पद्धतियाँ दो होती है. एक आगमनात्मक एवं दूसरी निगमनात्मक. आगमनात्मक पद्धति वह है जिसे हम पहले अपने संपर्क में लेते है. उसका अनुभव करते है. उसके बाद उसे सिद्ध मानते है. निगमनात्मक पद्धति वह है जिसको हम पहले सिद्ध मानते है. फिर उसकी आलोचना, गवेषणा, विश्लेषण तथा चिंतन-मंथन द्वारा अनुभव करते है. फिर उसे आत्मसात करते है. उदाहरण के लिये, जब हमें रेखागणित के किसी निर्मेय या प्रमेय को सिद्ध करना होता है तों पहले हम एक वैसे ही त्रिभुज क़ी कल्पना करते है. जैसे मान लिया की अ ब स एक त्रिभुज है. इस प्रकार पहले हम कल्पना करते है. उसके बाद उसके अस्तित्व को सिद्ध रूप में पाते है. जो पहले अस्तित्व में नहीं लगता है. किन्तु जब विविध ठोस एवं प्रामाणिक तर्कों द्वारा सिद्ध कर लेते है तों अंत में कहते है की “इति सिद्धम”.
ईश्वर है या नहीं यह जानने से पहले यह जानना आवश्यक है की ईश्वर क्या है? किसी सब्जी क़ी दुकान क़ी हरी सब्जी है? किसी पंसारी क़ी दुकान का मसाला है? किसी पान वाले क़ी दुकान का कत्था लगा पान है या किसी मयखाने का पैमाना? जब यह जान जायेगें और उसका जब रूप निश्चित हो जाएगा तब उसे ढूँढने में आसानी रहेगी.
इसीलिए तुलसी ने भगवान को राम के रूप में पाया. सूर दास ने कृष्ण रूप में तथा प्रहलाद ने नर-सिंह रूप में भगवान को पाया.
दूसरी बात यह की समझदारो के लिये तुलसी दास ने बड़े ही गूढ़ एवं स्पष्ट दोनों तरह से समझा दिया है. एक जगह कहते है कि-
“ईश्वर अंश जीव अविनाशी.”
अर्थात प्रत्येक प्राणी के अन्दर विराज मान ईश्वर है. जो अविनाशी है. और भी कहते है-
अर्थात संसार के प्रत्येक प्राणी के अन्दर भगवान विराज मान है.
अब दूसरी जगह देखिये-
“तुलसी यहि जग आय के सबसे मिलियो धाय. ना जाने किस वेश में नारायण मिलि जाय.”
अर्थात सब से मिलिए. किसी न किसी में तों भगवान होगें ही. अरे भाई जब सब जग सीय राम मय है तों सब से मिलने क़ी क्या आवश्यकता है? किसी एक से मिलो. नारायण मिल जायेगें.
किन्तु मेरे भाई ! दवा के दुकान क़ी प्रत्येक दवा, दवा ही कहलायेगी. फिर भी प्रत्येक दवा ह़र रोग में काम नहीं आयेगी. अब आप यह कहें की यार फिर यह कैसी दवा है जो रोग ठीक नहीं कर रही है.? किन्तु ऐसा कहने से वह दवा बेकार नहीं हो जाती. वह दवा अपने अनुरूप रोग पर ही काम करेगी.
ठीक इसी प्रकार ह़र गुरुद्वारा, मंदिर, मस्जिद एवं गिरजा घर में भगवान है. अब आप पता नहीं कौन से भगवान को ढूंढ रहे है? यह तों आप ही जानें.
अब आप देखें, आप बड़ी ही विनम्रता पूर्वक बड़ो से आशीर्वाद माँगते है. बड़े देते भी है. हो सकता है कोई न भी दे. किन्तु क्या आप ने आशीर्वाद को देखा, स्पर्श किया या किसी थैले में इकट्ठा किया है?
भाई जी जीव विज्ञान क़ी पुस्तक में ऋग्वेद क़ी ऋचाएँ नहीं बल्कि शरीर संरचना ही मिलेगा. तों क्या जीव विज्ञान क़ी पुस्तक अनुपयोगी है? जी नहीं.
आप ने मंदिर,मस्जिद आदि ह़र देव स्थान में ढूंढा. किन्तु आप को अपने वाले भगवान नहीं मिले.
अब इसमें दो ही बातें हो सकती है. या तों आप अपने भगवान के गुण अवगुण, रूप, आकार-प्रकार, आवास- निवास के बारे में जानते ही नहीं या फिर आप ढूँढते ही नहीं.
ERRORS LIKE STRAWS UPON THE SURFACE FLOW. ONE WHO IS IN SEARCH OF TRUTH MUST DIVE BELOW.
या इसको यूं कह सकते है कि-
“जिन ढूंढा तिन पाईयां गहरे पानी पैठि.
मै बपुरी बूडन डरी रही किनारे बैठि”
भगवान तों भगवान है. वह आदमी तों है नहीं. यदि आदमी हो तों उसे भी नाथू राम गोडसे क़ी तरह गांधी क़ी ह्त्या करनी पड़े. चूंकि वह भगवान है, आदमी नहीं. इसलिये उसे भगवान के नज़रिये से ढूंढिए आदमी के नज़रिये से नहीं. बैक्टीरिया एवं पैरासायिट्स जैसे अति सूक्ष्म कीटाणु होते है. किन्तु उसे हम अपनी आँखों से नहीं देख सकते है. इसके लिये सूक्ष्म दर्शी का प्रयोग करते है. तों क्या हम नंगी आँखों से उन सूक्ष्म कीटाणुओ को नहीं देखते है तों कीटाणु होते ही नहीं?
भगवान को देखने के लिये मानवी आँख नहीं बल्कि भगवान जैसी आँख चाहिए.
वैसे मै भगवान का शाब्दिक अर्थ बता दूँ.
“भग” औरतो के गुप्तांग को तथा “लिंग” पुरुषो के गुप्तांग को कहते है. जैसे गाडीवान, रिक्सावान, धनवान आदि होते है. वैसे ही वह पुरुष भगवान होता है. अर्थात वह स्वयं स्त्री एवं पुरुष दोनों है. या दूसरे शब्दों में वह (लिंग युक्त) पुरुष स्वयं भग युक्त भी होता है. इस प्रकार वह समग्र सृष्टी को नितान अकेले बिना किसी के सहयोग के रचने में समर्थ है. आप स्वयं सोचिये, क्या पुरुष स्त्री होता है? या क्या स्त्री पुरुष होती है? नहीं. वह भगवान ही है जो स्त्री भी है तथा पुरुष भी. दूसरे शब्दों में वह भगवान ही है जो साकार भी है तथा निराकार भी. ह़र जगह है तथा कही भी नहीं है. वह हमेशा हमारी आँखों के सामने है किन्तु हम देख नहीं पाते है. अर्थात दिखाई देकर भी लुप्त है.
भगवान को ढूँढने के पहले उसके बारे में जानना ज़रूरी है. उसके बारे में विश्लेषण पद्धतिद्वय से करनी है. जब उसका आकार एक निश्चित परिधि में निर्धारित कर लें तब उसे ढूंढिए. अवश्य मिलेगा. पहले रोग को पहचानें. उसका निदान करें. उसके बाद उसके अनुरूप दवा ग्रहण करें. निश्चित लाभ मिलेगा.
भगवान कभी गलत का साथ नहीं देता. तथा सत्य से कभी दूर नहीं रहता. हम जिसे बुरा कहते है, वह बुरा हमारी कसौटी के आधार पर है. हमारी सोच के आधार पर कोई काम या परिणाम बुरा या भला होता है. भगवान क़ी कसौटी कुछ अलग है. और कसौटी अलग है, इसीलिए वह भगवान है. अन्यथा वह भी इंसान या हैवान ही है. जिस तरह नेता लोग संसद में अपने द्वारा बनाए अध्यादेश या कानून को उचित, पूर्ण एवं उपयोगी मानते है जब कि हमारे लिये वह अशोभनीय होता है.
इसलिये यह कहना कि उसने नाज़ी हिटलर का साथ क्यों दिया? उसने नाज़ी हिटलर का साथ इसलिये दिया क्योंकि नास्तिक, भ्रष्ट एवं आततायी बनी शेष प्रजा-राजा को ज़मीनी हकीकत बताना आवश्यक था.
मरना किस को नहीं है? “आयेगा सो जाएगा राजा रंक फकीर” यही कारण है कि रावण धरती से निशाचरों का सर्वनाश करने के लिये लंका क़ी गली गली में घूम घूम कर यह ढूंढा कि कोई ज़िंदा तों नहीं बचा है. और जब सारे मारे गये तब अंत में उसने अपना प्राण त्रिलोकी नाथ भगवान के हाथो छोड़ा. नहीं तों उसको तों पहले से यह ज्ञान था-
“खर दूषण त्रिशिरा अरु बाली. हते सकल अतुलित बलशाली.
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खर दूषण मो सम बलवन्ता. तेहि को मारे बिनु भगवंता.
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यहि सन हठि हम करब लराई. कहेउ दशानन भुजा उठाई.
अभी कहें कि भगवान ने बंदरो का साथ दिया, राक्षसों का नाश किया. अपनी बीबी सीता के कारण स्वार्थ वश लंका को मटिया मेट किया. तों यह सब हमारी सोच है. जिसे सोचना है, वह कुछ और ही सोच रहा है. तथा हम कुछ और ही सोच रहे है. यदि रावण को सीता का हरण ही करना था. तों फिर सीता को ले जाकर अपने स्वर्ण रचित हीरा मोंती ज़टित शयनागार में क्यों नहीं रखा? उसे अशोक वाटिका में रखने क़ी क्या ज़रुरत थी? बल पूर्वक वह कुछ भी कर सकता था. एक अबला नारी का शील हरण उसके लिये क्या कठिन काम था?
किन्तु हम कुछ और ही सोचते है.
भाई जी, भगवान है. वह ह़र जगह है. ह़र एक के सामने है. जो जिस रूप में ढूँढता है, उसे उसी रूप में मिलते है. वह पक्षपात पूर्ण प्रकार से किसी का साथ नहीं देता है. कोई उसका शत्रु नहीं है. वह किसी का मित्र नहीं है. उसकी प्रत्येक भूमिका व्यवस्थित, अनुशासित, उचित एवं पूर्ण होती है. हम अपने आधे अधूरे तर्क कुतर्क से उसका विश्लेषण विविध प्रकार से करते एवं उसे ढूँढते है.
अब अंत में अपनी तुच्छ बुद्धि एवं संकीर्ण सोच के आधार पर अपने भगवान के कुछ लक्षण बताता हूँ, यदि यह भगवान आप के काम क़ी चीज हो तों आप उसे अवश्य ढूँढेंगें. जहां कही भी इस लक्षण से युक्त कोई आप को दिखाई दे, बस वही मेरा भगवान है.-
अर्थात स्थिर धारणा, अनावश्यक इच्छा दमन शक्ति, असत्य से दुराव, शुचिता, इन्द्रिय नियंत्रण, धैर्य, विद्या, सत्य-रति, एवं अक्रोधी स्वभाव ईश्वर रूपी धर्म के दश लक्षण है.
और अंत में भाई दिनेश जी सार्थक प्रतिक्रिया यही होती है जो आपने व्यक्त क़ी है. सार्थक प्रतिक्रिया के साथ खींच तान करना अच्छा लगता है.
किन्तु निराधार कुतर्को के आधार पर विद्वता प्रदर्शन भविष्य में स्थायी उपहास का कारण बन जाता है.
जैसा कि आप को पता है, मै एक ठेठ फौजी हूँ. थोड़ा बहुत पढ़ लिख गया हूँ. बस इश्वर क़ी कृपा से इधर उधर हाथ पैर मार लेता हूँ. दुनिया डारी में ज्लाझे परिवार के भरण पोषण के लिये नाना कर्म करने वाले एक ज्ञान धन निर्धन-विपन्न प्राणी जगत नियंता क़ी क्या परिभाषा देगा जिसे अनादि काल से ऋषि मुनि, वेद पुराण उपनिषद्, दर्शन आदि “नेति, नेति” अर्थात नहीं अंत है, नहीं अंत है, कह कर चुप्पी साध लिये.
मै सत्य कह रहा हूँ सार्थक प्रश्नों का उत्तर देने में एक अलग आनंद क़ी अनुभूति होती है.
आप से प्रार्थना यही है कि यदि ईश्वर के दर्शन नहीं होते है तों उसका अभिलाषी भी न बनिए. क्योकि जो दर्शन किया वह भी जगत में नहीं रहा तथा जो नहीं देखा वह भी इस संसार से विदा हो गया. तों इसमें समय को न बितायिये. बल्कि वह ईश्वर क्यों है, इस पर विचार करते हुए उसकी शिक्षाओं के साथ एकाकार होने का प्रयत्न कीजिये.
फिर भी यह मेरा नितांत एकाकी विचार है. सब का है या नहीं यह मै नहीं कह सकता.
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