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प्रयाग का रहस्य : एक अद्भुत तिलस्मी किन्तु तार्किक एवं वैज्ञानिक कथा.

वेद विज्ञान
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मेरे परम श्रद्धालु एवं सरल हृदय पाठक समुदाय
मै यद्यपि संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसी दास जी क़ी परम पावनी, त्रय पाप नासावानी, सकल कलिकलुष हारिणी रचना “राम चरित मानस” में लिखित “कलियुग” वर्णन को श्रृंखला बद्ध प्रकार से लिखने का काम शुरू किया था. किन्तु आज मुझे अचानक एक बहुत ही खुशी क़ी बात प्राप्त हुई. एक पाठक ने पूर्व जन्म संचित किसी पुण्य कर्म के परिणाम एवं प्रभाव स्वरुप तीरथ राज प्रयाग के दर्शन क़ी इच्छा प्रकट क़ी है. वैसे तों आज के अति भयंकर गति से दौड़ लगाने वाले पूर्णतया आधुनिक विज्ञान के आधे अधूरे ज्ञान-सृजित नियम के दास बने लोगो को यह जानने क़ी फुर्सत कहाँ है कि वे यह सोच पायें कि संगम स्नान एवं दर्शन क़ी महत्ता क्या है. मैं बहुत ही संक्षेप में इस धरती के विभूति स्वरुप परम पावन स्थल तीरथ राज प्रयाग के बारे में यहाँ कुछ प्रस्तुत करने जा रहा हूँ. वैसे मै आप को यह बता दू, इस त्रिलोक प्रसिद्ध अति पवित्र एवं देव दुर्लभ तथा धरती के स्वर्णिम भूखंड तीरथ राज प्रयाग क़ी महत्ता का वर्णन करते स्वयं गणपति भगवान ने यह कह कर समापन किया कि इसकी महिमा का बखान उनके वर्णन क्षमता से परे है.
दूसरी एक बात और मै बताने जा रहा हूँ. वैसे आप लोग यही कहेगें कि यह पण्डित बहुत घमंडी एवं अपने आप को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है” किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि मै जो बात तीरथ राज प्रयाग के बारे में बताने जा रहा हूँ वह आप न तों किसी से सुने होगें और न तों आप को पता होगा. अब आप मेरे इस कथन को चाहे मेरा घमंड मानें या दिखावा.
प्रयाग वह स्थान है जहा पर ब्रह्मा जी ने अपनी मैथुनी सृष्टि का प्रथम सोपान रखा. इस विकृति को देखते हुए पृथ्वी भविष्य में अपनी छाती पर होने वाले पाप, अत्याचार, हिंसा, द्रोह एवं पाखण्ड आदि को देख कर ब्रह्मा जी के आगे रोने विलाप करने लगी. ब्रह्मा जी पृथ्वी के करुण क्रंदन से द्रवित होकर यहाँ पर एक बहुत बड़ा यज्ञ किया. इस यज्ञ में वह स्वयं पुरोहित, भगवान विष्णु यजमान एवं भगवान शिव उस यज्ञ के देवता बने. इतना बड़ा यज्ञ हुआ कि उसके आहट मात्र से त्रिलोक का समस्त पाप विध्वंश के कगार पर पहुँच गया. तब अंत में तीनो देवताओं ने अपनी शक्ति पुंज के द्वारा पृथ्वी के पाप बोझ को हल्का करने के लिये एक “वृक्ष” उत्पन्न किया. यह एक बरगद का वृक्ष था. तीनो देवताओं ने पृथ्वी से कहा कि यह वृक्ष तुम्हारे ऊपर होने वाले समस्त पापो का क्षय करता रहेगा. इस परम पवित्र वृक्ष के पापहारी प्रभाव से ब्रह्मा जी को उनके मैथुनी सृष्टि करने से लगे पाप का चतुर्थांश तत्काल समाप्त हो गया. ब्रह्माजी अचंभित होकर रह गये. चूंकि ब्रह्मा जी ने इतना बड़ा यज्ञ यहाँ करवाया. इस लिये इसका नाम प्रयाग पड़ गया. “प्र” का अर्थ होता है बहुत बड़ा तथा “याग’ का अर्थ होता है यज्ञ. ‘प्रकृष्टो यज्ञो अभूद्यत्र तदेव प्रयागः” इस प्रकार इसका नाम ‘प्रयाग’ पडा. और इस प्रकार अंत में फिर ब्रह्मा जी ईश्वर क़ी इच्छा सर्वोपरि मान कर अपने लोक चले गये. इस देवभूमि का प्राचीन नाम प्रयाग ही था. जब मुस्लिम शाशक अकबर यहाँ आया. तों इस वृक्ष के प्रभाव के परिणाम स्वरुप उसे हिन्दू धर्म में कुछ आस्था उत्पन्न हुई. उसने हिन्दू रानी एवं राजा मान सिंह क़ी बहन योद्धा बाई से विवाह किया. तथा इस वृक्ष के पास ही अपना किला बनवा कर अपनी सेना के साथ यहाँ रहने लगा. उसने हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों धर्मो को मिलाकर एक नया धर्म चलाया जिसका नाम उसने “दीनेइलाही” रखा. इस प्रकार “इलाही” जहां पर “आबाद” हुआ वह इलाहाबाद हुआ.
स्वर्ग लोक से अपनी थोड़ी सी चूक के कारण जब गंगाजी को धरती पर आना हुआ तों उसने भगवान से यह प्रार्थना किया कि हे प्रभु ! आप क़ी आज्ञा शिरोधार्य कर के मै धरती पर जा रही हूँ. किन्तु क्या मुझे वहां पर कोई और सहारा देने वाला नहीं होगा? भगवान ने बताया कि पृथ्वी पर एक बरगद का वृक्ष है. तुम उसके पास से होकर गुजरोगी. उसके स्पर्श से तुम जितने प्राणियों के पाप धोकर ऊब जाओगी, यह वृक्ष तुम्हारे उस पाप को दूर करेगा. गंगा जी प्रसन्न मन से पृथ्वी पर आयीं. तथा वही गंगाजी इस परम पावन बरगद के वृक्ष के पास से होकर ही गुजराती है.
भगवान सूर्य देव क़ी दो पत्नियां थी. एक का नाम संज्ञा तथा दूसरी का नाम छाया था. संज्ञा जब सूर्य देव के साथ रहते हुए उनक़ी गर्मी नहीं बर्दास्त कर सकीं तों उन्होंने अपनी ही तरह क़ी एक छाया के रूप में एक औरत का निर्माण किया. तथा उसे भगवान सूर्य के पास छोड़ कर अपने मायके चली गयीं. सूर्य देव उसे ही अपनी पत्नी मान कर एवं जान कर उसके साथ रहने लगे. संज्ञा के गर्भ से दो जुड़वे बच्चे जन्म लिये. उसमें लडके का नाम यम तथा लड़की का नाम यमी पडा. यम यमराज हुए तथा यमी यमुना हुई. सूर्या की दूसरी पत्नी छाया के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ. जब यमुना भी अपनी किसी भूल के परिणाम स्वरुप धरती पर आने लगी तों उसने अपने उद्धार का मार्ग भगवान से पूछा. भगवान ने बताया कि धरती पर देव नदी गंगा में मिलते ही तुम पतित पावनी बन जाओगी. किन्तु गंगा जी ने काली कलूटी यमुना को अपने में मिलाने से मना कर दिया. उधर भगवान श्री कृष्ण मथुरा में अपने साथी ग्वाल बालों के साथ यमुना किनारे गेंद खेलते हुए अपने गेंद को यमुना में फेंक दिये. यमुना में कालिया नाग रहता था. भगवान गेंद लाने के लिये यमुना में कूद पड़े. कालिया नाग ने उन्हें पकड़ लिया. भगवान ने उसे यमुना में ही दबा दिया. उसका पुरा विष यमुना में फ़ैल गया. और यमुना और ज्यादा विषाक्त एवं काली नीली हो गयी. गंगा जी के इनकार को सुन कर यमुना बहुत निराश एवं दुखी हुई. गंगा जी के इनकार से उत्पन्न हुई अपनी पुत्री क़ी व्यथा से भगवान सूर्य भी बहुत दुखी एवं क्रोधित हुए. उन्होंने कहा कि हे गंगे ! जिस घमंड एवं अमर्ष से परिपूरित होकर तुम अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझ रही हो वह घमंड तेरा चूर होगा. तुम केवल पाप धोने वाली ही नहीं बल्कि पृथ्वी पर मल-मूत्र, मुर्दा एवं गन्दगी भी धोने वाली होगी. गंगा जी इस शाप से काँप गयीं. वह रोने गिड़ गिडाने लगी. भगवान विष्णु ने गंगा को आश्वासन देते हुए कहा कि सूर्य देव का दिया गया शाप मै मिटा तों नहीं सकता. किन्तु इतना अवश्य वरदान दे रहा हूँ कि धरती पर चाहे कितना भी बड़ा यज्ञ या पूजा पाठ क्यों न हो , बिना तुम्हारे जल के वह पूर्ण नहीं हो सकता है. तथा यमुना को कहा कि हे यमुना ! तुम प्रयाग स्थित वटवृक्ष के नीचे से होकर गुजरोगी. तुम्हारा जल उसके पत्तो को स्पर्श करते ही निर्मल एवं पाप विनाशक हो जाएगा. गंगा भी प्रसन्न हो गयी. उन्होंने कहा कि अब यमुना को अपने में मिलाने से मेरी भी महत्ता बढ़ जायेगी. जब सरस्वती को पता चला कि ऐसा वृक्ष प्रयाग में स्थित है. तों वह भी ब्रह्मा जी से अनुमति लेकर स्वर्णभूमि छोड़ कर आकर प्रयाग में इन दोनों नदियों में शामिल हो गयीं.
सरस्वती पूर्व काल में स्वर्णभूमि में बहा करती थी. स्वर्णभूमि का बाद में नाम स्वर्णराष्ट्र पडा. धीरे धीरे कालान्तर में यह सौराष्ट्र हो गया. किन्तु यह सौराष्ट्र प्राचीन काल में पुरा मारवाड़ भी अपने अन्दर समेटे हुए था. सरस्वती यहाँ पर बड़े ही प्रेम से रहती थीं. सोने चांदी से नित्य इनकी पूजा अर्चना होती थी. धीरे धीरे चूंकि इस प्रदेश से सटा हुआ यवन प्रदेश (खाड़ी देश) भी था, अतः यहाँ के लोग यवन आचार विचार के मानने वाले होने लगे. सरस्वती इससे ज्यादा दुखी थीं इधर इनको मौक़ा मिल गया. और उन्होंने ब्रह्माजी से अनुमति लेकर मारवाड़ एवं सौराष्ट्र छोड़ कर प्रयाग में आकर वस् गयीं. और तब से सरस्वती के वहां से चले आने के बाद वहां के लोगो में बुद्धि एवं ज्ञान का क्षय होने लगा. तथा वह पूरी भूमि ही मरू भूमि में परिवर्तित हो गयी. जो आज राजस्थान के नाम से प्रसिद्ध है. इसकी कथा भागवत पुराण में बड़े ही विस्तार से बतायी गयी है. आज पुरातत्व विभाग ने अपनी खुदाई एवं खोज से इस बात को सत्य प्रमाणित मान रहा है.
भगवान राम को जब त्रेता युग में अपनी माता कैकेयी के शाप से वनवास हुआ तों उनके कुल पुरुष भगवान सूर्य बड़े ही दुखी हुए. क्योकि भगवान राम सूर्यवंशी ही थे. उन्होंने हनुमान जी को आदेश दिया कि बनवास के दौरान राम को होने वाली कठिनाईयों में सहायता करोगे. चूंकि हनुमान ने भगवान सूर्य से ही शिक्षा दीक्षा ग्रहण क़ी थी. अतः अपने गुरु का आदेश मान कर वह प्रयाग में संगम के तट पर आकर उनका इंतज़ार करने लगे. कारण यह था कि वह किसी स्त्री को लांघ नहीं सकते थे. (यदि कभी मौक़ा मिला तों इसकी कथा भी लेकर आप के सम्मुख प्रस्तुत होऊँगा). गंगा, यमुना एवं सरस्वती तीनो नदियाँ ही थी. इसलिये उनको न लांघते हुए वह संगम के परम पावन तट पर भगवान राम क़ी प्रतीक्षा करने लगे.
इलाहाबाद अर्थात प्रयाग के दक्षिणी तट पर आज एक झूंसी स्थान है. इसका प्राचीन नाम पुरुरवा नगर है. कालांतर में इसका नाम उलटा प्रदेश पड़ गया. फिर बिगड़ते बिगड़ते झूंसी हो गया. उलटा प्रदेश इसलिये पडा, कारण यह था कि यहाँ भगवान शिव माता पार्वती के साथ एकांत वास करते थे. तथा यहाँ के लिये यह शाप था कि जो भी व्यक्ति इस जंगल में प्रवेश करेगा वह औरत बन जाएगा. पहले यह पुरा स्थान जंगल ही था. इस उलटी प्रवृत्ति के कारण ही इस राज्य का नाम उलटा प्रदेश पडा. यहाँ के महल क़ी छत नीचे बनी है जो आज भी है. तथा लोग इसे देखने आते रहते है. इसकी खिड़कियाँ ऊपर तथा रोशन दान नीचे बने है. यानी कि सब कुछ उलटा है. इसी स्थान से इस कहावत ने जन्म लिया की –
“अंधेर नगरी चौपट राजा. टके सेर भाजी टके सेर खाजा.”
जब भगवान राम अयोध्या से चले तों उनको इस झूंसी या उलटा प्रदेश से होकर ही गुजरना पड़ता. तथा भगवान शिव क़ी महिमा के कारण इनको भी स्त्री बनना पड़ता. इसलिये उन्होंने रास्ता ही बदल दिया. एक और भी कारण भगवान राम के रास्ता बदलने का पडा. यदि वह सीधे गंगा को पार करते तों यहाँ पर प्रतीक्षा करते हनुमान सीधे उनको लेकर दंडकारण्य उड़ जाते . तथा बीच रास्ते में का अहिल्या उद्धार, शबरी उद्धार तथा तड़का संहार आदि कार्य छूट जाते. यही सोच कर भगवान राम ने रास्ता बदलते हुए श्रीन्गवेर पुर से गंगा जी को पार किये. चूंकि भगवान राम को शाप था कि वह बनवास के दौरान किसी गाँव में प्रवेश नहीं करेगें.
“तापस वेश विशेष उदासू. चौदह वर्ष राम बनवासू.”
अर्थात तपस्वी की वेश भूषा होगी. तथा विशेष उदासी का भाव होगा. विशेष उदासी का तात्पर्य यही था की वह किसी भी आबादी वाले गाँव में प्रवेश नहीं करेगें.
इस बात को प्रयाग में तपस्यारत महर्षि भारद्वाज भली भांति जानते थे. वह भगवान राम क़ी अगवानी करने पहले ही श्रीन्गवेरपुर पहुँच गये, भगवान राम ने पूछा कि हे महर्षि ! मैं रात को कहाँ विश्राम करूँ. महर्षि ने बताया कि एक वटवृक्ष है. हम चल कर उससे पूछते है कि वह अपनी छाया में ठहरने क़ी अनुमति देगा या नहीं. कारण यह है कि तुम्हारी माता कैकेयी के भय से कोई भी अपने यहाँ तुमको ठहरने क़ी अनुमति नहीं देगा. सब को यह भय है कि कही अगर वह तुमको ठहरा लिया, तथा कैकेयी को पता चल गाया तों वह राजा दशरथ से कह कर मरवा डालेगी. इस प्रकार भगवान राम को लेकर महर्षि भारद्वाज उस वटवृक्ष के पास पहुंचे. भगवान राम ने उनसे पूछा कि क्या वह अपनी छाया में रात बिताने क़ी अनुमति देगें. वटवृक्ष ने पूछा कि मेरी छाया में दिन रात पता नहीं कितने लोग आते एवं रात्री विश्राम करते है. पर कोई भी मुझसे यह अनुमति नहीं मांगता है. क्या कारण है कि आप मुझसे यह बात पूछ रहे है? महर्षि ने पूरी बात बतायी. वटवृक्ष ने कहा कि ” हे ऋषिवर ! यदि किसी के दुःख में सहायता करना पाप है. किसी के कष्ट में भाग लेकर उसके दुःख को कम करना अपराध है. तों मै यह पाप और अपराध करने के लिये तैयार हूँ. आप निश्चिन्त होकर यहाँ विश्राम कर सकते है. और जब तक इच्छा हो रह सकते है” यह बात सुन कर भगवान राम बोले “ हे वटवृक्ष ! ऐसी सोच तों किसी मनुष्य या देवता में भी बड़ी कठनाई से मिलती है. आप वृक्ष होकर यदि इतनी महान सोच रखते है. तों आप आज से वटवृक्ष नहीं बल्कि “अक्षय वट” हो जाओ. जो भी तुम्हारी छाया में क्षण मात्र भी समय बिताएगा उसे अक्षय पुण्य फल प्राप्त होगा.” और तब से यह वृक्ष पुराण एवं जग प्रसिद्ध “अक्षय वट -Immoratl Tree ” के नाम से प्रसिद्ध होकर आज भी संगम के परम पावन तट पर स्थित है. औरंगजेब ने इसे नष्ट करने क़ी बहुत कोशिस क़ी. इसे खुदवाया, जलवाया, इसकी जड़ो में तेज़ाब तक डलवाया. किन्तु वर प्राप्त यह अक्षय वट आज भी विराज मान है. आज भी औरंगजेब के द्वारा जलाने के चिन्ह देखे जा सकते है. चीनी यात्री ह्वेन सांग ने इसकी विचित्रता से प्रभावित होकर अपने संस्मरण में इसका उल्लेख किया है. सनद रहे, ह्वेन सांग हिन्दू नहीं बल्कि बौद्ध धर्म मानने वाला था. फिर भी उसने इसकी विचित्रता अपनी आँखों से देखी थी.
जब राखाल दास बनर्जी बहरतीय पूरा तत्त्व विभाग के निदेशक हुए तों उन्होंने इसका रहस्य को जानने क़ी कोशिस क़ी. इसका रासायनिक उम्र (chemical Age) निकलवाया. तब पता चला कि इस वृक्ष क़ी आयु कम से कम 3250 वर्ष ईशा पूर्व (3250 BC) है ही . इसके पहले का कितना पुराना है कहा नहीं जा सकता. तों यदि हम इनकी ही मानते है तों आज यह वृक्ष लगभग 6000 वर्ष तों पुराना हो ही गया. इसके बाद वैज्ञानिकों ने इसके अक्षय या अज़र अमर होने के पीछे के कारणों का पता लगाना शुरू किया. तों अपनी आधी अधूरी खोज से उन्हें मात्र इतना ही पता चल पाया कि इस वृक्ष के सतह के नीचे चौथी परत अमीनो फास्फामाजायिन सल्फेट जैसी कुछ रासायनिक यौगिक (Chemical Compound) है जो इसकी पत्तो के क्लोरोप्लास्ट को नष्ट नहीं होने देते तथा इसके तने (Stem) एवं जड़ (Root) के डी रायिबो न्यूक्लिक एसिड को सदा अपरिवर्तनीय रखता है. जिससे यह वृक्ष सदा अज़र अमर है.
इसके प्रभाव से यदि कोई ऐसा मनुष्य जो क्षय, दमा, या अन्य ऐसे ही फेफड़े से सम्बंधित रोग का मरीज़ है तथा इस वृक्ष के नीचे प्रतिदिन ढाई मुहूर्त अर्थात एक घंटे 108 दिन बिताता है तों उसके इस रोग का समूल विनाश हो जाएगा. ह्वेन सांग इसीलिए चमत्कृत हो गया. और बौद्ध होते हुए भी दिन भर कही घूम कर रात को इस वृक्ष के नीचे ही शयन करता था. यह एक ऐसा वृक्ष है जिसे प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) के लिये सूर्य के प्रकाश क़ी आवश्यकता नहीं पड़ती और यह रात दिन प्राण वायु अर्थात आक्सीज़न उत्सर्जित करता रहता है.
मै सभी धार्मिक या नास्तिक प्रत्येक व्यक्ति से यही अनुरोध करूंगा कि एक बार अवश्य ही इस वृक्ष का दर्शन करें. धार्मिक दृष्टि से न सही एक औषधीय वृक्ष का दर्शन करने क़ी ही दृष्टि से सही.
“तुलसी यही जग आई के सबसे मिलियो धाय. ना जाने किस वेष में नारायण मिली जाय.”
“ॐ नमो भगवते वासुदेवाय”
एक क्षमा याचना– इस कथा में बहुत सी अंतर्कथाएँ छूट गयी है. जैसे हनुमान जी संगम तट पर भगवान राम क़ी प्रतीक्षा करते यहे. उनका क्या हुआ. या वटवृक्ष के नीचे भगवान राम ने क्या किया? आदि. यदि भगवान क़ी कृपा एवं आप लोगो का स्नेह रहा तों इसका भी वर्णन लेकर आप लोगो के समक्ष उपस्थित होउंगा.
सहायक ग्रन्थ श्रीमद्भागवत पुराण, बाल्मीकि रामायण, शिव पुराण, संग पो दियान्गहू (चमत्कारी पेड़), आदि पुराण (जैन धर्म), भारद्वाज स्मृति, गंगा विलास तथा तान्नीरम वल्ली (गंगाजल प्रपात) आदि.
पण्डित आर. के. राय
प्रयाग

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