शायद बहुत पढ़ लिख जाना भी अच्छा नहीं है. किन्तु यह “शायद” ही है. क्योकि यह मेरा अपना ख़याल है. कारण यह है कि पढ़ लिख जाने के बाद भले बुरे का ज्ञान होने लगता है. फिर जो बुरा होता है, वह तों पता नहीं पीछा छोड़ता है या नहीं. किन्तु अच्छाई को पाने का प्रयत्न प्रारम्भ हो जाता है. अब चूंकि बुराई ने तों पीछा छोड़ा नहीं है. अतः हम उस अच्छाई को पाने का ह़र जायज़ नाजायज़ तरीका अख्तियार करते है. अब तक तों यही देखने में आया है. हम सोचते है कि कही बुराई से पीछा छुडाने में ही अच्छाई को पाने का समय ही न निकल जाय. या वह अच्छाई ही कही हाथ से न निकल जाय. यह कोई वैचित्र्य नहीं, बल्कि प्राणी मात्र के नैसर्गिक स्वभाव का प्रधान स्तम्भ है. मै एक उद्धरण यहाँ देना चाहता हूँ. वैसे तों प्रायः सब लोग इस उदाहरण से परिचित है, फिर भी प्रसंग वशात मै पुनः उल्लिखित कर दे रहा हूँ. चार मित्र एक बार विद्या अर्जन के लिये किसी बहुत बड़े प्रसिद्ध विद्वान शिक्षक के यहाँ गये. खूब मन लगाकर उन्होंने पढाई क़ी. उनमें एक मित्र पढ़ने में बहुत ही कमजोर था. उसने पढाई नहीं क़ी. बस वह केवल अपने मित्रो के साथ रह कर दिन काटता रहा. दिन भर जंगल में घूमना और फिर शाम को अपने मित्रो के वापस आ जाना. वह सिर्फ अपने मित्रो एवं गुरु जी क़ी सेवा में लगा रहता था. किन्तु फिर भी जब उसके मित्रो ने अपनी पढाई पूरी कर ली तों वह भी उनके साथ अपने गाँव को वापस चल दिया. रास्ते में उनके दिमाग में यह बात आई कि क्यों न अपने पढाई और ज्ञान क़ी परीक्षा ले ली जाय? उन लोगो ने रास्ते में एक मरे सिंह का अस्थि पंजर देखा. एक मित्र ने कहा कि मै अपने मन्त्र बल से इस मरे सिंह क़ी हड्डियां जोड़ सकता हूँ. तों दूसरे ने कहा कि मै इसकी हड्डियों में रक्त एवं माँस का संचार कर सकता हूँ. तीसरे ने में जोश में भर कर कहा कि यदि तुम दोनों इतना कर दोगे तों मै इसमें प्राण अभी ड़ाल दूंगा. अभी तीनो को उतावला देख चौथा बोला कि भाई थोड़ा ठहरो मुझे किसी बड़े पेड़ पर चढ़ जाने दो. लेकिन उनमें तों जोश भरा था. उन लोगो ने उसकी बातो पर ध्यान नहीं दिया. पहले ने मन्त्र के बल पर उसकी हड्डियां जोड़ दी. दूसरे ने झटपट उसमें माँस एवं खून का संचार कर दिया. इस बीच चौथा एक पेड़ पर चढ़ चुका था. हडबड़ी में तीसरे ने आव देखा न ताव, उस सिंह के शरीर में प्राण ड़ाल दिया. और जीवित होते ही सिंह ने दहाड़ लगाई और उन तीनो को मार डाला. चौथा पेड़ पर चद्गे होने के कारण बच गया. मैंने यह इस लिये लिखा कि मै भी व्यावहारिक ज्ञान के अर्जन क़ी तरफ आकर्षित नहीं हुआ. केवल किताबी ज्ञान में ही उलझा रहा. तथा अपनी लम्बी फौजी जिन्दगी में सिर्फ एक गूलर के कीड़े कि भांति उसी के अन्दर ही घूमता रहा. पढाई भी मैंने ऐसी कोई नहीं क़ी जो और कोई नहीं कर सकता है या नहीं किया है. किन्तु शायद मैंने ज्यादा पढाई के चक्कर में सतही हकीकत को भूल गया. जी हाँ, अब आप ही देखिये, मैंने किसी के घर देखा कि हाथ से खाना खाना देहाती आचरण कहलाता है. तथा इसे आज के सभ्य समाज में गंवारपन माना जाता है. फिर थोड़ा थोड़ा प्रयत्न कर के चम्मच से खाने क़ी आदत डाला. मुझे आदत थी कि साफ़ सुथरी ज़मीन पर चौका लगा कर बैठ कर खाता था. यह भी पिछड़ापन का ही सन्देश देता हुआ लगा. फिर कुर्सी एवं मेज पर खाने क़ी आदत डाला. और इस आदत को यहाँ तक घसीट कर ले गया कि जूठे मेज को धोना ज़रूरी नहीं है. केवल उसे एक कपडे से पोंछ देना ही पर्याप्त है. और फिर उसी पर भोजन कर लेना है. जी हाँ, यह मेरी उच्च शिक्षा के कारण ही सफल हुआ. और भी बहुत कुछ पढ़े लिखो के मध्य रह कर देख कर सीखा जैसे कि यदि मन आ जाय तों जवान बहन हो या बेटी, मा हो या बुआ उससे प्रेम कर शारीरिक सम्बन्ध बनाया जा सकता है. बस बालिग़ होना चाहिए. ऊंची पढाई के बल पर और भी बहुत कुछ सीखा. किन्तु शेष सारी बातें मै इस लिये यहाँ नहीं लिख सकता कि यद्यपि आप और हम सभी उससे परिचित है, तथापि उसे लिखना मेरी असभ्यता ही कहलायेगी. शायद इशारा आप समझ गये होगें. तों अब आप खुद ही सोचिये, यदि हम पढ़े लिखे नहीं होते तों कैसे जानते कि जन प्रतिनिधियों को हम चुन कर अपनी सेवा के लिये भेजते है. हम तों उन्हें सबसे बड़ा अधिकारी, सर्व समर्थ एवं एक तरह से भगवान ही मानते है. उनकी ज़बान ही कानून है. वह जो बोल दिये वही हमारे लिये देववाणी है. अब हमें पता चला है कि इन मंत्रियो एवं नेताओं को हम अपनी सेवा के लिये चुन कर भेजते है. वे हमारे नौकर है, हम जैसा चाहेगें उन्हें वैसा ही करना चाहिए. क्योकि हमने ऐसा करने के लिये उन्हें चुना और भेजा है. यह बात हमें कहाँ से ज्ञात हुई? जब हमने राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र तथा नागरिक शास्त्र आदि का सूक्ष्म अध्ययन किया तब हमें इसका ज्ञान हुआ. और जब से हमें इस बात का अहसास हुआ है हम तक़लीफ़ में पड़ गये है. हम रातदिन उनकी बुराई में लगे रहते है. उन्हें चोर, लूटेरे, गुंडा. हत्यारा और पता नहीं क्या क्या कहते है. अभी हमें बहुत दूर क़ी बातें समझ में आने लगी है. अपराध क्या है? हमारा अधिकार क्या है? अभी देखिये, नित्य प्रति किसी न किसी विभाग में हड़ताल जारी है. कभी किसी विभाग के कर्मचारी हड़ताल पर चले जाते है. तों कभी कोई संगठन कामकाज़ बन्द कर देता है. अब हम पढ़े लिखे है. तथा अपने अधिकार के प्रति जागरूक हो चुके है. हम अपने अधिकार को पाने के लिये तोड़ फोड़ करेगें. लूट पाट करेगें. उत्पादन रोक देगें. और अपनी ह़र जायज़ एवं नाजायज़ मांग मनवा कर रहेगें. क्योकि हम पढ़े लिखे है. तथा यह जान चुके है कि यदि मंत्री या सरकार को वोट चाहिए तों उसे हमारी ह़र वाजिब गैर वाजिब मांग माननी ही पड़ेगी. देखिये, पढ़े लिखे का कितना फ़ायदा है? क्या यह ऊंची पढाई का परिणाम नहीं है कि कभी बहुत ही तकनीकी तरह से घरो में सेंध लगाकर छोटे छोटे सामानों क़ी चोरी होती थी. किन्तु अब आज पूरी रेल गाडी ही चुरा ली जाती है. हवाई जहाज का ही अपहरण हो जाता है. अब देखिये यह पढाई का ही परिणाम है कि आज तक देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फांसी क़ी सज़ा पाये देश द्रोही जघन्य अपराधी को फांसी नहीं हो पायी है. तथा सरेआम एक प्रदेश के मुख्य मंत्री क़ी ह्त्या करने वाले कुख्यात खूंखार अपराधी को फांसी से बचाने के लिये लामबन्द होना पड़ता है. कारण यह है कि हम जानते है कि यह एक बहुत अच्छा लच्छेदार एवं कहने में सुन्दर अति उत्कृष्ट दार्शनिक वाक्य है कि
” यदि हम किसी मरे को ज़िंदा नहीं कर सकते तों हमें यह भी अधिकार नहीं है कि किसी ज़िंदा व्यक्ति को मृत्यु दें. ” कौन इस बात का विरोध करेगा? और यदि कोई करता है तों वह अनपढ़, गंवार, देहाती कहलायेगा. यह अलग बात है कि हम पढ़े लिखे लोग मानवाधिकार नामक संगठन का निर्माण कर लिये है जो जनता के ऊपर जब अत्याचार हो जाता है तों चिल्लाना शुरू करता है. अब आप ही देखिये हमने जो मानवाधिकार नाम क़ी रस्सी बनायी उससे हम ही बंध गये. किन्तु अपराधी, आतंकवादी एवं अत्याचारियों के लिये मानवाधिकार का कोई नियम लागू नहीं है. इसलिये वे इस बंधन से मुक्त है. तथा अपना काम बड़ी सरलता, समय से एवं पूर्ण रूप में करते है. जब कि इसके विपरीत हम मानवाधिकार, विशेषाधिकार, संवैधानिक अधिकार, सामाजिक अधिकार आदि क़ी खिचडी आधी अधूरी रस्सी से ऐसा बाँधे है कि एक अपराधी को उसके किये अपराध क़ी सजा तब अदालत द्वारा मुक़र्रर क़ी जाती है जब वह इस दुनिया से मुक़र्रर हो गया होता है. लेकिन आखिर उस अपराधी के साथ कोई कानूनी अन्याय न हो जाय इस बात को ध्यान में रखते हुए उससे सम्बंधित ह़र पहलू पर गौर करना है. उसके बाद ही सज़ा मुक़र्रर क़ी जा सकती है. तभी तों उच्च शिक्षा का औचित्य एवं समुचित उपयोग है. यह अलग बात है कि जिस अपराध के बदले में अपराधी को सजा मिलनी है उस अपराध के अनेक अनुयायी तब तक पैदा हो चुके होते है. क्यों कि उन्हें ज्ञात हो चुका होता है कि इस अपराध क़ी सजा मिलते मिलते उसका सांसारिक यात्रा ही पूरी हो जायेगी. यही तों पढाई लिखाई का फ़ायदा है. अगर पढ़े लिखे नहीं होते तों चुप चाप जो होता उसे देखते तथा अपने काम में मस्त एवं व्यस्त हो जाते. हम जो इस मंच के विविध लेखो पर अपनी क्रिया प्रतिक्रिया देते है वह किसका परिणाम है? हमारी पढाई लिखाई का ही परिणाम है. यह अलग बात है कि क्रिया प्रतिक्रिया देने के पीछे भाव या मनसा कुछ अलग है. मै लिखता हूँ तों सोचता हूँ कि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे पढ़ें तथा ज्यादा से ज्यादा इस पर प्रति क्रिया दें. ताकि कुछ पुरस्कार या मंच का सम्मान मिले. या ज्यादा से ज्यादा जजमान बनें. जब कि मुझे यह सोचना चाहिए कि यह ज्यादा से ज्यादा लोगो के लिये भौतिकता वादी संसार के उन सतही आवश्यक आवश्यकताओं क़ी पूर्ती करे जिसके बाद अब लोगो को नैतिकता एवं सामाजिक तथ्यों क़ी तरफ सोचने का मन बने. अब आप ही सोचें, यदि हम पढ़े लिखे नहीं होते तों इतनी गूढ़ एवं रहस्यमय बात कैसे जान पाते? यही कारण है कि सूर, तुलसी, कबीर, जायसी, रसखान, कालिदास, बाण भट्ट, आदि बिना किसी विश्व विद्यालयीय शिक्षा के भी प्रसिद्धि के गगन में छा गये. किन्तु यह हमारी पढाई लिखाई का ही महत्व है जो हम आज उनकी रचनाओं का स्थूणाभिखनन करते हुए उसकी छीछालेदर करते चले जा रहे है. जैसे- श्रीराम क्या कभी भगवान हो सकते है जिन्होंने मूर्खता का प्रदर्शन करते हुए एक नादाँ एवं अल्पज्ञ धोबी के कहने पर अपनी बीबी को जंगल में भेज दिया? या ऐसा आदमी क्या कभी मर्यादा पुरुषोत्तम हो सकता है जिसने मानवाधिकार का उल्लंघन करते हुए औरत जाति पर कहर बरपाया- ताड़का का वध किया. शूर्पणखा क़ी नाक काट ली. उनकी सेना के एक कर्माचारी हनुमान ने लंकिनी नामक औरत को मार डाला. मानवाधिकार का उल्लंघन करने वाला कभी भगवान हो सकता है?रामचरितमानस महज एक कथा है जो अयोध्या के राज परिवार से सम्बंधित है. उसका भगवान से क्या लेना देना? आदि आदि. अब आप खुद ही सोचें, क्या बिना उच्च शिक्षा एवं सूक्ष्म बुद्धि के इतना ज्ञान संभव है जो इतनी महत्व पूर्ण बात का ज्ञान दे सके? इस जागरण मंच पर ही देखिये, हम सबको यह भली भांति ज्ञात हो चुका है कि कैसे ब्लॉग लिखने पर ज्यादा वाह वाही मिलेगी. आखिर इस सूक्ष्म ज्ञान क़ी प्राप्ति हमें कहाँ से मिली है? यह हमारी उच्च, व्यवस्थित, संतुलित एवं गंभीर अनुभवी शिक्षा का ही परिणाम तों है. यह कोई बुद्धि हीन ही है जिसने लिख दिया है कि- सूर सूर तुलसी शशी, उडुगन केशव दास. अब के कवि खद्योत सम जंह तँह करत प्रकाश.” और अंत में- गर जुदाई से खुदाई क़ी इबादत हौसला दे दिलनुमाई क़ी लगाई में जो ह़रदम फासला दे. खाक कर के ज़िंदगी को जो दिलाती है वो ज़न्नत तों ऐ पण्डित क्या मिला? जिससे करा ली तू ने सुन्नत. पण्डित आर. के. राय प्रयाग
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