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शालिग्राम. तुलसी, शिवलिंग एवं शंख : उत्पत्ति एवं महता

वेद विज्ञान
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शंख क़ी उत्पत्ति एवं महत्व
शंख भगवान विष्णु के सहयोग से देवताओं द्वारा निर्मित वह तांत्रिक अस्त्र है जिसके आरोही एवं अवरोही निनाद से शरीर क़ी तीनो नाड़ियाँ- इंगला, पिंगला एवं सुषुम्ना, अपने ऊपर चढ़े त्रिताप- दैहिक, दैविक एवं भौतिक, के दृढ आवरण का भेदन कर अष्ट सिद्धि एवं नवो निधियों को बल पूर्वक अपने पास खींच लाती हैं. इसके निर्माण में ऋषि उदीच्य भानु के कपाल क़ी माध्यिका, भगवान विष्णु का नाखून, भगवान शिव के शरीर क़ी विभूति, यमराज के दंड का अग्र भाग, भगवान अग्नि के हव्य का प्रथम दशांश, वरुण देव का ठोस नीर या बर्फ, तीनो देवियों का सात स्वर तथा ब्रह्मा जी क़ी आयु का बहुत ही विधि विधान से प्रयोग किया गया है. इसका विस्तृत वर्णन “उदधिदोहन” नामक दाक्षिणात्य ग्रन्थ में उपलब्ध है.
इसके सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा का उल्लेख आता है. प्राचीन काल में एक राक्षस था जिसका नाम शंखचूड़ था. उसकी पत्नी का नाम वृंदा था. वृंदा एक महान सती एवं परम विष्णु भक्त नारी थी. उसके सतीत्व क़ी महत्ता एवं गुरुता से त्रिलोक क़ी नारियां भी ईर्ष्या करती थी. पति के राक्षस होने के बावजूद भी वह अपने पति में अटूट श्रद्धा एवं विश्वास रखती थी, उसे देवताओ का वरदान था कि जब तक सती वृंदा का ध्यान अपने पति से भंग नहीं होगा, कोई भी सजीव या निर्जीव शंखचूड़ को मार नहीं सकता. इसी का अनुचित लाभ उठा कर शंखचूड देवताओं के साथ युद्ध करना शुरू कर दिया. पहले उसने समस्त पृथ्वी का विजय किया. उसके बाद देव लोक पर चढ़ाई कर के देवताओं को उनके लोक से भगाया. उसके बाद स्वर्ग को भी देवताओं से खाली करा लिया. सब देवता मिल कर भगवान भोले नाथ के पास पहुंचे. सबने अपना दुखडा उनसे सुनाया. भगवान शिव अपना त्रिशूल उठाकर युद्ध करने पहुँच गये. वृंदा को जब ज्ञात हुआ कि त्रिलोकीनाथ भगवान शिव स्वयं ही युद्ध करने आ रहे है. तों उसने अपने पति शंखचूड को समझाया कि शिवशंकर से युद्ध न करो. वह भगवान एवं तीनो लोको के स्वामी है. शंखचूड बोला कि यदि भगवान होगे तों मुझे मार देगें. तों मरना तों है ही यदि तुम्हारा ध्यान भंग होगा तों. और मरूँगा तों भगवान के हाथो ही. तों इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है? वृंदा बोली कि जीवन एवं मृत्यु दोनों के दो भेद होते है. एक सार्थक एवं दूसरा निरर्थक. निरर्थक मृत्यु सदा कायर, नीच एवं पापियों क़ी होती है. किन्तु पुण्यशाली एवं बहादुर योद्धा सदा सार्थक मृत्यु का वरण करते है. अभी आप यह बताएं कि भगवान शिव को यदि युद्ध में आप पराजित ही कर देते है तों उससे आप का कौन सा कार्य सिद्ध होगा? शंखचूड बोला कि इससे हमारी मान मर्यादा एवं यश कीर्ति का विस्तार होगा. वृंदा बोली कि यदि यश कीर्ति एवं मान मर्यादा बिना युद्ध एवं नरसंहार के ही मिले तों वह उत्तम है या सारी प्रजा को युद्ध में झोंक देने से मिले वह उत्तम है? शंख चूड़ बोला कि वीर योद्धा किसी उधार, भीख में मिले या किसी क़ी दया से मिले उपहार या दान के यश एवं कीर्ति का आकांक्षी नहीं होता है. वह जीत कर इसे प्राप्त करता है. वृंदा बोली कि सोने को चाहे हार में बना कर गले में धारण करें या पाँव क़ी जूती बनवाये, वह सोना ही कहलायेगा. चाहे मान मर्यादा एवं यश कीर्ति किसी से दान में मिले या याचना से मिले. यश एवं सम्मान यश-सम्मान ही कहलायेगा. चाहे आप मिर्च प्रेम से खाए या शौक से, मज़बूरी में खाएं या दबाव में, मिर्च का स्वाद तीखा ही होगा. शंखचूड़ बोला ” किन्तु वृंदा, जूठे बर्तन में भी रखा भोजन भोजन ही कहलाता है. तों क्या वह भोजन शुद्ध कहला सकता है? क्या उसे ग्रहण करना चाहिए?” वृंदा बोली ” हे शंखचूड़ ! भोजन तों भोजन ही कहलायेगा. चाहे उसे किसी भी बर्तन में रखें. अब बात आती है कि वह ग्रहण करने योग्य है या नहीं. तों हे शंखचूड़ ! बर्तन स्वयं जूठा नहीं होता है. या बर्तन जब बनता है तों मूल रूप में वह बिल्कुल शुद्ध ही होता है. बाद में उसे जूठा कर दिया जाता है. इसमें बर्तन का क्या दोष? दूसरी बात यह कि यदि मुँह से एक बार आशीर्वाद या मन्त्र बोल दिया गया तों इसका मतलब यह नहीं कि अब यह मुँह जूठा हो गया. इस मुँह को काट कर फेंक दो. इस मुँह से तों एक बार मन्त्र बोला जा चुका है. अब इस जूठे मुँह से फिर बोला गया मन्त्र जूठा ही होगा. हे शंखचूड ! भोजन क़ी शुद्धता उसकी प्रकृति पर निर्भर है. न कि बर्तन पर.” शंख चूड बोला ! हे वृंदा ! बहुत कुछ बर्तन पर भी निर्भर करता है. यदि ताम्बे के बर्तन में दही ज्यादा देर तक रख दिया जाय तों वह विषाक्त हो जाता है.” “किन्तु हे शंखचूड़ !” वृंदा बोली ” ताम्बे के बर्तन में ज्यादा समय तक यदि जल रखा जाय तों वह जल औषधि भी बन जाता है. जो पांडू, राज्यक्षमा तथा रक्ताल्पता जैसी भयंकर एवं असाध्य व्याधियों से मुक्ति भी दिलाता है”.
अंत में शंखचूड़ बोला कि हे वृंदा तुम से वाद विवाद एवं तर्क वितर्क करना व्यर्थ है. तुम मुझे भय भीत कर युद्ध से परांग मुख कर मुझे निर्वीर्य बनाना चाहती हो. वृंदा बोली कि हे शंखचूड़ ! मै सदा तुम्हारे जय क़ी कामना करती हूँ. यह जानते हुए भी कि भगवान शिव काल एवं प्रकृति से परे स्वयं भू है. उनसे युद्ध क़ी बात ही सोचना व्यर्थ है. युद्ध में विजय पाना तों बहुत दूर क़ी बात है. किन्तु फिर भी मै तुम्हारे विजय क़ी ही कामना करती हूँ.
शंखचूड़ युद्ध क्षेत्र में पहुंचा. भगवान शिव से घनघोर युद्ध हुआ. अंत में भगवान शिव ने क्रोध कर के अपना त्रिलोक संहारक दुर्धर्ष त्रिशूल उठाया. तब तक सती वृंदा का अभेद्य एवं दुर्गम तेज़ आकर त्रिशूल के सम्मुख खडा हो गया. भगवान शिव उस अपराजेय तेज़ को सम्मान देते हुए युद्ध क्षेत्र से बाहर हो गये. निराश होकर सब देवता भगवान विष्णु क़ी शरण पहुंचे. सबने विचार विमर्श किया. भगवान शिव बोले कि जब तक सती वृंदा का पतिव्रत या सतीत्व भंग नहीं होगा तब तक शंखचूड को हराना असंभव है. फिर सब भगवान विष्णु क़ी तरफ कातर दृष्टि से देखने लगे. अंत में यह निश्चय हुआ कि भगवान विष्णु छल पूर्वक सती वृंदा का सतीत्व भंग करेगें. यद्यपि इसके दूर गामी परिणाम के भयावह दृष्य को देख माता लक्ष्मी का हृदय काँप गया. किन्तु भगवान विष्णु ने उन्हें समझाया कि इससे लक्ष्मी का गुरुत्व ही बढेगा, कुछ कम नहीं होगा.
युद्ध क़ी नए सिरे से घोषणा हुई. देवताओं क़ी सेना फिर युद्ध क्षेत्र में आ पहुँची. इस बार सती वृंदा को अनेक अपशकुन होने लगे. उसने फिर शंखचूड़ को युद्ध न करने के लिये समझाया. किन्तु उसने वृंदा क़ी एक न सुनी. और युद्ध के लिये प्रस्थान कर गया. इधर जब युद्ध प्रारम्भ हुआ तों भगवान विष्णु शंखचूड़ का रूप धारण कर वृंदा के पास आये. वृंदा ने सशंकित होकर उनसे युद्ध से इतना शीघ्र वापस आने का कारण पूछा. भगवान विष्णु ने कहा कि युद्ध में कोई अज्ञात शक्ति ने मुझ पर प्रहार किया है. मुझे थकावट सी महसूस हो रही है. मै आराम करना चाहता हूँ. तत्काल वृंदा ने भगवान क़ी सेवा शुश्रूषा शुरू क़ी. भगवान सो गये. उदास मन से वृंदा भी भगवान से लिपट कर सो गयी. पर पुरुष के संसर्ग से वृंदा का सतीत्व भंग हो गया. अदृष्य शक्ति के क्षीण होते ही भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से शंखचूड़ का सिर काट लिया. सारी दैत्य सेना हाहाकार करती हुई राजधानी क़ी तरफ भाग पडी. शोरगुल सुन कर वृंदा बाहर निकली. उसने शोर का कारण पूछा. जब उसे सच्चाई ज्ञात हुई तों भयंकर गुस्से में क्रोध से आग बबूला होकर अपने अन्तः कक्ष में आई. तब तक भगवान विष्णु अपने असली रूप में आ चुके थे. यद्यपि वहां उपस्थित सब देवी देवता किसी भयंकर अनहोनी क़ी आशंका से पहले ही काँप रहे थे. किन्तु अत्यंत सौम्य रूप धारी भगवान विष्णु स्मित मुस्कान के साथ स्थिर एवं गंभीर मूर्ती धारण किये हुए वृंदा क़ी तरफ देख रहे थे. वृंदा ने क्रोध से कांपते हुए शाप देना शुरू किया ” ऐ कपटी छलिया विष्णु तुमने दूसरे क़ी पत्नी का सतीत्व हरण किया तुम्हारी भी पत्नी क़ी मर्यादा इसी तरह एक बार नहीं बल्कि लगातार भंग होगी. तुम और शिव दोनों ही अन्दर के बहुत ही काले हो. तुम्हारा रंग काजल से भी काला हो जाय. तुम्हारा हृदय पत्थर से भी कठोर है. तुम तत्काल पत्थर के हो जाओ.” भगवान विष्णु मुस्कराते हुए बोले कि हे सती वृंदा तुम्हारा प्रत्येक वचन मुझे सिरोधार्य है. जब सती वृंदा बहुत देर तक रोने एवं विलाप करने के बाद सामान्य अवस्था में लौटी तथा उसे जब चेत हुआ तों वह पश्चात्ताप करने लगी. भगवान से उसने प्रार्थना किया कि हे प्रभु मेरा कथन असत्य कीजिये. मैंने क्रोध में अपना विवेक खो दिया था. मैंने अपनी मूर्खता एवं राक्षसी प्रकृति के कारण माता लक्ष्मी को भी पता नहीं क्या भला बुरा कह दिया. उसने बहुत ही कातर दृष्टि से माता लक्ष्मी क़ी तरफ देखना शुरू किया. फिर वृंदा लक्ष्मी का पाँव पकड़ कर रोने लगी. भगवान विष्णु ने कहा कि हे वृंदा एक बार मै अपने वचन वापस ले सकता हूँ. किन्तु एक सती नारी का कथन वापस करने का अधिकार तीनो लोक चौदहों भुवन में किसी के पास नहीं है. तुमने कुछ भी अस्वाभाविक या अप्राकृतिक रूप से कुछ भी नहीं कहा है. होनी को कैसे रोका जा सकता है? होनी तों अपना काम अबाध गति से करती ही है. उसमें कभी कोई रुकावट या व्यवधान उत्पन्न नहीं हो सकता है. हम अपने आप को उससे सुरक्षित रखने का यत्न कर सकते है. उठो. धैर्य धारण करो. यह मेरा आशीर्वाद है कि तुम पराये पुरुष के स्पर्श से पाप बोध का अनुभव कर रही हो वह अक्षय पुण्य में परिवर्तित हो जाएगा. बिना तुम्हारी उपस्थिति के कोई यज्ञ या पूजा पाठ संपूर्ण नहीं हो पायेगा. विशेष रूप में मुझे वह कोई भी पूजा स्वीकार्य नहीं होगी जो बिना तुम्हारी उपस्थिति के क़ी जायेगी. तुम्हारी लोक लोकांतर में सदा पूजा होगी. जिस अपराध बोध के कारण तुम सहमी हुई हो उसका निवारण यह है कि तुम्हारा प्रतिवर्ष मेरे साथ विवाह होगा. और तुम्हारे हमारे विवाह के बाद ही जगत में विवाह आदि मंगल कार्य प्रारम्भ हो पायेगें. जिस किसी भी औरत को अपने अचल सुहाग क़ी कामना होगी वह पहले तुम्हारी पूजा करेगी. तुम्हारा पति शंखचूड भी सदा तुम्हारे साथ रहेगा. मात्र विवाह के दिन ही मै तुम्हारे साथ रहूँगा. किन्तु शंखचूड़ सदा तुम्हारे साथ रहेगा. जिस किसी को भी ऐश्वर्य, धन, लक्ष्मी एवं प्रतिष्ठा क़ी ज़रुरत होगी वह शंख को कभी तुमसे अलग नहीं करेगा. यह मेरा संसार को वरदान है कि जिस घर में दक्षिणा वर्ती शंख, पूज्य शिवलिंग, शालिग्राम एवं तुलसी का वृक्ष होगा उसे कभी दरिद्रता, रोग या भय नहीं हो सकता है. हे वृंदा यह मेरा दृढ निश्चित वरदान है. इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए.
विज्ञान भी अपने आधे अधूरे खोज एवं उपकरणों द्वारा यह कुछ हद तक जानने क़ी कोशिस किया है कि सुरमायत शालिग्राम जो नर्मदा के किनारे ही निकलते है, एक विलक्षण प्रकृति का पत्थर है. दक्षिणावर्ती शंख भी अद्भुत शक्ति वाला होता है. पारद शिवलिंग तों खैर शक्ति संपन्न होता ही है. तुलसी क़ी महत्ता जग ज़ाहिर ही है. शिव पुराण, विष्णु पुराण समेत समस्त पुराण, अथर्ववेद (यजुर्वेद-आयुर्वेद), सबमें इसका विशद विवरण मिलता है. यहाँ तक कि प्राचीन विदेशी साहित्यों यथा- लीजेन्डरी थिओसोफ़िआ, मिरैकुलस स्ट्रेटेगुआ एवं एन्सियोलिपेजी आदि ग्रंथो में भी इनकी विचित्र महत्ताओं का विवेचन उपलब्ध है. प्रसिद्ध चीनी ग्रन्थ “तेन्गी सेंतियांग” में इसे सबसे शक्तिशाली एवं अति विचित्र पार लौकिक शक्ति के रूप में निरूपण किया गया है. चीन में यांगटीसीक्यांग नदी के किनारे पता नहीं कितना पुराना एवं विशाल तुलसी का पौधा आज भी बड़े ही श्रद्धा एवं भक्ति के साथ पूजा जाता है. उस तुलसी के वृक्ष के नीचे एक बहुत ही बड़ा दक्षिणावर्ती शंख एवं लगभग आठ फुट ऊंचाई वाला शालिग्राम का पत्थर रखा हुआ है. तथा प्रत्येक वर्ष एक अक्टोबर को बहुत ही विशाल पूजन सम्म्रोह होता है.
इस प्रकार वृंदा के शाप से भगवान काले रंग के पत्थर में बदल गये. जिसे आज शाली ग्राम के नाम से जाना जाता है. तथा वृंदा अगले जन्म में तुलसी के रूप में प्रकट हुई. जिसकी प्रत्येक वर्ष शादी कार्तिक शुक्ला एकादशी को शालिग्राम के साथ होती है. वृंदा के शाप के कारण ही आज भी माता लक्ष्मी रुपये-पैसे के रूप में आज इस धनी व्यक्ति के यहाँ, कल उस व्यापारी के यहाँ, परसों उस चोर या ठग के यहाँ तों अगले दिन किसी बैंक में घूमती रहती है.
जिस किसी भी व्यक्ति को धन संपदा, ऐश्वर्य एवं नैरोग्य चाहिए उसे यत्न पूर्वक शंख, शालिग्राम, तुलसी एवं शिवलिंग क़ी उपासना करनी चाहिए.
पण्डित आर. के. राय.
प्रयाग
9889649352

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