगो की सेवा सुश्रुषा में लग गए. लोगो के शरीर को साफ़ सुथरा रखना, शरीर के अन्दर कोई व्याधि उत्पन्न हो जाने पर शल्य चिकित्सा के द्वारा शरीर के अंदरूनी हिस्से से सारा मल एवं गन्दगी निकाल कर शरीर को साफ़ एवं नीरोग रखना आदि कार्य बड़ी कुशलता से करने लगे. किन्तु देवताओ ने उन दोनों को मल-मूत्र साफ़ करने वाला कह कर देवताओ की श्रेणी से बहिष्कृत कर दिया. किन्तु जब भगवान विष्णु की गर्दन योग-निद्रा की अवस्था में स्वयं के धनुष की प्रत्यंचा से कट कर अलग हो गयी तो देव लोक में हाहाकार मच गया. जब कोई उपाय नहीं सूझा तो अंत में थक हारकर देवताओ को सादर उन दोनों जुड़वा बच्चो से प्रार्थना करनी पडी. और उन्होंने भगवान विष्णु के सिर पर घोड़े की गर्दन लगा दी. तभी से भगवान विष्णु का एक नाम हयग्रीव भी पडा. ये दोनों बच्चे और कोई नहीं बल्कि अश्विनी कुमार थे जिन्हें अपनी विशेषता के कारण यज्ञ आदि में भाग मिलने लगा. वह हर प्राणी विशेष होता है जो एक गुण, विशेषता या क्षमता से युक्त होता है यह अलग बात है क़ि कुछ प्राणिमात्र के शुभ चिन्तक होते है तथा कुछ विनाशक.
यदि व्यक्ति के मन में यह भाव है क़ि उसेकुछ ज्ञात नहीं. कोई ज्ञान नहीं. कोई अनुभव नहीं. तो वह उत्कंठा पूर्वक हर चीज जानने, सुनने एवं सीखने का प्रयत्न करेगा. पढ़ने, मनन करने एवं उसे आत्मसात करने की कोशिश करेगा. तथा इस प्रकार वह बहुत कुछ क्या सब कुछ सीख जाएगा. किन्तु जब किसी को यह अभिमान हो गया क़ि मै सब कुछ जानता हूँ. बहुत बड़ा ज्ञानी हूँ. मुझे कुछ भी जानने की ज़रुरत नहीं है. वह गूलर के कीड़े की भांति प्रकृति के नैसर्गिक एवं उत्कृष्ट सुख, सौंदर्य एवं आनंद के रसास्वादन एवं संसार में जन्म लेने के वास्तविक उद्देश्य को जानने एवं पूरा करने से वंचित रह जाता है.
किन्तु इसका यह कत्तई तात्पर्य यह नहीं है क़ि लाचार एवं निरीह बन जाया जाय. अनभिज्ञ बनना और उस प्रसंग से भिज्ञ होना अलग विषय है. तथा लाचार एवं निरीह बनाना और बात है. लाचार बनने का सीधा अर्थ है क़ि भगवान ने जो आतंरिक एवं बाह्य सामर्थ्य से सुसज्जित कर हमें भेजा है उसे लाचार, बेचारा एवं निरीह कह कर के उसका अपमान करना.
“ईश्वर अंश जीव अविनाशी.”
प्रत्येक प्राणी के अन्दर ईश्वर का अंश सदा विद्यमान है. यह एक अति शक्तिशाली ऊर्जा एवं प्रेरणा है. सदा हमारे प्रत्येक कर्म का साक्षी है. यदि इतनी अमोघ एवं अक्षर शक्ति के साथ होने पर भी यदि हम फिर भी लाचार एवं बेचारा बन कर रहते है. तो यह एक तरह से या अप्रत्यक्ष रूप से उस जगन्नियन्ता पारब्रह्म परमेश्वर का अपमान ही है. इस लिए बेचारा बनाने एवं अज्ञानी बनने में अंतर स्थापित कर जगत की निर्दिष्ट क्रिया प्रणाली को आगे बढायें. यही हमारा उद्देश्य, ज्ञान एवं उपलब्धि है. और सबसे ऊपर जगत में जीवन धारण करने की सार्थकता है.
पंडित आर. के. राय
प्रयाग

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