Menu
blogid : 6000 postid : 865

यंत्र विधान- प्रकार

वेद विज्ञान
वेद विज्ञान
  • 497 Posts
  • 662 Comments

    यंत्र विधान- प्रकार

    प्राचीन मत के अनुसार यंत्र तीन प्रकार के बताये गये है.

    प्रश्रुत– ये यंत्र भोजपत्र, ताड़पत्र या धातुपत्र पर अंकित या उकेरित किये जाते है. इनकी क्रिया प्रणाली से शारीरिक अवयवो या अंगो का कोई सम्बन्ध नहीं होता है. ये यंत्र अंतरिक्ष क़ी विविध प्रक्रियाओं को अनुकूल या प्रतिकूल जैसी आवश्यकता होती है, उसके अनुसार उसे बदलते रहते है. तथा शरीर पर इनके पड़ने वाले प्रभाव को कम या ज्यादा करते है. उदाहरण स्वरुप वासुकी यंत्र रजत-ताम्र पत्र के मिश्रित पत्र पर नौसादर, हल्दी एवं गजकेशर के द्रव मिश्रण से आकृति उकेरते है. रजत एवं ताम्र (Ag +Cu) का संयोग जब टरमेरिक एसिड (हल्दी), पाथरी नौसादर (बेरियम हाईड्राक्सायिड) एवं गजकेशर (सोडियम ट्राईसल्फाडेक्सामीन) से होता है तों विज्ञान के मतानुसार तायितेनिक (Titanic) प्रकार क़ी किरण या उसी जैसा समस्थानिक (Isotopes) उत्सर्जित होता है. यह किरण शरीर के चारो तरफ एक घना एवं अभेद्य कवच बना देती है. एवं अंतरिक्ष क़ी अशुभ या हानिकारक किरण या वायु को परावर्तित कर देती है. और शरीर सुरक्षित बच जाता है. शास्त्रीय मतानुसार – “हरिद्राब्रजेयम करिनात्कालित ताम्र रजेन च. सर्पम व्यतिपातें विध्रदे केमदृमे च कुत्सितः. ” अर्थात वज्रकरिण किरण कुत्सित प्रभाव से यथा जादू, टोना, नज़र, गुज़र, गोचर के सर्पयोग, एवं व्यतिपात तथा विषकन्या योग को दूर करता है.

    अपश्रुत- यह साधारण भाषा में ताबीज़ एवं गण्डा के नाम से जाना जाता है. इसके बार में सर्व साधारण परिचित है. इसलिये इसके निर्माण क़ी प्रक्रिया बताने क़ी आवश्यकता नहीं है. सिर्फ यह बताना है कि इसके अन्दर कुछ पदार्थ भर दिये जाते है. ये पदार्थ रासायनिक अभिक्रियाओं के द्वारा सीधा शरीर के अवयवों को भी अपनी क्रिया में हिस्सेदार बनाते है. जैसे ताबीज़ के अन्दर भरा सोडा, सरसों क़ी राख तथा बंगभष्म एक रासायनिक यौगिक बनाते है. यह रासायनिक यौगिक चमड़ी के माध्यम से (Through Epidermic System) शरीर के अन्दर तक सीधे एवं शीघ्र प्रभाव पहुंचाते है. मृगी, योषाअपष्मार, निद्राप्रचलन, बेहोसी एवं रक्ताल्पता जैसी व्याधियो में धारण किया जाने वाला ताबीज़ चांदी का बनता है. इसके अन्दर पीले सरसों के चूर्ण में समुद्रफेन हींग, अदुलसा के फूल का चूर्ण, जाबित्री, कूशा के जड़, मेहंदी एवं भांग के पत्तो का चूर्ण सब एक साथ कूट पीस कर भर देते है. एवं लाख से इसका मुँह बन्द कर देते है. शास्त्र के अनुसार इससे पिप्पलीक द्रव निकलता है. जो चमड़ी से होकर शरीर के अन्दर रक्त, पित्त एवं धातु से तत्काल घुल जाता है. एवं कोशिका क़ी विद्युतीय ऊर्जा को नियमित, सक्रिय एवं आनुपातिक विलयन में परिवर्तित कर देता है.

    विश्रुत– यद्यपि इसका उल्लेख विविध प्राचीन साहित्यों एवं तांत्रिक ग्रंथो में हुआ है. यहाँ तक कि अथर्ववेद में भी इसका विवरण उपलब्ध है. किन्तु जिस तरह से इसे वर्त्तमान रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है उस तरह किसी भी वेद या पुराण में कोई जिक्र नहीं मिलता है. झाड फूंक एवं मारण, मोहन उच्चाटन आदि इसी के क्षेत्र में आते है. वैसे इसके बारे में मुझे कोई ज्यादा ज्ञान नहीं है. फिर भी जितनी जानकारी मेरे पास उपलब्ध है उसके आधार पर मै कुछ विवरण देने का प्रयत्न कर रहा हूँ. अथर्ववेद के अनुसार इसके लिये व्यक्ति को योग विद्या क़ी उच्च जानकारी होनी चाहिए. यह एक अप्रत्यक्ष रूप से संवेदनाओं के सहारे काम करने वाली पराभौतिक प्रक्रिया है. योग विद्या में जो पारंगत होगा वह अपनी समस्त बाह्य एवं अन्तः इन्द्रियों पर नियंत्रण रख सकता है. तथा प्राण वायु (आक्सीजन) के ऊपर इतना दबाव बनाए कि अपान वायु (कार्बन मोनोआक्सायिड) के रूप में वह ऊष्मीकृत होकर बाहर निकले. निरंतर आचरण एवं अभ्यास से यह अपान वायु बाह्य वातावरण से संपर्क करते ही अपना ताप क्रम 180 सेंटी ग्रेड से भी ऊपर बढा लेती है. शरीर झुलसाने के लिये 60 सेंटी ग्रेड का ही तापमान पर्याप्त होता है. आप को यह ज्ञात होगा कि एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर का तापमान 47 डिग्री सेंटीग्रेड होता है. इस प्रकार इसे आज कल बद दुआ के रूप में जाना जाता है. इसीलिये कहा जाता है कि किसी के मुँह का शाप न लो. भगवान शिव इस अन्तस्थ ऊष्मव्यतिरेकण विद्या के प्रवर्तक माने जाते है. उनके तृतीय नेत्र से निकलने वाली भीषण ज्वाला इस योग विद्या क़ी पराकाष्ठा है. जो भी हो मैंने इस पर कभी कोई विचार या प्रयोग नहीं किया. और न ही मेरे पास कोई ऐसा संपन्न संसाधन ही उपलब्ध है. और ऊपर से बाल बच्चो को पालने के लिये सरकारी चाकरी भी करनी ही है. इसलिए इतना पर्याप्त समय निकाल पाना भी कठिन ही है. इस लिये इस यंत्र या तंत्र पर कोई ठोस विचार या व्याख्या देना या स्पष्टीकरण देना मेरे लिये कठिन है. चूंकि मुझे इसका ज्ञान नहीं है इसलिए मै न तों इसे चुनौती ही दे सकता हूँ और न ही इसे झूठा ही कह सकता, जैसा कि आज के उच्च विकसित मानसिकता वाले लोग अपनी मूर्खता को छिपाने के लिये यंत्र-मन्त्र-तंत्र को ढकोसला एवं पाखण्ड कह देते है. किन्तु यह कहने में शर्म आती है कि वे स्वयं बेवकूफ एवं अनाडी है.

यद्यपि इसका वर्त्तमान स्वरुप बहुत ही विकृत हो चुका है. मुझ जैसे कुछ उदर भरण पोषण में लिप्त ठगी विद्या के अनुयायी तथाकथित पण्डित इसका सर्वनाश करने में कोई भी कसर उठा नहीं रखे है. तथा इसे इतना भ्रम मूलक एवं आम आदमी के पहुँच से इतना दूर कर दिये है कि यदि लोग इसे पाखण्ड एवं ठगी विद्या कहते है
पण्डित आर. के. राय
प्रयाग
9889649352

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply