Menu
blogid : 6000 postid : 885

भगवान क़ी दुकान (भंगेड़ी भगवान एवं भोला भगत)

वेद विज्ञान
वेद विज्ञान
  • 497 Posts
  • 662 Comments

    आग्रह- कृपया प्रत्येक पाठक इस लेख को अवश्य पढ़ें. भले इसे न मानें.

    आदरणीय श्री दीक्षित जी
    आप के प्रश्नों का उत्तर देने में विलम्ब हुआ, इसके पीछे कारण मेरी आजीविका का सवाल है. नौकरी पेशा वाला मै मायावी जंजाल में उलझ कर अनेक विध उल्टी सीधी हरक़तें करने में इतना उलझ गया कि मै आज आप के प्रश्नों को देख सका हूँ. जो आप ने मेरे लेख “भंगेड़ी भगवान एवं भोला भगत” के सम्बन्ध में लिखा है.
    सबसे पहले मै आप के अंतिम (२३ वें) प्रश्न का उत्तर देकर कृतार्थ होना चाहूँगा.
    (२३)- ईश्वर न तों कोई गुंडा है और न ही आतंक वादी जिससे डरा जाय. और जो ईश्वर का अस्तित्व मात्र डर के वशीभूत होकर मानता है उसके स्वयं के अन्दर निश्चित ऐसा कोई विकार है. अन्यथा सांच को आंच क्या?
    (१८)- जिस शब्द का कोई अर्थ न हो उसे निरर्थक कहते है. शब्द के अनेक अर्थ हो सकते है. आप उसे जिस तरह ग्रहण करें. कोई उसकी सार्थकता को ग्रहण करता है. कोई उसकी निरर्थकता को. जिसकी जैसी सोच एवं विचार होते है, मै आप क़ी बात से बिल्कुल सहमत हूँ की शब्दों के अर्थ को प्रकट करने एवं उसे समझने के लिये कुशाग्र एवं सूक्ष्म बुद्धि क़ी आवश्यकता होती है.
    (८) जीव ईश्वर का अंश मात्र है. वह सम्पूर्ण ईश्वर नहीं है. आनुवांशिकता के सिद्धांत के अनुसार मात्र डी एन ए (डीरायीबो न्यूक्लिक एसिड) का परिक्षण होता है. न की समस्त कोशिकीय द्रव्य का. अगर ऐसा होता तों प्रत्येक जीव एक ही रूप रंग आकार प्रकार एवं बुद्धि विचार के होते. संभवतः इसीलिये भगवान ने न केवल मनुष्य के रूप में अवतार ग्रहण किया. बल्कि सूकर, मत्स्य एवं कूर्म आदि का शरीर धारण किया. मनुष्य ने अनेक यंत्र, औषधि एवं विविध निर्माण कार्य किया है. किन्तु उसके इन किसी भी निर्माण में मनुष्य का डी एन ए नहीं मिल सकता. तुलना समकक्षियो से क़ी जाती है. किन्तु जैसा की मनुष्य ने कम्पूटर का निर्माण किया है अतः वह कम्पूटर जैसी कुछ भूमिकाएं अदा कर सकता है. किन्तु कम्पूटर किसी भी हालत में सम्पूर्ण मनुष्य नहीं कहला सकता. प्राणी ईश्वर का औरस पुत्र नहीं बल्कि एक निर्माण मात्र है. शायद आप को विदित होगा की यही कारण था की माता अनसूया ने जब अपने पुत्र के रूप में भगवान जैसा ही पुत्र माँगा तों भगवान ने कहा की मै अपने जैसा जीव उत्पन्न नहीं कर सकता. अब मुझे ही आप के पुत्र रूप में जन्म लेना पडेगा.
    (११)- मेरे ऊपर के स्पष्टीकरण से आप के ग्यारहवें प्रश्न का कुछ समाधान संभवतः होता प्रतीत हो रहा है. किन्तु यहाँ मै पृथक रूप से इसे स्पष्ट करने का प्रयत्न कर रहा हूँ. क्योकि ईश्वर तों ईश्वर ही है. उसकी तुलना किसी से कैसे हो सकती है. किन्तु जैसा की आप ईश्वर के किसी भी प्रकार या अस्तित्व को तों सिरे से नहीं मानते है. फिर आप कैसे कह सकते है की ईश्वर क़ी तुलना दवा आदि से नहीं क़ी जा सकती? किसी क़ी भी तुलना किसी से तभी क़ी जा सकती है या नहीं क़ी जा सकती है जब तुल्य दोनों के बारे में अल्प या विशद ज्ञान हो. जब आप ईश्वर को मानते ही नहीं तों चाहे उसकी तुलना किसी से भी क़ी जाय. जैसे एक बड़े विद्वान क़ी तुलना किसी छोटे विद्वान से जब क़ी जाती है तों दोनों का अस्तित्व होता है. दोनों के भले बुरे का अस्तित्व होता है. जब उनमें से किसी एक का कोई अस्तित्व ही नहीं है तों तुलना कैसी?
    (१०)- गुड का ही शरबत बनता है. गुड क़ी ही चीनी बनती है. उस चीनी से अनेक मिठाईयां एवं विविध व्यंजन बनते है. अब आप चाहे गुड को बहूरुपिया कहें या किसी और अपने योग्य उचित शब्द से उसे विभूषित करें. यह आप के विचार एवं बौद्धिक क्षमता के ऊपर निर्भर है. क्योकि जैसा की आप ने कहा है की शाब्दिक अर्थ तों बौद्धिक कौशल एवं साहित्यिक ज्ञान से अनेक निकल सकते है. इसे मै दूसरी तरह से स्पष्ट करना चाहूँगा. एक पुरुष बाप भी होता है, पति भी होता है. बेटा भी होता है. आस्तिक भी हो सकता है. तथा नास्तिक भी हो सकता है. क्या वह व्यक्ति बहुरुपिया कहा जा सकता है?
    (२०)- केवल एक किसी उदाहरण से किसी समग्र सिद्धांत का प्रतिपादान नहीं होता है. उसके लिये अनेक अनुभव, परिणाम एवं परिप्रेक्ष्य के आंकलन क़ी आवश्यकता होती है. केवल सत्य को अस्वीकार करने मात्र से ही किसी को नास्तिक नहीं कहा जा सकता. किन्तु यदि आप के विचार से केवल नास्तिक क़ी यही परिभाषा है तों मै निरुत्तर हूँ. क्योकि “नहीं का ज़बाब एवं मौत का इलाज़ लाईलाज है”. यदि किसी खेत क़ी फसल का एक पौधा रोगी हो गया तों हम पूरे खेत को रोगी नहीं कह सकते है. या किसी शिक्षण संस्थान का एक विद्यार्थी परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया तों इसका यह तात्पर्य नहीं है की शिक्षण संस्थान में कोई परीक्षा उत्तीर्ण करता ही नहीं है. मेरी समझ से जब समस्त लक्षणों (सगुन एवं निर्गुण आदि) से कोई रहित होता है तों वह नास्तिक कहलाता है. एक रहस्य पूर्ण कथन आप का विपरीतार्थक हो रहा है. जब ईश्वर है ही नहीं तों वह क्यों कर के सीधा, सरल, सहज एवं सुन्दर है? जैसा की आप ने अपने प्रश्न संख्या १० में उल्लिखित किया है. मात्र यदि किसी को सिर दर्द हो जाय तों उसे समस्त रोगी क़ी संज्ञा नहीं दी जा सकती. नास्तिक होने के लिये मात्र एक कारक- अंध विश्वास ही आवश्यक नहीं है. यदि आप अविश्वास कहते तों ठीक होता. अंध विश्वास में तों कही न कही थोड़ा या ज्यादा विश्वास का पुट होता ही है.
    (२)- आवश्यकता आविष्कार क़ी जननी होती है. पहले कोई आवश्यकता महसूस क़ी जाती है. तब उसके अनुरूप कोई उपाय किये जाते है. पहले किसी भी चीज के विविध पहलू पर विचार किया जाता है. उसके बाद एक नाम क़ी संज्ञा ढूंढ ली जाती है. और अन्य कोई भी वस्तु जो उस जैसी होती है उसे उसी नाम से पुकारा जाता है. दो हाथ, दो पाँव, आँख, नाक, कान तथा कुछ आचार विचार सम तुल्य दिखाई देने पर हम कहते है की यह मनुष्य है. कुछ रूप, रंग, आकार, प्रकार, हाव-भाव दिखाई देने पर उसे मनुष्य क़ी संज्ञा प्राप्त हुई. यदि हमें यह ही नहीं मालूम है की सूई का आकार, प्रकार, प्रकृति एवं गुण क्या है, हम उसके भूल जाने पर कैसे ढूँढेगें? अतः यह आवश्यक है कि पहले सूई के बारे में जान कारी प्राप्त क़ी जाय. जिस व्यक्ति क़ी हुलिया नहीं मालूम उसे कैसे ढूंढा जाएगा?अतः यह आवश्यक है की पहले भगवान के बारे में जान कारी पाएं. फिर उसे ढूँढें.
    (९)- ईश्वर तों प्रत्येक प्राणी के अन्दर विराज मान है ही. किन्तु ईश्वर के रूप में नहीं. बल्कि जीव के रूप में. इसीलिए मनुष्य ईश्वर नहीं है. ईश्वर जीव का परमोत्कृष्ट रूप है.
    (१२)- ईश्वर को मंदिर, मस्जिद एवं गुरूद्वारे आदि में ही ढूँढना पडेगा. यदि वहां नहीं मिलता है तब फिर उसे शराब खाने या नगर वधु के निवास पर ढूंढा जाता है. जिस तरह से यदि हमें अपने बच्चे को जब उच्च शिक्षा देनी होती है. तों भी उसे ए फार एपिल, बी फार बाल एवं सी फार कैट. ही शुरू में पढ़ाते है. उसे शुरू से ही केमिस्ट्री, फिजिक्स या अल्ज़बरा के गुणक या सूत्र नहीं पढाये जाते. यह कभी संभव नहीं है कि बिना किसी प्रारम्भिक ज्ञान के एकाएक उच्च कक्षा में नाम लिखा दिया जाय. प्रारम्भिक ज्ञान का आधार अग्रिम शिक्षा का मार्ग प्रशस्त करता है. मंदिर, मस्जिद एवं गुरुद्वारा ईश प्राप्ति के प्रथम एवं ईश्वर के साथ एकाकार होना ईश्वर प्राप्ति का अंतिम सोपान है. जहां तक मंदिर मस्जिद आदि में क़ैद करने का सवाल है, तों क्या माँ अपने अति प्रिय अबोध बालक को अनेक विधि से सुरक्षा एवं संरक्षा देने के लिये अपने सीने से लगाए नहीं रखती है?. तों क्या वह अति प्रिय के लिये क़ैद कहलायेगा? बात फिर वही टिक जाती है कि जिसकी जैसी सोच.
    (२)- जो राजा अपनी बीबी, बच्चे तथा अपने माता पिता तक ही सीमित हो जाय वह राजा हो ही नहीं सकता. राजा प्रजा पर राज्य करता है. न कि अपनी बीबी, बच्चे, माता या पिता पर. उसके लिये प्रजा सर्वोपरि होती है. प्रजा क़ी इच्छा को ध्यान में रखते हुए राजा अपनी गर्भवती पत्नी तों क्या अपने खुद के वंश का ही उन्मूलन कर देगा. राजा हरिश्चंद्र क़ी कथा सर्व विदित है. रही बात अशिक्षित व्यक्ति के मिथ्या भाषण का. तों जो व्यक्ति अपनी प्यारी प्रजा से इतना प्रेम करता है. इतनी गहराई से लगाव रखता है. उस प्रजा को भी यह उत्तर दायित्व भली भांति ज्ञात होगा कि गर्भवती राजरानी जो माता के समान होती है उसकी देख रेख एवं सेवा सुश्रुषा कैसे एवं कहाँ करनी चाहिए? क्योकि प्रजा में कुछ लोग अशिक्षित हो सकते है. सारी प्रजा अशिक्षित नहीं हो सकती है. और एक अशिक्षित व्यक्ति को सीख देने क़ी विधा भी अलग ही होती है. क्योकि वह अशिक्षित है, इसलिए उसे दर्शन, वेदान्त एवं उपनिषद् के कठिन एवं अति गूढ़ संस्कृत के श्लोको के माध्यम से नहीं समझाया सकता. जो अबोध बालक होता है उसकी गलती पर उसे उसी कि भाषा में दंड दिया जाता है. अंधे के लिये बरेली लिपि ही उपयुक्त शिक्षण माध्यम होता है. संभवतः आप को ज्ञात होगा कि उस अशिक्षित के मिथ्या भाषण के कारण प्रजा ने उसे देश निकाला भी दे दिया. किन्तु श्री राम ने उसे अपने साथ कर लिया. जब कि राम ने अपने स्वयं के भ्राता भरत को साथ चलने से मना कर दिये.
    (७)- नरसिंह अवतार क़ी कथा एक सुन्दर मनोरंजक एवं सुन्दर सन्देश देने वाला मिथक है. मेरे अनुसार मिथक शब्द का अर्थ मिथ्या करने वाला होता है. जिसका कोई अस्तित्व नहीं होवे. अर्थात झूठा होवे. और आप ने भी स्वीकार किया (देखें अपना प्रश्न संख्या १०) है कि ईश्वर सहज, सरल एवं सुन्दर होता है. तों यह द्विविधा क्यों? आप तों अपने ही शब्दों में यह कह रहे है कि नरसिंह अवतार ईश्वर है. फिर मिथक कैसे? दूसरी बात यह कि तुलसी का राम चरित मानस एक साहित्य है. उसका ईश्वर से कुछ नहीं लेना देना. मै आप को यह बता दूँ कि जहाँ पर हित क़ी भावना हो वह साहित्य है.”सहितस्य भावम असौ साहित्यम” और ज्ञान राशि के संचित कोष को साहित्य कहते है. ईश्वर ज्ञान का प्रति रूप होता है. या दूसरे शब्दों में ज्ञान ही ईश्वर है. इस प्रकार ज्ञान के रूप में ईश्वर अमूर्त या निराकार है. साकार किस प्रकार है, इसका स्पष्टीकरण आगे के वर्णन से मिलेगा.
    (१)- हम किसी भी चीज को सिर्फ मानते ही है. आत्म सात कुछ भी नहीं होता है. यदि आत्म सात करने को होता सब कुछ हमारे साथ ही समाप्त हो जाता. या सब कुछ समाप्त हो जाता और हम रह जाते. यद्यपि जो उदाहरण मै देने जा रहा हूँ, वह बहुत ही भोंडा है. या उसे उदाहरण का अपरिष्कृत या अशोभनीय रूप ही कहा जा सकता है. किन्तु प्रसंग वशात कहना पड़ रहा है. जैसे कोई भी व्यक्ति यह कैसे जानता है कि उसका जन्म दाता पिता कौन है? इसके बारे में तों या तों उसकी मा ही बता सकती है कि अमुक व्यक्ति उसका पिता है. अर्थात किसी क़ी कही सुनी बात पर विश्वास कर के यह मान लिया जाता है कि अमुक व्यक्ति ही उसका पिता है. इसके सिवाय और कौन सा प्रमाण पत्र होता है कि अमुक व्यक्ति ही उसका पिता है? एक औरत ने कह दिया और आप मान जाते है कि अमुक व्यक्ति ही आप का पिता है. किन्तु यदि कोई कहता है कि यह भगवान है तों आप उसे नहीं मानते. इसे अब आप कहेगें कि डी एन ए परिक्षण से यह पता चल जाएगा. किन्तु मै आप क़ी जान कारी के लिये बता दूँ कि डी एन ए परिक्षण से सिर्फ वंशानुक्रम का ही पता लगता है कि अमुक व्यक्ति इसी खानदान का है. यह बिल्कुल ही पता नहीं चलता है कि कोई व्यक्ति किसी विशेष व्यक्ति के ही रज-वीर्य से पैदा हुआ है. आनुवांशिकी का तात्पर्य वंशानुक्रम होता है. पिता या माता या पत्नी अनुक्रम नहीं होता है.
    (३)- ईश्वर है, इसे मात्र तर्क के द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है. जैसे मात्र पांच ही लक्षणों के आधार पर यह सिद्ध किया जाता है कि कोई वस्तु सजीव है या निर्जीव. वे पांच लक्षण इस प्रकार है- जनन, उत्सर्जन, भोजन, प्रचलन एवं श्वशन. इन पांच लक्षणों के आधार पर ही यह माना जाता है कि कोई वस्तु सजीव है या निर्जीव. अब अगर कोई इन पांचो लक्षणों के मौजूद रहने पर भी हठ पूर्वक कहे कि सजीव नहीं है तों इसके लिये कुछ नहीं कहा जा सकता है. ठीक इसी प्रकार कुछ लक्षणों के आधार पर ही यह सिद्ध किया जाता है कि ईश्वर कौन है? या कैसा होता है? इसके दश लक्षण होते है. जिनका विशद वर्णन मै अपने पूर्व लेख “भंगेड़ी भगवान एवं भोला भगत” में कर चुका हूँ. यदि इस पर भी कोई व्यक्ति हठ पूर्वक कहे कि ईश्वर नहीं होता है, तों उसका कुछ नहीं किया जा सकता है. सबसे बड़ी बात यह है कि जब पहले बार हम किसी व्यक्ति को देखते है तों यही कहते है कि अमुक आदमी है. उसके बाद जब उसके बारे में गहराई से छान बीन करते है तों कहते है कि यह आदमी चोर है या साधु है. प्रथम दृष्टया तों वह आदमी है ही. ठीक वैसे ही पहले कुछ लक्षण भगवान से मिलते है तों उस जीव में ईश्वर का निवास होगा इसे मानते है. जैसे सत्कर्म, विश्व बधुत्व आदि. इसी लिये जीव कहा जाता है. उसे ईश्वर नहीं कहा जाता है. मनुष्यता वाली आँख से जब तक व्यक्ति ईश्वर को देखेगा उसे सब मनुष्य ही नज़र आयेगें. उसे ईश्वर जैसी आँख से देखें , वह आप के सम्मुख खडा दिखाई देगा.
    (४)-राजा प्रजा का ही एक व्यक्ति, प्रजा के लिये एवं प्रजा के कारण प्रजा के द्वारा होता है. आप ने सिर्फ राजा के द्वारा गर्भवती पत्नी का एक अशिक्षित प्रजा के कथन पर परित्याग ही देखा किन्तु शायद आप भूल गये कि एक राजा क़ी ही बेटी -कैकेयी के कहने से न सिर्फ पत्नी बल्कि माता, पिता, भाई, बहन, सुख, वैभव, भोग, विलास एवं पद आदि सब कुछ छोड़ दिया. किन्तु इसमें आप का दोष नहीं. कारण यह है कि आज दोष देखने वाले बहुत किन्तु गुण देखने वाले बहुत कम है. जैसे किशन तीन सौ साथ रानियों के साथ भोग विलास करते थे. बहुत ऐयास थे. यह चीज सबको झटके से नज़र आ जाती है. किन्तु उन्होंने अपनी प्रजा क़ी रक्षा के लिये एक ही ऊंगली पर पूरे गोवर्धन पर्वत को उठा लिया, इसे किसी को देखने या बखान करने क़ी फुर्सत नहीं है. क्योकि मूर्ख छिद्रान्वेषण करते है, स्थूणाभिखनन नहीं. श्री राम उस अशिक्षित क़ी मूर्खता के लिये अपने शाशकीय शक्ति का दुरुपयोग करते हुए मृत्यु दंड तक दे सकते थे. किन्तु उन्हें राज धर्म का पुरा ज्ञान था. यदि वह उस अशिक्षित को मरवा डालते तों तत्काल प्रजा में यह गलत शिक्षा या पाठ फ़ैल जाता कि “राजा अपने व्यक्तिगत कारण से – अपने परिवार के एक सदस्य के लिये अपनी बीबी के कारण एक अशिक्षित को मरवा डाले. इसलिए राजा गलत करे या सही, उसके विरुद्ध कुछ भी मत बोलो.” और प्रजा में एक निरंकुश तंत्र का रूप प्रतिबिंबित होने लगता. और थोड़ा आप ध्यान से बाल्मिकीय रामायण पढ़ें. या तुलसी कृत राम चरित मानस पढ़ें. राजा राम अपनी पत्नी को गृह निकाला दिये थे, राज निकाला नहीं. यदि ऐसा था तों अपनी पत्नी को बाल्मीकि ऋषि के आश्रम नहीं बल्कि बाह्लिक, भारदोह, तुतुत्सू, त्रित्सू, पह्लव, गणवाक, अभाद्रक आदि जंगल जो अयोध्या से सटे हिमालय पर्वत क़ी तलहटी में थे वहां पर उन्हें छोड़ने का आदेश होता. क्योकि जब उन्हें दोषी, अपराधिनी, कुलक्षणी, प्रदूषिता तथा कुशीला आदि मान ही लिया गया तों फिर आदर सम्मान के साथ वह भी ऋषि आश्रम छोड़ने का क्या तुक?
    क्योकि राजा राम को राज धर्म का पुरा ज्ञान था. नीतिगत कार्यवाही के प्रति सचेत थे. धार्मिक मर्यादा के प्रति जागरूक थे. दैवीय प्रतिबंधो एवं मानवीय मूल्यों का समायोजन उनकी शाशकीय आवश्यकता थी. विविध मानवीय पहलुओ का ईश्वरीय परिप्रेक्ष्य में कोई भी तादात्म्य नहीं है, इस सिद्धांत का प्रतिपादन भी करना था. राजा राम हम जैसे टूट पुन्जिये ब्लॉगर नहीं थे. उन्हें समाज के तथा प्रजा के चार वर्णों को उनके अनुरूप दंड एवं पुरस्कार देना था. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र को साम, दाम, दंड एवं भेद क़ी शाशकीय नीति के तहत पुरस्कृत एवं दण्डित करना था. उस अशिक्षित को उसकी मूर्खता का दंड प्रजा ने ही दे दिया. किन्तु फिर भी प्रजा वत्सल राम ने उसे अंगीकृत कर ही लिया. और कहा ‘”जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी. सो नृप अवसि नरक अधिकारी.”” दंड एवं पुरस्कार शाशकीय संतुलन को समन्वित एवं व्यवस्थित बनाने वाले शकट के दो पहिये है. अस्तु राज धर्म क़ी व्याख्या मनुस्मृति के पांचवें से लेकर उन्नीसवें अध्याय तक विस्तृत रूप से दी गयी है. इस मनुस्मृति को राज्य क़ी धार्मिक नीति का निर्देशक तत्व (Directive Principle of religious Policies of State’s legislative and executive Parts) कहते है. और इन प्रतिबंधो का पालन करने से शासन में लूट खसोट एवं अतिचार या अत्याचार के द्वारा प्राजा का शोषण नहीं हो सकता था, इसीलिए इसे मानने से इनकार करते हुए ब्राह्मणों को या सवर्णों को मनुवादी करार देते हुए एक नीच जाति, भ्रष्ट आचरण एवं शील भंगा मुख्य मंत्री ने उसे मानने से ही इंकार कर दिया.
    राजा राम ने अपनी पत्नी को गृह निकाला देकर राज धर्म का भी पालन किया. चाहे कलंक राजा पर लगे या प्रजा पर, शाशकीय प्रतिबन्ध सबके लिये लागू है. दंड का विधान सबके लिये एवं समान ही है. धर्म का पालन इस प्रकार हुआ कि राजा ने अपनी पत्नी को बनवास का हुक्म नहीं दिया. बल्कि महर्षि बाल्मीकि का शिक्षण आश्रम प्रदान किया गया. अन्यथा राजा राम के शब्दों में ही बन का चित्रण देखें-
    “कानन कठिन भयंकर भारी. घोर घाम हिम वारि बयारी.
    कुश कंटक कंकर मग नाना. चलब पयादेहि बिनु पद त्राना.
    कंदर खोह नदी नद नारे. अगम अगाध न जाहि निहारे.
    केहरी भालू नाद सब करही. कट कटाहि दिग्गज चिक्करही.”
    तों जब अपनी पत्नी को उस अशिक्षित के मिथ्या भाषण के आधार पर दंड ही देना था तों अपने ऊपर वर्णित अरण्य में स्थापित करना था न कि राज परिवार के राज कुमारो को शिक्षण एवं प्रशिक्षण देने वाले सुविधा संपन्न शिक्षण संस्थान या आश्रम पर भेजना था. सामाजिक धर्म का पालन इस प्रकार हुआ कि “पर तिय नारि लिलार गुसायीं. ताजिय चौथ चन्दा क़ी नाईं” अर्थात समाज में पत्नी का सबसे बड़ा अपराध उसका प्रदूषित हो जाना ही है. अब उस अपराध को श्रेणियों में बाँट दिया गया है. एक तों स्वेच्छा से अपने शील को भंग करना तथा दूसरे यातना के कारण. तथा उसके अनुसार उसका दंड विधान भी बनाया गया था. किन्तु अपराध तों अपराध ही है, चाहे किसी के द्वारा किसी भी स्थान पर किसी भी अवस्था में कितनी भी मात्रा या परिमाण में किया जाय. अतः सामाजिक धर्म के अनुसार पत्नी का गृह त्याग आवश्यक ही था. मानवीय धर्म यह था कि गर्भवती पत्नी को उस अवस्था में एक कुशल चिकित्सक, उपरिचर, अनुचर एवं परिचर क़ी आवश्यकता थी. महर्षि बाल्मीकि एक अप्रतिम चिकित्सक, ऋषिमाता दिव्यांगी एक अद्वितीय शिक्षिका, उपलोमा एक सुशिक्षित उपचारिका तथा दौहिक एक कुशल एवं स्फूर्त परिचर उस शिक्षण संस्थान में उपलब्ध थे. जो उस आश्रम में शिक्षा संस्थान में शिक्षा ग्रहण कर रहे राजकुमारों एवं रिशिकुमारो क़ी देखभाल करते थे. दैवीय धर्म के द्वारा इस सिद्धांत को मूर्त रूप देना ही था कि यदि कोई कार्य नहीं किया गया तों जो प्रारब्ध में निर्धारित कर दिया गया है उसे कोई ताल नहीं सकता है. देव अतल है. और ईश्वरीय धर्म के द्वारा यह शुरुआत में ही स्पष्ट कर दिया गया है कि ईश्वर या ईश्वरीय अंश सदा ही पवित्र, उच्च, निश्छल एवं महान है. तभी तों अपनी पत्नी को किसी और के हवाले न कर के भगवान अग्नि क़ी सुपुर्द किया गया. ज़रा गौर से देखें-
    “सुनहु प्रिया व्रत रुचिर सुशीला. अब हम करब कछुक नर लीला.
    तब लगी करहु अग्नि महूँ वासा. जब लगी करहु निशाचर नासा.
    अर्थात हे रुचिर व्रत करने वाली सुशीला प्रिये ! सुनो. अब मै कुछ एक नर लीला करने जा रहा हूँ. इसलिए तब तक तुम अग्नि में निवास करो (एवं सुरक्षित रहो) जब तक मै निशाचरों का नाश करता हूँ.
    अब मै अंत में आप से कुछ एक जानकारी चाहूँगा. जिससे मेरी शंका का समाधान हो सके.
    (१)-यदि ईश्वर है ही नहीं तों फिर उसमें विविध गुण कैसे एवं क्यों? प्रश्न सख्या ६ में आप ने कहा है कि इच्छा मानवीय गुण है ईश्वरीय नहीं.
    (२)- प्रश्न संख्या १२ में आप ने कहा है कि ईश्वर इतना छोटा नहीं है. तों छोटा नहीं है. बडा ही मान लीजिये. मझोला ही मान लीजिये. किन्तु जब आप ईश्वर को मानते ही नहीं तों फिर ईश्वर छोटा है या बड़ा, यह आप कैसे, क्यों और कब जान गये?
    (३)- बिना आग के धुआं नहीं निकलता है. समुद्र या नदी में बडवाग्नि के कारण भाप निकलता रहता है. पेट में जठराग्नि के कारण मुँह से भाप निकलता है. तथा प्रत्यक्ष आग जो इंधन जलाने पर निकलता है उसे दावाग्नि के नाम से जाना जाता है.. इस तरह बिना आग के धूम क़ी कल्पना असंभव है. फिर यदि भगवान नाम क़ी आग है ही नहीं तों यह अन्ध्विश्वास, नास्तिकता, पूजा-पाठ आदि का धुआं कहाँ से निकलने लगा?
    (4)- आप अपने प्रश्न संख्या २२ को देखें. “यदि दर्शन प्राप्त कर के मनुष्य जीवित नहीं रहता तों जगत में ईश्वर क़ी क्या आवश्यकता?” अब मै यह जानना चाहूँगा कि दर्शन प्राप्त कर के कोई जीवित नहीं बचा तों न दर्शन प्राप्त कर के ही कौन अमर है? यदि कुतर्क ही करना है तों सवाल यह भी उठता है कि खाना खाने वाले भी मर जाते है तथा भूखे रहने वाले भी मरते ही है. तों भूखे रह कर मरना अच्छा या आकंठ भोजन ठूंस कर मरना अच्छा? नास्तिक भी मरते है. आस्तिक भी मरते है, तों फिर नास्तिक या आस्तिक क्यों होना? असत्यवादी भी मरते है. सत्यवादी भी मरते है. जो जन्म लिये सब मरते है. तों फिर जन्म क्यों लेना? फिर दर्शन मिलने या न मिलने से जन्म मरण का क्या सम्बन्ध? व्यावहारिक सिद्धांत क़ी प्रत्यक्ष अवहेलना आधारभूत तार्किक अवधारणा को सम्बलहीन कर देता है. विषय वस्तु क़ी वास्तविकता के ज्ञान हेतु मूल अध्ययन करना चाहिए न कि मूल उत्खनन. पद्धति क़ी निगमनात्मक विधा का अनुपालन नीरस तथा आगमनात्मक पद्धति का अनुकरण सरस होता है. यद्यपि उद्देश्य दोनों का एक ही है.
    यदि औषधि जो जीवन-मृत्यु, आधि-व्याधि, विघ्न-बाधा के निवारण एवं संतुलन के लिये आदि-अनादि काल से वर्त्तमान समय तक प्रयुक्त होती चली आ रही है. फिर भी उसकी तुलना ईश्वर से करना तर्क संगत एवं न्याय संगत नहीं है. तों फिर ईश दर्शन से जीवन एवं मृत्यु कैसे सम्बंधित हो सकता है? क्योकि मेरा अपना जहाँ तक विचार है, ईश दर्शन प्रयत्न के फलीभूत होने का एक संकेत मात्र है. प्रयत्न के शत प्रतिशत सफल होने का परिणाम नहीं. फिर तर्क एवं कुतर्क क़ी संज्ञा का क्या अवधान?
    किसी कक्षा में पढ़ने वाला प्रत्येक विद्यार्थी परीक्षा उत्तीर्ण नहीं होता है. तों क्या शिक्षा नाम क़ी कोई चीज होती ही नहीं है? जैसा कि आप ने अपने प्रश्न संख्या १३ में व्याख्या क़ी है, आप ने करोड़ो वर्ष तक ढूंढा लेकिन ईश्वर को नहीं प्राप्त कर सके. और आप ने घोषणा कर दी कि ईश्वर नाम क़ी कोई चीज है ही नहीं. जिस तरह आप कह रहे है कि आप ने करोडो वर्ष तक ढूंढा और ईश प्राप्ति नहीं हो सकी, उसी तरह सूर, तुलसी आदि कहते है कि उन्हें भगवान के दर्शन प्राप्त हुए. आप को भगवान नहीं मिले तों आप ने कारण ढूंढ लिया कि ईश्वर नाम क़ी कोई चीज होती ही नहीं है.
    जिस चीज को ठोस तर्कों के आधार पर आज का अति उन्नत शील आधुनिक विज्ञान सिद्ध कर चुका है कि –
    “Some thing is there governing the whole Universe as well as the anatomical frame with the help of magnetic power of different stars, nutritious philatelic minerals, feeding attitude of environment and auto generated necessitous gesticulation”
    अर्थात कुछ एक ऐसी चीज है जो विविध नक्षत्रो, ग्रहों के प्रतिकर्षण शक्ति, खाद्य तत्वों के परिपोषण प्रदाय, पर्यावरण के अभिवर्धक प्रभाव एवं स्वोपार्जित आवश्यकताओं के प्राकट्य के सहारे समस्त ब्रह्माण्ड एवं रक्त माँस के ढाँचे को नियंत्रित, संतुलित एवं समायोजित करता है. ठीक है कि आधुनिक विज्ञान ने उसे हिंदी में ईश्वर, भगवान या खुदा अल्ला का नाम नहीं दिया. तों क्या अंग्रेजी में कह देने से ईश्वर ईश्वर नहीं Natural Power ही कहलायेगा?
    ज़रा सोचें, कोई न कोई तों कारण होगा कि यह सृष्टि अस्तित्व में आई होगी. चाहे जिस किसी भी तरह जिस किसी क्रिया या प्रति क्रिया या आवश्यकता के कारण सृष्टि का आविर्भाव हुआ हो, कोई न कोई तों कारण होगा ही. यदि उस कारण को ईश्वर का नाम दे दिया गया तों आप उसे प्रकृति, संयोग या जो चाहे नाम दे दीजिये. किन्तु आप ने तों उस कारण को देखा ही नहीं. फिर तों सृष्टि क़ी कल्पना या उसका अस्तित्व ही आप नकार रहे है. जो आज सब कुछ सामने है.
    और यही पर आप के प्रश्न संख्या १८ का उत्तर भी मै देना चाह रहा हूँ कि बौद्धिक कुशलता एवं साहित्यिक ज्ञान से एक शब्द के कई अर्थ निकाले जा सकते है, किन्तु भाव कभी भी अनेक नहीं हो सकते है. चाहे उसे आप प्रकृति, संयोग या भगवान कहें. और इसी लिये वेद में अग्नि, वृक्ष, पर्वत तथा जल आदि क़ी भूरि भूरि प्रशंसा क़ी गयी है. कारण यह है कि प्रत्येक कण में ईश्वर का निवास है. ये प्रत्येक कण ही है जिनके सहारे सृष्टि का संतुलन बना हुआ है. पृथ्वी अन्न देती है, वह देवी है, जल प्यास बुझाता है, वह देवता है. सूर्य ऊर्जा देता है, वह भगवान है. अग्नि ताप देता है, वह भगवान है. यहि कारण है कि भगवान को विविध नाम से पुकारा जाता है- नरश्रेष्ठ योगिराज, मर्यादा पुरुषोत्तम, दया निधान, जगत के पालन हार आदि.
    आज तक आप व्यर्थ ही इधर उधर भटकते रहे. नित्य प्रति आप जिस के आवरण में अपने प्रत्येक पल को बिताते चले जा रहे है उसे ही आप नहीं पहचान सके. भोजन, पानी, वायु एवं अन्य संवर्धक तथा परिपोषक प्राकृतिक संसाधनों को यदि वेद ने यह कह कर भगवान बना दिया कि “ईशावास्यमिदं सर्वं जगत यात्किम च जगत्यां जगत” तों उसमी क्या भ्रम, असत्य या निरपेक्ष है?
    इनमें से कौन सी ऐसी वस्तु या चीज नहीं है जो जीने के लिये आवश्यक नहीं है? जैसा कि आप ने अपने प्रश्न संख्या ३ में पूछा है? जीने, मरने, चलने, फिरने, खाने पीने आदि हमारी प्रत्येक क्रिया के लिये ईश्वर क़ी आवश्यकता होती है और सदा रहेगी. आप क़ी कोई भी हरक़त बिना ईश्वर के नहीं हो सकती.
    और अंत में मै यही कहना चाहूँगा कि अब तक जो आप ने व्यर्थ में समय बिताया और ईश्वर के अस्तित्व को नकारते रहे तों कोई बात नहीं . अभी भी बहुत ज्यादा नहीं बिगड़ा है. क्योकि भगवान ने कहा है कि-
    “सन्मुख होई जीव मोहि जबही. जन्म कोटि अघ नासौ तबही.”
    ====================================================================
    एक मर्यादित जीवन जीने के लिये नीरस प्रशिक्षण प्राप्त सैनिक क़ी भाषा कुछ कठोर होती है. हो सकता है कि भावाभिव्यक्ति के अनेक अंश उन्माद पूर्ण एवं प्रमादकारी प्रलाप होने के कारण आप को कष्ट कारी लगें. किन्तु मेरी अपेक्षा यही है कि आप शाब्दिक अर्थ को समझें या न समझें, भाव को अवश्य ही समझेगें.
    पण्डित आर. के. राय
    प्रयाग

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply