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मेरे प्रिय पाठक वृन्द
आज एक भाषा विज्ञान में विद्वान एवं अन्तरंग रूचि रखने वाले महानुभाव मिले. उन्होंने तार्किक वाद विवाद प्रारम्भ करते हुए एक ऐसा प्रसंग छेड़ दिया जो रुचिकर तों था. किन्तु चूँकि मै मूल रूप में विज्ञान से सम्बंधित हूँ, अत मेरे लिये एक बहुत ही कठिन विषय था. फिर भी माँ भगवती क़ी कृपा से उन्हें विषय को बता सकने में समर्थ हो सका. मै यहाँ पर वही अंश प्रस्तुत करूंगा जो सर्व साधारण को रूचि कर लगे. कारण यह है कि यह प्रसंग भाषा-विधान के व्याकरण से सम्बंधित है. अतः इस व्याकरण जैसे अति सूक्ष्म विषय का विवरण प्रस्तुत कर सबको उलझाने से अच्छा यही है कि इसका रुचिकर भाग ही सबके सम्मुख प्रस्तुत किया जाय. आगे प्रस्तुत है-
अति प्राचीन काल में जब मनुष्य के पास परस्पर भावनाओं के आदान प्रदान एक लिये कोई माध्यम नहीं था. या संकेत तथा अपने निर्धारित हावभाव के अनुसार अपनी इस आवश्यकता क़ी पूर्ती करते थे. तब इसी कारण से एक ही गाँव या तोले में अनेक समुदाय के लोग एक दूसरे से कटे हुए रहते थे. तथा एक दूसरे को अजीब नज़र एवं भाव से देखते थे. इसमें से प्रत्येक वह व्यक्ति जो एक दूसरे से रक्त सम्बन्ध नहीं रखता था, वह उसके लिये अजीब प्राणी था. इसी क्रम में एक यज्ञ में मंत्र विचलन के कारण क्रुद्ध हुए भगवान शिव ने “तांडव” नृत्य शुरू कर दिया. कोई भी प्रार्थना, स्तुति, पूजा या यज्ञ-विधान का भाषा जैसा कोई माध्यम नहीं था. तब संकेत विद्या के कुशल प्रवर्तक महर्षि पाणिनी ने उस उग्र अवस्था प्राप्त भगवान शिव क़ी कातर भाव से अराधना शुरू क़ी. तब भगवान शंकर ने महर्षि पाणिनी को “शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र” प्रदान किया. जिसकी व्याख्या ऋषिवर ने अपनी अद्वितीय पारलौकिक बौद्धिक क्षमता के आधार पर प्रस्तुत कर एक समग्र, पूर्ण एवं सुव्यवस्थित नियम-अनुशासनबद्ध भाववाही माध्यम मानव समुदाय को प्रदान किया जिसे “गीर्वाण भारती” या “देववाणी” के नाम से जाना गया. और आज उसे ही संस्कृत कहा जाता है. पाणिनी के इस व्याख्या के संग्रह को “अष्टाध्यायी” कहते है. यह भाषा-विधान क़ी संहिता या नीति निर्देशक तत्त्व है.
किन्तु इसके पूर्व इसी उद्देश्य क़ी पूर्ती के लिये भगवान शिव ने अपने प्रिय भूषण शेषनाग को आदेश दिया कि वह भाषा-विधान करें. शेषनाग ने कहा कि हे प्रभु यदि मै मुँह खोलूंगा तों मेरे मुँह से विष ही निकलेगा. फिर मेरे सम्मुख पढ़ने वाले समस्त शिक्षार्थी जल कर भष्म हो जायेगें. भगवान शिव ने कहा कि काशी में हे एक कुंवा है. जो सर्वथा उपेक्षित है. कोई भी उसके जल का उपयोग या उपभोग नहीं करता है. अतः तुम उसी कुँवें में स्थित होकर शिक्षा दो. भगवान शेष नाग उस कुँवें में प्रवेश किये. उस कुंवां को आज काशी में “नद कुंवां” कहा जाता है. उस कुँवें से निकलने वाली विविध ध्वनियो से आने जाने वाले लोग आकर्षित होने लगे. यह बात धीरे धीरे प्रचलित हो गयी कि कोई अवतार इस कुंवें में हुआ है. फिर वहां पर लोग दूर से ही आवाज देकर उस अवतार के विषय में जानकारी प्राप्त किये. भगवान शेष ने बताया कि वह पढ़ाने के लिये अवतरित हुए है. अब शिष्यों कि संख्या धीरे धीरे बढ़ने लगी. भगवान शेष ने बताया कि मै शिक्षा एक ही शर्त पर दूंगा कि कोई भी शिष्य मेरा मुँह देखने क़ी कोशिश नहीं करेगा. फिर उस कुँवें के मुँह पर पर्दा ड़ाल दिया गया.
इसके पीछे कारण यह था कि शिष्य कुँवें के नज़दीक ही बैठ कर पढाई करते. और यदि कुँवें का मुँह खुला रहता तों भगवान शेष के मुँह से निकलने वाले विष से सब शिष्य जल जाते. इसी लिये भगवान शेष ने उस कुंवें का मुँह ढकवा दिया. अब पढाई शुरू हुई. उस कुंवें के पास एक पीपल का वृक्ष भी हुआ करता था. पीपल पर एक प्रेत भी रहता था. दिन में इन सब भूत प्रेत आदि योनियों क़ी शक्ति क्षीण होती है. अतः ये अदृष्य या सूक्ष्म रूप से कही निष्क्रिय होकर पड़े रहते है. इस प्रकार उस वृक्ष पर रहने वाला वह प्रेत भी पूरी शिक्षा ग्रहण करता जाता था. इधर शिक्षा ग्रहण करने वाले शिष्यों में एक शिष्य को यह जिज्ञाशा हुई कि यह कैसे गुरूजी है जो एक ही बार में एक हजार शिष्यों को अलग अलग शिक्षा देते है. इनका मुँह अवश्य देखना चाहिए. उसे उत्सुकता यह थी कि कोई भी गुरु तों एक बार में एक ही शिष्य के प्रश्न का उत्तर दे सकता है. यह कैसे गुरु जी है जो एक हजार शिष्यों के एक हजार प्रश्नों का एक ही बार में उत्तर दे देते है? बस उसने आव देखा न ताव और कुंवें के मुँह से पर्दा हटा दिया. उधर भगवान शेष अपने सारे मुंहो को खोल कर पढ़ा रहे थे. उन एक हजार मुंहो से निकलने वाला हलाहल विष समस्त शिष्यों को जला कर खाक कर दिया. और अपने उद्देश्य में असफल भगवान शेषनाग तिरोहित हो गये. तथा भगवान शिव के पास लौट गये. भगवान शिव को भी बहुत क्लेश हुआ. और वह समाधि में बैठ गये.
इधर वर्धा जो वर्त्तमान में महाराष्ट्र राज्य में है, वहां के प्रसिद्ध तपस्वी सोमेश्वर के एक मात्र पुत्र सोमभद्र जिन्हें बहुत से ग्रंथो में वीरभद्र, अंशुमान आदि नामो से बताया गया है, उन्हें यह पता चला कि भगवान का एक अवतार संसार के हित साधन के लिये शिक्षा प्रदान करने के लिये काशी में आया है. वह भी वहां से चल पड़े. किन्तु जब तक वह काशी पहुंचे, तब तक भगवान शेष अंतर्ध्यान हो चुके थे. वह सोमभद्र निराश होकर उस पीपल के पेड़ के नीचे बैठ कर अपनी बदकिश्मती पर रोंर लगा. बहुत देर तक विलाप करता रहा. रोते विलखते रात हो गयी. उस पेड़ पर रहने वाला प्रेत अस्तित्व में आया. वह बोला कि हे ब्राह्मण ! रोने से कोई लाभ नहीं है. मेरी बात सुनो. जो उस अवतारी गुरु ने पढ़ाया है वह सब मैं तुम्हें पढ़ा दूंगा. मेरे साथ कठिनाई यह है कि रात में मै तुम्हें आमने सामने हो कर पढ़ाउंगा. किन्तु दिन में सम्मुख नहीं बैठ पाउँगा. उस स्थिति में मै इस पीपल के पत्तो पर सारा सूत्र लिख कर पेड़ के नीचे गिराता रहूंगा. तुम उसे एकत्र कर के पढ़ते रहना. सोमभद्र राजी हो गये. बस पढाई शुरू हो गयी. रात भर प्रेत पढाता रहा. दिन होते ही प्रेत पत्तो पर उन पढाये सूत्रों को लिख लिख कर नीचे गिराता गया. सोमभद्र उसे एकत्र करता गया. चूँकि वह तों प्रेत था. वह बहुत ही तीव्र गति से लिख कर धरती पर गिराता था. किन्तु उसी शीघ्रता से सोमभद्र उतनी शीघ्रता से उन पत्तो को एकत्र नहीं कर पाते थे. इसी बीच वहां पर कुछ बकरियां उधर चरते हुए आ गयीं. अब सोमभद्र पत्तो को धरती पर गिरने के पहले ही हवा में ऊपर ही अंजुली में रोक लेता था. पत्तो को अंजुली में रोकने के कारण “पत्र अंजलि या पातंजलि” नाम पडा. इधर जितने पत्ते पतंजलि ने अपने अंजुली में ऊपर ही रोक लिये वह तों उन्होंने पढ़ लिया. किन्तु जो पती धरती पर गिर गये उन्हें उन बकरियों ने खा डाला. इसीलिये पातंजलि ने सूत्र लिखते लिखते क्रमवार आगे लिखते गये. जैसे-
“अकः सवर्णे दीर्घः, आदि गुणः, वृद्धि रेचि” इतने सूत्र लिखने के बाद लिखते है कि “अग्रे अजा भक्षिता” अर्थात आगे के सूत्र बकरी खा गयी.
इस प्रकार पतंजलि का भाषा-विधान का सिद्धांत बहुधा अपूर्ण ही है. इधर बहुत दिनों बाद जब भगवान शिव क़ी समाधि टूटी तों उनका “तांडव नृत्य” प्रारम्भ हुआ. और पाणिनी जी को उनके डमरू से निकलने वाली धुन के द्वारा भाषा-विधान का आदि सूत्र जिसे “माहेश्वर सूत्र” के नाम से जाना जाता है प्राप्त हुआ.
“न्रित्यावसाने नटराज राजः ननाद ढक्वाम नवपञ्च वारं.
उद्धर्तु कामाद सनकादि सिद्धिः एतद्विमर्शे शिवसूत्र जालम.”
अर्थात नृत्य क़ी समाप्ति पर नटराज भगवान शिव ने अपने डमरू को नव पञ्च या चौदह बार बजाया. ये चौदह सूत्र जो सनक सनंदन आदि ऋषियों क़ी कामना सिद्धि का कारण बने वे चौदहों सूत्र एक एक कर के चौदहों भुवन में व्याप्त हो गये. तथा यह शिव सूत्र जाल सबको एक सूत्र में बांधने का काम किया.
पण्डित आर. के. राय
प्रयाग
9889649352
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