अर्थात यह कितनी विचित्र बात है कि जो शिक्षा देने वाला गुरु (Teacher) नवजवान (Young) है. जब कि शिक्षा ग्रहण करने वाले शिष्य विद्यार्थी (Students) बूढ़े (Very Aged) है. और अर्धोन्मीलित (drowsiness) अर्थात आधी खुली एवं आधी बन्द आँखों वाले दक्षासन (A particular posture of exercising YOGA) में बैठे ऐसे गुरु के मूक (Pantomime) अभिभाषण (Lecture) से भी शिष्यों के सारे संशय अर्थात अज्ञान नष्ट हो जा रहे है.
जी हाँ, यह विवरण गुजरात प्रांत के बरोदा शहर में स्थित ई एम् ई स्कूल के इस सैनिक प्रशिक्षण संस्थान के प्रांगन में इस संस्थान के प्रथम समादेष्टा ब्रिगेडियर ए. के. यूजीन एक कुशल सैन्य अधिकारी, दूर द्रष्टा एवं धर्म के रहस्य से भिज्ञ महानुभाव के द्वारा पुनरुद्धार प्राप्त उस दक्षिणा मूर्ती मंदिर का है जिसकी धार्मिक एवं ऐतिहासिक प्रसिद्धि भारत ही नहीं बल्कि विदेशो तक में है. यद्यपि कुछ अनभिज्ञ या अल्पज्ञ जानो द्वारा इसका विवरण बहुत ही भ्रामक तौर पर प्रस्तुत किया जाता है किनती इसकी वास्तविकता कुछ और ही है. यह स्थान वास्तव में गुजरात के वडोदरा के महाराजा सयाजी राव गायक वाड़ के कुल देवता के देव स्थान का था. इस राजा के कुल गुरु भगवान दक्षिणामूर्ती थे. श्रीमद भागवतपुराण के माहात्म्य कथन अध्याय में यह विवरण आया है कि धर्म के तीन पाँव तों द्रविण आदि देशो में ही टूट चुके थे. चौथा पाँव जो थोड़ा बहुत बचा था वह गुजरात में आकर टूट गया. और धर्म लाचार एवं विवश होकर कराहते हुए दम तोड़ दिया. इसका स्पष्ट एवं वृहद् विवरण श्रीमद्भागवत पुराण में दिया हुआ है. जिसके प्रभाव से साम्राज्य में अपमान, दुराचार, दरिद्रता एवं विनाश शुरू हो गया. राजा ने सोमनाथ जाकर वहां के पीठाधिकारी पुजारी से इसका उपाय पूछा. उन्होंने बताया कि हे राजन, पहले भगवती दाक्षायनी क़ी अराधना कर उनसे भगवान शिव को उपदेश देने क़ी मुद्रा में बैठने का वरदान प्राप्त करें. उस समय आप उत्तर क़ी तरफ मुँह कर के बैठे रहे. जब ऐसी मुद्रा या आसन में भगवान शिव आप को दर्शन दें तों समझिये आप का कष्ट दूर हो जाएगा. इसके पीछे उन्होंने कारण यह बताया कि धर्मराज यम के यहाँ से जब धर्म अपना ठौर ढूँढते हुए पृथ्वी पर आया तों जैसा कि यम पुरी दक्षिण दिशा में ही मानी जाती है. इस प्रकार धर्म का आगमन दक्षिण से ही प्रमाणित होता है. किन्तु विविध अधार्मिक, अत्याचारियों एवं हिंसक आततायियों के इस दिशा में निवास के कारण धर्म का सत्यानाश हो गया. और गुजरात में आते आते इसका जड़ भी समाप्त हो गया. तों भगवान शिव के दक्षिण दिशा में बैठ कर ऊर्ध्वचक्षु अर्थात तीसरा नेत्र खोलते ही वे सब भगवान शिव के भीषण नेत्र ज्वाला में जल कर भष्म हो जायेगें. और फिर धर्म का पुनरुत्थान संभव हो सकता है. इसीलिये उस महात्मा ने राजा से भगवान शिव के सम्मुख उत्तर क़ी तरफ मुँह कर के बैठने क़ी सम्मति दी. ताकि भगवान शिव का मुँह स्वतः ही दक्षिण तरफ हो जाय. माता दाक्षायनी राजा क़ी प्रार्थना स्वीकार कर ली. किन्तु भगवान शिव राजा क़ी मनसा समझ गये. और वह पूरब क़ी तरफ मुँह कर के बैठ गये. कारण यह था कि दक्षिण दिशा में उनके परम प्रिय शिष्य शुक्राचार्य कश्यप ऋषि एवं महारानी दिति के दैत्य पुत्रो को शिक्षा देने के लिये विश्वामित्र एवं मरीचि आदि ऋषियों को विविध स्थानों पर शिक्षा देने के लिये नियुक्त कर रखा था. अतः उनका भी सर्वनाश हो जाता. बैठने के बाद उन्होंने पूछा कि हे राजन ! मै प्रसन्न हूँ. आप क्या चाहते है. राजा बोले कि हे प्रभु ! धर्म का पुनरुत्थान कीजिये. भगवान शिव बोले कि मेरी इस मुद्रा (आसन) क़ी बलिस्त भर (एक हाथ क़ी ऊंचाई) क़ी मूर्ती अपने राज्य में विश्वामित्र क़ी तपोस्थली में स्थापित करो. तथा उसकी अराधना करो. तुम्हारे दुःख दूर हो जायेगें. राजा बहुत प्रसन्न हुए. उन्होंने तत्काल शिल्पकार को आदेश देकर एक हाथ ऊंचाई क़ी मूर्ती तैयार करवाई. तथा ऋषि विश्वामित्र क़ी तपोभूमि जिसके उदर अर्थात पेट में बरगद या बड़ के पेड़ भरे पड़े हो वही पर ऋषि के नाम पर स्थित विश्वामित्री नदी के तट पर उस मूर्ती क़ी स्थापना करवाई. जिसके उदर अर्थात पेट में बड़ या बरगद भरे हो वह बड़ उदरा या बड़ोदरा हुआ. राजा ने एक गलती कर दी थी. भगवान शिव के आदेशानुसार उन्हें मूर्ती पूरब क़ी तरफ कर के स्थापित करनी चाहिए थी. किन्तु उनको उस सोमनाथ जी के महात्मा का कथन याद आ गया. जिधर भगवान का मुँह रहेगा, उधर के आततायियों का नाश होगा. अतः उन्होंने उस मूर्ती का मुँह पश्चिम क़ी तरफ कर दिया. ध्यान रहे, बरोदा से पश्चिम में ही यवनराज प्रारम्भ होता था. जो वर्त्तमान मारवाड़ के नाम से प्रसिद्ध है. और जहाँ से इसी उपद्रव के कारण सरस्वती नदी विलुप्त होते होते आज प्रयाग में आकर सीमित हो गयी है. अन्यथा सरस्वती नदी का उद्गम राजस्थान का पश्चिमी तट ही था. जिसे आज भारतीय पूरा तत्व विभाग (Department of Archaeology ) प्रमाणित कर चुका है. खैर, राजा ने उस विशेष आसन में मूर्ती क़ी स्थापना तों कर दी. किन्तु इससे भगवान शिव बहुत ही नाराज़ हुए. उन्होंने राजा को शाप भी दिया कि मेरे प्रभाव से धर्म का पुनरुत्थान तों अवश्य ही होगा, किन्तु तुम्हारे कुल का सत्यानाश हो जाएगा. तुमने मेरे कहे के विपरीत पश्चिम क़ी तरफ मूर्ती का मुँह कर दिया. राजा बहुत दुखी हुए. उन्होंने प्रार्थना क़ी- वटविटपिसमीपे भूमिभागे निषणणम सकल मुनिजनानाम ज्ञान दातारमारात. त्रिभुवन गुरुमीशम दक्षिणामूर्ति देवम जननमरणदुःखच्छेददक्षम नमामि अर्थात जो वट वृक्ष के समीप भूमि भाग पर स्थित है,निकट बैठे हुए समस्त मुनिजनो को ज्ञान प्रदान कर रहे है, जन्म मरण के दुःख का विनाश करने में प्रवीण है, त्रिभुवन के गुरु और ईश है, उन भगवान दक्षिणामूर्ति को मै नमस्कार करता हूँ. अस्तु, जो भी हो. दक्षिणा मूर्ति का तात्पर्य यह नहीं कि किसी देवी देवता क़ी मूर्ति का मुँह दक्षिण दिशा क़ी तरफ हो. एक विशेष मुद्रा या आसन होता है. जिसे दक्षासन कहते है. आसन कुल 84 होते है. उनमें से एक दक्षासन है. इस विशेष मुद्रा या Posture में जो कोई भी मूर्ति या Deity होगी वह दक्षिणा मूर्ति कहलायेगी. चाहे वह शिव क़ी हो या हनुमान क़ी या फिर गणेश क़ी. दक्षिणा मूर्ति केवल मूर्ति के आकार प्रकार एवं रूप रंग पर ही निर्भर नहीं है. बल्कि उसके साथ कुछ एक अन्य आवश्यक शर्तें भी है. इन शर्तो के रहने पर ही कोई मूर्ति दक्षिणा मूर्ति कहला सकती है. इसका विवरण इस Article के शुरूआती (Openinig) श्लोक में दिया गया है. श्लोक पर ध्यान दें, मूर्ति का एक पाँव दूसरे के ऊपर चढ़ा होगा, मुड़े हुए चढ़े पाँव के घुटने पर ऋजु कोण बनाता हुआ हाथ रखा होगा. दूसरा हाथ वरद मुद्रा में होगा. आँखें आधी खुली एवं आधी बन्द होगी, सामने ऋषि लोग अपने युगल के साथ खड़े होकर ध्यान से मूर्ति क़ी तरफ देख रहे होगें. तथा यह समस्त कार्य वट वृक्ष के नीचे हो रहा होगा. तभी जाकर यह सिद्ध होगा कि यह मूर्ति दक्षिणा मूर्ति है, जैसा कि उपर्युक्त श्लोक से स्पष्ट है. केवल मूर्ति के दक्षासन में स्थापित कर देने मात्र से ही कोई मंदिर दक्षिणा मूर्ति मंदिर नहीं कहला सकता. ई एम् ई स्कूल बरोदा का दक्षिणा मूर्ति मंदिर इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है. इसकी स्थापना बरोदा के महाराजा द्वारा क़ी गयी थी. जन श्रुति के अनुसार उनका नाम रूद्र देव था. उनके ही वंशज सयाजी राव हुए. बहुत समय तक यह मंदिर देख रेख के अभाव में उपेक्षित रहा. बाद में राज परिवार द्वारा यह स्थान भारतीय सेना को दे दिया गया. ई एम् ई स्कूल के प्रथम समादेष्टा (Commandant) ब्रिगेडियर ए. के. यूजीन ने अपनी अलौकिक सूझ बूझ एवं उत्कृष्ट धर्म परायणता का परिचय देते हुए इस मंदिर को एक ऐसी संस्था का रूप दे डाला जो यह प्रमाणित करता है कि समस्त संसार एक अदृष्य शक्ति के द्वारा संचालित होती है. जिसे हिदू लोग भगवान, मुस्लिम लोग अल्लाह, ईसाई लोग गाड़ एवं सिख लोग गुरु के नाम से जानते है. यह धातु क़ी चद्दर से बना है. इसके बुर्ज पर मुस्लिम सम्प्रदाय का गुम्बद बना है. इसका आकार बौद्ध सम्प्रदाय के प्रतीक के रूप में बौद्ध बिहार के गुम्बद क़ी तरह गोलाकार ही है. इसमें प्रवेश के पांचो मार्ग जैन शैली पर बने है. गर्भ गृह के ऊपर जिसमें भगवान शिव क़ी प्रतिमा है उसके ऊपर 54 फुट ऊंची मीनार बनी है जो ईसाई शैली पर बनी है. तथा इसके शीर्ष पर हिदू सम्प्रदाय का पवित्र प्रतीक स्वरुप विशाल काय पीतल का मंगल कलश बना हुआ है. और इस प्रकार इस एक ही स्थान पर पांचो धर्मो क़ी उपासना सम्यक रूप से हो जाती है. और वेद का यह कथन भी प्रमाणित हो जाता है कि- “एको सद्विप्रः बहुधा वदन्ति.” अर्थात ईश्वर एक ही है, विद्वान लोग इसकी व्याख्या विविध रूपों में करते है. इस मंदिर में प्राचीन काल क़ी बहुत सारी मूर्तियाँ खंडित हो चुकी है. मूल भगवान दक्षिणा मूर्ति क़ी प्रतिमा बहुत छोटी थी. और लगभग जीर्ण शीर्ण हो चुकी थी. किन्तु ब्रिगेडियर यूजीन साहब ने इसे रिपेयर करवाया. इसके ऊपर रेत एवं सीमेंट का लेप चढ़वा कर इसका आकार बड़ा करवाया. यह मंदिर वास्तव में दक्षिणामूर्ति का मंदिर है. इसके गर्भ गृह में भगवान शिव आधी बन्द एवं आधी खुली आँखों में दक्षासन मुद्रा में बैठे है. सामने वट वृक्ष है. वट वृक्ष के नीचे सातो ऋषि अपनी पत्नियों के साथ खड़े होकर भगवान शिव से शिक्षा ग्रहण कर रहे है. जैसा कि श्लोक में बताया गया है, शिक्षक अर्थात Teacher बिल्कुल नवयुवक है. अर्थात भगवान शिव युवावस्था में है. तथा विद्यार्थी अर्थात Students जो सातो ऋषि है, वे बूढ़े हो चुके है. मै यहाँ बता दूँ कि यह सब किसी ने बनाया नहीं है. यह कोई कृत्रिम निर्माण नहीं है. यह अपने आप कुदरती तौर पर स्वयं ही बना है. यह भगवान दक्षिणामूर्ति क़ी अलौकिक कृपा ही है कि यह सब शर्तें प्राकृतिक रूप से स्वतः ही उत्पन्न हुई है. भगवान शिव दक्षासन क़ी मुद्रा में बैठे है. सामने ऋषि लोग शिक्षा ग्रहण कर रहे है. इसकी महत्ता इस ई एम् ई स्कूल के लिये बहुत ही बढ़ जाती है. कारण यह है कि यह स्कूल भी एक प्रशिक्षण संस्थान है. जहाँ पर सेना के विविध अंगो यहाँ तक कि विदेशी सेना के भी अफसर एवं जवान यहाँ पर प्रत्यक्ष रूप से अपने विभागों में विशेषज्ञ एवं अप्रत्यक्ष रूप से भगवान दक्षिणा मूर्ति से शिक्षण एवं प्रशिक्षण प्राप्त कर एक कुशल सैनिक बन कर निकलते है. इस गुरु क़ी महत्ता इस स्कूल के लिये इसीलिए और भी ज्यादा मायने रखती है. क्योकि एक तरफ सैनिक अपने गुरुओ से प्रशिक्षण लेते है. दूसरी तरफ ऋषि-मुनि वट वृक्ष के जड़ के रूप में सम्मुख खड़े होकर अपने गुरु दक्षिणामूर्ति भगवान से प्रशिक्षण प्राप्त करते है. और इस प्रकार से सेना के जवानो को प्रशिक्षण प्राप्त करने में प्रेरणा भी मिलती है. यह संस्थान सेना के नियंत्रण, देखरेख, संचालन एवं व्यवस्था के आधीन है. किन्तु श्रद्धुलों क़ी भारी श्रद्धा एवं विश्वास के कारण आम लोगो भी दर्शन पूजन क़ी अनुमति मिली हुई है, प्रति दिन हजारो लोग देश विदेश क़ी भिन्न भिन्न कोने से यहाँ दर्शन करने आते है. और अपनी मुरादें पूरी करते है. पौराणिक वर्णन एवं जन श्रुतियो के अनुसार भगवान दक्षिणा मूर्ति का पूजा विधान एक निश्चित विधि से करने पर करने पर सफलता प्राप्त होती है. जैसे यदि मंगल वार को पूजन करना हो तों गुरु स्वरुप भगवान दक्षिणा मूर्ति क़ी पूजा व्यस्ती के अनुपात में, बुध वार को करना हो तों समष्टि के अनुपात में, गुरूवार को करनी हो तों नैरिष्टि के अनुपात में आदि. इसका विशिष्ट प्रावधान शंकर एवं बादरायण के अलावा सह्याद्री के आख्यानो में विशद रूप से दिया गया है. यह एक अति प्रसिद्ध, रमणीक, धार्मिक आस्था का प्रतीक एवं अति सिद्ध मंदिर है. किन्तु बड़े ही अफसोस क़ी बात है कि विविध अल्पग्य एवं पाखंडी लोग श्रद्धालुओ को अस्पष्ट एवं भ्रामक व्याख्या देकर भटका दे रहे है. इस मंदिर, मूर्ति एवं पौराणिक तथा धार्मिक महत्ता को नहीं बता पाते है. जिससे ढेर सारे लोग निराश भी हो जाते है. सहायक स्रोत (Sources) –बरोदा के प्राचीन विश्वनाथ मंदिर में उपलब्ध एक जीर्ण शीर्ण पुस्तक जिसका नाम पता नहीं है. कारण यह है कि उसके शुरू आती कई पृष्ठ गायब है, सह्याद्री गोष्ट, बादरायण उपाख्यान, शंकर सृजन एवं रुद्राभिनवम आदि. पण्डित आर. के. राय प्रयाग
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