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बला क़ी देख तेरी खूबसूरत सी अदा को हया ओ शर्म गैरत औ खुदाई छोड़ आया.
भरी ख्वाहिस जिगर तल्खी फ़िक़र ज़न्नत मिलेगी तेरी ही वज़ह से उसका भी मुँह मै मोड़ आया.
गर्दिश भरी उम्मत क़ी राहत रूह होगी शराबी ख़्वाब में खुशियों का शीशा तोड़ आया.
पर क्या पता पण्डित ये मूरत खूब सूरत बनी पत्थर क़ी जिससे तू है रिश्ता जोड़ आया.——————-1
खुदाई खैर रुखसत खुद को खालिस खाबगा से किया तों नूर जो थी हूर या मगरूर जो भी
हकीकत आग क़ी लपटों में जल कर खाक हुई पर्दा तिलस्म का भी तार तार जार हुआ
सतह पर जो ज़मीं के मेरे क़दम आ के टिके खालिस चमकते आफताब का दीदार हुआ.
पण्डित राय ज्योतिष के कलम क़ी सुर्खियाँ ले कुछ बेशर्म सिरफिरों से फिर दो चार हुआ. ———————2
सुना था खूब कईयों से कि ब्लॉगर रोशनी है समाँ बांधे है ज़ज्बा जोश होश औ ईलम का
तालिबे इल्म जाहिल जो है गाफिल बेमुरौवत नसीहत कायदे है पेसे खिदमत दरबदर दम
हरूफो में भरे जादू निगाहें आफताबी करारी चोट देगें उसको जो है बुत सितम का
दे के तरजीह हिक़मत का ज़माने क़ी मिशालें फना तक़लीफ़ करने को सहारा ले कशम का.———————-3
बहुत मायूस हो के दर्द से बेचैन होकर नज़ाक़त देख कुदरत औ करिश्मा काफ़िरो का
बना है बुत ये पण्डित हाय रब्बा कर दे तौबा बना के रूप कागज़ औ कलम का खल्क नामा
ज़लाले ज़िंदगी क़ी जो है ज़िल्लत से नवाजी हया महरूम परदे पर बेशर्मी क़ी निशानी
क़यामत भी न देगी साथ जिस पर कर भरोसा ज़हाँ में तू बना जो काफ़िरो का खानसामा. ——————-४
——————————-और आखीर में—————-
दूर से आये थे ब्लॉगर सुन के मय खाने को हम
पर तरसते रह गये अफसोस पैमाने को हम.
मय भी है मीना भी है सागर भी है साकी नहीं
दिल में आता है लगा दें आग मय खाने को हम.
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पण्डित आर. के. राय
प्रयाग
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