खोया धन, स्वास्थ्य, उद्देश्य एवं विकराल बाधा एवं शत्रु से मुक्ति प्राप्त करने हेतु एकादश बीजो को छहों कोने पर एक ही अनार मिश्रित अष्टगंध द्रव से समुत्क्रमानुपाती लिखित यंत्र कात्यायनी धारण करें. यह उपदेश दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने हिरण्य कश्यप को दिया था. परिणाम स्वरुप किसी भी देवी देवता क़ी सामर्थ्य नहीं थी जो उस पर विजय प्राप्त कर सके. स्वयं भगवान शिव जब देवताओं क़ी तरफ से जब हिरण्य कश्यप के विरुद्ध युद्ध करने पहुंचे तों उसके पास कात्यायनी यंत्र देख कर उस यंत्र को प्रणाम किये. एवं युद्ध से विरत हो गये. उन्होंने कहा कि-
अर्थात मै कात्यायनी यंत्र को नमस्कार कर के युद्ध से विरत हो रहा हूँ. क्योकि यह यंत्र साक्षात जगत माता का प्रत्यक्ष स्वरुप ही है.
मेरा ब्लॉग अवतार कात्यायनी यंत्र ही है. यह केवल उस व्यक्ति के लिये उपयोगी है जिनका कष्ट छाया ग्रहों से है. मेरे इस कथन से ही आप को यह स्पष्ट हो गया होगा कि कात्यायनी यंत्र के कई रूप होते है. जी हाँ, यह प्रत्येक व्यक्ति के लिये अलग अलग होता है. किन्तु बड़े ही दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि वर्तमान समय में बाज़ार में उपलब्ध एक मानक स्वरुप ही सबके उपयोग के लिये उपलब्ध है. और भोली भाली श्रद्धालु प्रिय जनता उसी का धड़ल्ले से प्रयोग करती चली आ रही है.
खैर जो भी हो, यह ज़स्ता एवं ताम्बा के प्लेट पर बनता है. जिस व्यक्ति के लिये बनाना हो उसकी अंगुली एवं जन्म नक्षत्र के अंशतुल्य अनुपात के क्षेत्रफल में इसका निर्माण होता है. उस व्यक्ति के जन्म के समय लग्नस्थ ग्रह या लग्नस्थ राशि के पदार्थ के रस को अनार एवं अष्टगंध में मिला कर उकेरे अक्षरों पर लेप करते है. द्विरंध्रा सिरे को तूतिया लेप से ढकते है. जो सिरा शेर के सिर के आकार का दिखाई दे उस पर नाग फनी के पुष्प के रंग से रंगते है. उसके बाद उसे मिट्टी के बर्तन में मुँह बन्द कर कही साफ़ एवं सुरक्षित ज़मीन में गाड़ देते है. एक सप्ताह बाद उसे निकाल कर जायफल, ऊडद, शहद, सफ़ेद दूब, और पीले सरसों को एक साथ पीस कर उस यंत्र को उसमें ढक देते है. और उसे धुप में सुखाते है. जब ऊपरी परत सूख जाय तों उसे निकाल कर पराश्रुत जल से धो लेते है. और फिर श्रद्धा अनुसार धुप दीप दिखाकर किसी शुक्ल पक्ष के मंगलवार को अपने पास रख लेते है.
वैज्ञानिक तथ्य– ज़स्ता एवं ताम्बे के यौगिक का संयोग नागफनी के रस अर्थात डिक्लोमेरेडीन से होने पर विपर्ययी किरणें जो अंतरिक्ष से प्रश्रुत होती है उनका परिवर्तन सायिक्लोफ्लेविन में हो जाता है. जायफल, ऊडद, शहद आदि सोडियम हाईड्रोकार्बाईड एवं प्रोटोमायोविन के रूप में तूतिया या कापर सल्फेट के साथ मिलकर फ्यूरोमेक्राडीन जैसा कोई पदार्थ बनाते है. यह साईक्लोफ्लेविन को डायिथिल मेक्रावेरियम ट्राई कैल्सीडेराल में बदल देता है.
यह एक प्रकार से किरण जाल के रूप में व्यक्ति के चारो तरफ हमेशा फैला रहता है. जो व्यक्ति इसे धारण करता है उसके पास जाने से आदमी घबराता है. हिंसक जीव नज़दीक नहीं आते है. संक्रामक व्याधि ऐसे व्यक्ति को नहीं होती है. तथा ऐसे व्यक्ति क़ी ह्त्या विष देकर नहीं क़ी जा सकती.
यह तों मात्र सीमित वैज्ञानिक संसाधनों पर खोजी गयी प्रतिक्रिया एवं प्रभाव है. इसमें कई ऐसे भी विचित्र लक्षण दिखाई दिये है जो बहुत आश्चर्य जनक प्रभाव देते देखे गये है. किन्तु उनके बारे में विज्ञानं कोई विश्लेषण नहीं खोज पाया है. जैसे जो व्यक्ति इसे धारण करता है वह यदि किसी पर क्रोध कर के देखे तों उसके दृष्टि तंत्र (Ophthalmic System) क़ी सृजक वाहिनी (Releasing Duct) ड्यूरो सिनेरसिन युक्त सान्द्र गामा किरण प्रक्षिप्त करती है. जिससे सामने वाले क़ी स्मरण शक्ति एवं शर्करा दोनों ही शून्य हो जाते है.
विज्ञान यह तों मानता है कि ऐसी कोई चीज इससे निकलती है किन्तु इसके विश्लेषण में विज्ञान समर्थ नहीं हो सका है. या इस पर खोज करने क़ी आवश्यकता नहीं महसूस किया है. कारण यह है कि कोई एक तों यंत्र है नहीं. कितने यंत्र के ऊपर खोज क़ी जाय?
मै पाठक समुदाय को यह बात बता दूँ कि प्रत्येक यंत्र ह़र व्यक्ति के लिये उपयोगी नहीं होता है. जैसे यह यंत्र उस व्यक्ति के लिये कारगर नहीं हो सकता जिनका जन्म सितम्बर से दिसंबर तक रात में, जनवरी से अप्रैल तक दिन में तथा मई से अगस्त तक प्रातः सूर्योदय के समय या संध्या को सूर्यास्त के समय हुआ होगा.
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