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वैदिक काल क़ी रहस्यमय तकनीकी शिक्षा.

वेद विज्ञान
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    “हे देवाधिदेव ! ये बिचारे निरीह, अबोध, वेद, आचार, मर्यादा, नीति एवं विद्या-बुद्धि आदि से सर्वथा हीन है. इनका मानस पटल बिल्कुल सपाट एवं एवं साफ़ सुथरी चिकनी पट्टिका क़ी तरह किसी तरह के चिन्ह से रहित है. वास्तव में इन्हें ही शिक्षा, एवं कुशल गुरु क़ी आवश्यकता है. वेदपाठी, ब्रह्मचारी, कुशल शिक्षको से युक्त आर्यों को तों कोई भी शिक्षा दे सकता है. तथा उन्हें शीघ्र एवं पूर्ण पारंगत बना सकता है. अतः वशिष्ठ आदि जो आर्यों के गुरु एवं शिक्षक बनने के लिये आतुर है, उन्हें उनकी इच्छानुसार आर्यो का शिक्षक नियुक्त कर दिया जाय. मै इन अबोध, सरल स्वभाव वाले आचार हीन अनार्यो को शिक्षा देने का उत्तरदायित्व ग्रहण करता हूँ. “

    यह कथन महर्षि भृगुपुत्र शुक्राचार्य का है. जब भगवान शिव सृष्टि के संतुलन को नियमित करने हेतु समस्त ऋषि-मुनि एवं देवी देवताओं के साथ सभा कर रहे थे. भगवान शिव बोले कि हे भार्गव ! तुम महान हो. तुम्हारी सोच बहुत ही ऊंची एवं निः स्पृह है. अपने आप में तुम एक स्वतंत्र यज्ञ हो. बिना तुम्हारी उपस्थिति के यज्ञ का पूर्णत्व एवं सफल समापन सर्वथा असंभव है. तुम हमेशा मेरे प्रधान एवं प्रिय पात्र बने रहोगे. तुम्हें जब जो इच्छा हो, मुझसे मांग लोगे. और यह मेरा आशीर्वाद है कि जब तक मै हूँ, तुम भी हो. तथा बिना तुम्हारी इच्छा के कोई नयी विद्या जन्म नहीं ले सकती है. विशेष विद्याओं का आविष्कार मात्र तुम्हारे द्वारा ही होगा. तब भगवान विष्णु बोले कि हे ब्राह्मण ! यह मेरा आशीर्वाद है कि जिस किसी सिद्धि को पाने के लिये आर्य नाम से विभूषित प्राणी वैदिक मंत्रो के सहारे एक दीर्घ एवं विविध प्रतिबन्ध युक्त प्रतीक्षा करता रहेगा, हे महर्षि उसे तुम स्वनिर्मित यंत्र-तंत्र के सहारे अति अल्प काल में प्राप्त कर लोगे.

    महर्षि भार्गव बोले कि हे प्रभू ! मेरे शिष्य तों आर्यों से दूर अरण्यवासी है. फिर आप के इस वचन क़ी पूर्ती कैसे होगी? भगवान विष्णु बोले कि समस्त अरण्य आज से यंत्र-मन्त्र के स्रोत बन जायेगें. समस्त औषधियां एवं पुष्टिकारक खनिज मात्र अरण्य में ही उपलब्ध होगे. यही नहीं, मै तों आर्यों के साथ हूँ. किन्तु मेरी पत्नी लक्ष्मी सदा तुम्हारे ही साथ रहेगी. फिर भी हे साधो ! यदि तुम्हारी इच्छा है तों मै तुम्हारे साथ तथा लक्ष्मी को आर्यों के साथ कर देता हूँ. देव गण बोले कि हे प्रभू ! पहले हमने आप का आवाहन किया है. तथा यथेष्ट मंत्रो से आप क़ी अराधना क़ी है. अतः पहले यह हमारा अधिकार होगा कि हम आप एवं लक्ष्मी दोनों में से किसे चुनें. ईश्वर बोले कोई बात नहीं. पहले तुम ही मांग लो. देवता बोले कि हे प्रभू ! हमें आप क़ी आवश्यकता है. माता जी को आप ऋषि को प्रदान करें. भार्गव बोले कि हे प्रभू ! हमें न तों माता जी ही चाहिए. और न तों आप. बस हमें तों केवल आप का आशीर्वाद चाहिए. आप दोनों इनके ही साथ रहे. किन्तु देवताओं क़ी इस रूखी बात से माता लक्ष्मी को थोड़ी ठेस पहुँची. कैसे देवी देवताओं एवं ऋषि-मुनियों ने उनकी उपेक्षा करते हुए लेने से इनकार कर दिया. माता महालक्ष्मी जी बोली कि मै ऋषि भार्गव के ही साथ रह कर वृद्धि को प्राप्त हो पाउंगी. अतः हे प्रभो ! मुझे आप अनार्यगुरु महर्षि भार्गव को प्रदान करें. मै स्वेच्छा पूर्वक इनके साथ रहना चाहती हूँ. और भगवती महालक्ष्मी शुक्राचार्य के साथ अरण्य एवं पर्वतो में वास कर गयी.

    ब्रह्मा जी बोले कि हे भार्गव शुक्राचार्य ! चाहे भले आर्य समुदाय अट्टालिकाओ में निवास करे, किन्तु ऋद्धि सिद्धि के लिये अरण्यवास करना ही पडेगा. क्योकि जगदीश विष्णु एवं त्रिलोकी भगवान शिव ने समस्त ऋद्धि सिद्धि के संसाधन तों वनों, पर्वतो, कंदराओ एवं नदियों में भर दिये है. यहाँ तक कि महालक्ष्मी भी तुम्हारे साथ निवास कर गयी. अतः विविध अति विकसित तकनीकी ज्ञान के लिये आर्य समुदाय को आप क़ी तरफ उन्मुख होना ही पडेगा. अतः आर्य समुदाय के लिये ऋद्धि सिद्धि जितनी दुरूह होगी उतनी ही अदिति पुत्रो के लिये अर्थात असुरो के लिये यह सुगम होगी. भृगु पुत्र शुक्राचार्य बोले कि हे ब्रह्मन ! भले आर्यगुरु असुरो को शिक्षा देने से मना कर दें. किन्तु मै देवताओं को भी उतनी ही तन्मयता एवं आत्मीयता से शिक्षा दूंगा जितनी लगन से असुरो को.

    भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए. उन्होंने अति प्रसन्न होकर एवं विष्णु क़ी तरफ देखते हुए बड़े ही हर्ष के साथ यह वरदान दिया कि हे भृगुपुत्र श्रेष्ठ शुक्राचार्य ! आज तुम्हें एक अमोघ वरदान मै दे रहा हूँ. जो आज तक न तों कोई पा सका है. और न ही भविष्य में कोई प्राप्त कर सकता है शिवाय भगवान विष्णु के. तुम्हारी पास ऐसी विद्या होगी कि तुम किसी को भी मरने नहीं दोगे. किसी भी मृतप्राणी को जीवित करने क़ी “संजीवनी” विद्या मै तुम्हें प्रदान करता हूँ. शुक्राचार्य बोले कि हे प्रभु इस तरह मै निरंकुश एवं अत्याचारी बन जाउंगा. अतः यह विद्या मुझे न प्रदान करें. इस अधिकार को अपने पास ही रखें. भगवान शिव बोले कि हे महर्षे ! तुम कभी निरंकुश हो ही नहीं सकते. कारण यह है प्रकृति एवं पुरुष के विधान से तुम सर्वथा परिचित हो. नियमन एवं संतुलन क़ी प्राणविध प्रक्रिया का तुमने सूक्ष्मता पूर्वक अध्ययन किया है. तुम्हें पता है कि चाहे किसी भी आकार प्रकार के पात्र में पानी को रखा जाय वह अपनी सतह निर्धारित कर ही लेता है. अतः तुम्हें चिंता क़ी कोई आवश्यकता नहीं है.

    जब भगवान शिव क़ी आज्ञा से त्वष्टा पुत्र विश्वकर्मा ने वैश्रवण पुत्र कुबेर के लिये त्रिकुट (वर्तमान लंका) नगरी बसाई तों असुर गुरु शुक्राचार्य ने उस लंका के पूरे किले को विविध यंत्रो एवं औषधियों से घेर कर पूर्णतया सुरक्षित एवं अभेद्य कर दिया. कौन से वृक्ष कौन सी दिशा में किस प्रकार क़ी रक्षा प्रदान कर पायेगें? कौन सा पर्वत या पर्वत श्रृंखला किस दिशा में नगर में सुख शान्ति प्रदान करेगी? इस प्रकार दृष्य-अदृष्य यंत्रो एवं मंत्रो से उस पूरी लंका को दृढ़ता पूर्वक घेर कर किसी के लिये भी अभेद्य एवं अजेया बना दिया. श्रीरामचरितमानस में इस अजेय, अभेद्य एवं दुर्गम किले का वर्णन सुन्दर काण्ड में तुलसी दास ने बहुत ही रोचक तरीके से बताया है.

    कनक कोट विचित्र मणि कृत सुदरायत अति घना.

    चौहट्ट हाट सुघट वीथी चारु पुर बहू विधि बना.

    आदि कवि बाल्मीकि ने भी इसकी अभेद्यता को अपनी कृति रामायणं के द्वीतीय सर्ग के श्लोक 19 में निम्न प्रकार बताया है-

    “वप्रप्राकारजघनाम विपुलाम्बुवनाम्बराम . शतघ्नीशूलकेशांतामट्टालकावतंसकाम . मनसेव कृताम लंकाम निर्मितं विश्वकर्मणा.

    आप ने राम चरित मानस में यह अवश्य ही पढ़ा होगा कि जब हनुमान जी समुद्र के ऊपर उड़ाते हुए चले जा रहे थे. तों समुद्र में एक राक्षसी रहती थी. जो आकाश मार्ग से जाने वाले प्रत्येक प्राणी क़ी छाया पकड़ कर खींच लेती थी. तथा समुद्र में डुबाकर खा जाती थी.

    “निशिचरी एक सिन्धु मँह रहई. करि माया नभ के खग गहई.

    जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं. जल विलोकी तिन्हकी परिछाहीं.

    गहई छाँह सक सो न उडाई. यहि विधि सदा गगन चर खाई.

    यह क्या था? रावण ने अपने इंजीनियरों के द्वारा समुद्र में एक यानरोधी संयंत्र (Anti Aircraft Gun) स्थापित करवा रखा था. जो वायु मार्ग से जाने वाले समस्त वायुयानों को अपनी चुम्बकीय (Magnetic) शक्ति से खींच कर समुद्र में डुबाकर ध्वंस कर देता था. तकनीकी ज्ञान प्राप्त हनुमान जी ने तत्काल उस संयंत्र को तोड़ कर बेकार कर दिया.

    राम क़ी सेना के नल एवं नील क्या थे? वे एक उत्कृष्ट सिविल इंजिनियर थे. उन्हें मालुम था कि समुद्र कहाँ पर कम गहरा है. और कौन पत्थर आसानी से उस स्थान पर दृढ़ता पूर्वक बिठाए जा सकते है. किस प्रकार पत्थरो को तराशा जाना चाहिए कि वे पुलिया के निर्माण में ठीक तरह से बैठ सकें.

    “नाथ नील नल कपि दोउ भाई. लरिकाईं ऋषि आशिष पायीं.

    तिन्हके परस किये गिरी भारे. तरिहहि जलधि प्रताप तुम्हारे.

    .. अस्तु, इस प्रकार भृगु पुत्र शुक्राचार्य त्रिदेवो को सिर नवाकर अपने शिष्यों को साथ लेकर महान प्रकृति क़ी मनोरम एवं अतिविचित्र क्रोडस्थली में प्रयाण कर गये.

    ऋषि वशिष्ठ से समस्त सैद्धांतिक शिक्षा ग्रहण के बावजूद भी श्रीराम चन्द्र को व्यावहारिक एवं प्रायोगिक ज्ञान का सर्वथा अभाव था. शुक्राचार्य से प्रश्रय प्राप्त योगनिष्ठ तपोमूर्ति यामदग्नेय ऋषि विश्वामित्र ने अगस्त्य पुत्र ब्रह्मर्षि वशिष्ठ क़ी याचना भरी प्रेरणा से श्रीराम को समस्त अस्त्र-शस्त्र क़ी प्रायोगिक शिक्षा प्रदान क़ी. इसी अंतराल में लक्ष्मण को विश्वामित्र ने “प्राप्लुत” नामक अस्त्र के निर्माण एवं प्रयोग क़ी विधि बतायी थी. जिसके सहारे वनवास के दौरान मारीच वध के समय लक्ष्मण ने पर्णकुटी के दरवाजे पर “प्राप्लुत” यंत्र लगा दिया. ताकि कोई भी हिंसक या अपरिचित प्राणी उस कुटिया के अन्दर न प्रवेश कर सके. तथा उसका प्रतिकार सीता को बता दिया. यही कारण था कि रावण उसके अन्दर प्रवेश नहीं कर सका.

    शुक्र शिष्य “बाजश्रवा” ने अपने शिष्य सुग्रीव के अनुरोध पर दंडक पर्वत पर “सप्तालिका” नामक अवरोधी संयंत्र स्थापित कर दिया था. जिसके भय से खूंखार बाली उधर कभी नहीं फटकता था. अन्यथा बाली के पास इतनी शक्ति थी कि वह रावण जैसे भयंकर राक्षस को भी एक सौ अस्सी दिन अपने बगल में दबाये ही रह गया. फिर वह सुग्रीव के वध में कितना विलम्ब करता?

    आप एक बात को ज़रा ध्यान से देखिये. समूची लंका नगरी एक अति सुदृढ़ एवं पूर्ण तकनीकी यंत्रो से घिरी थी. आप देखें, अयोध्या नगरी के प्रत्येक घर को तुलसी दास भवन कहते है. किन्तु लंका के प्रत्येक घर को मंदिर कहते है.

    मंदिर मंदिर प्रति कर शोधा. देखेउ जहाँ तहां अगणित योधा.

    गयऊ दशानन मंदिर माहीं. अति विचित्र कही जात सो नाहीं.

    शयन किये देखा कपि तेही. मंदिर मँह न दीख वैदेही.

    भवन एक पुनि दीख सुहावा. हरि मंदिर तंह भिन्न बनावा.

    बार बार राक्षसों के घर को मंदिर एवं अन्य घरो को भवन कहते है.

    आखिर कोई न कोई तो तकनीकी भेद रहा होगा?

    चूंकि हनुमान जी ने भगवान सूर्य से समस्त सैद्धांतिक शिक्षा ग्रहण क़ी थी. किन्तु अंत में प्रायोगिक एवं व्यावहारिक शिक्षा के लिये उन्हें सुग्रीव क़ी सेना में रह कर असुरगुरु शुक्राचार्य के शिष्य “बाजश्रवा” के पास आना पडा था. और दंडकारण्य में रह कर हनुमान जी ने तकनीकी ज्ञान प्राप्त किया. तभी जाकर वह लंका के किले को जला सके. अन्यथा त्रिलोक विजयी रावण को एक हनुमान को मार डालने या निरुद्ध करने में क्या समय लगता?

    शक्तिसत्ता को समेकित एवं पूर्ण करने क़ी दृष्टि से ही प्राकृत पुरुष ने इसको विकेन्द्रित करने के बावजूद भी परस्पर एक दूसरे से संलग्न या संलिप्त कर दिया. अग्र एवं पश्च क़ी स्थिति के अनुसार एक दूसरे को प्रतिपूरक निर्धारित करते हुए अपने द्वायात्व को स्थापित तों किया. किन्तु परिभाषी एवं आभाषी के विभेद से दोनों का अलग अलग अस्तित्व भी निश्चित कर दिया. प्राचीन काल से ही सिद्धांत एवं व्यवहार को एक दूसरे के अभाव में अपूर्ण बताया, जो वास्तविकता है.

    यही कारण पडा कि जिनको अनार्य क़ी संज्ञा देकर ऋषि वशिष्ठ ने दशराज्ञ युद्ध में मार कर भगा दिया, उन्हें विश्वामित्र ने एकत्र कर दंडकारण्य में वेद, पुराण, शस्त्र एवं शास्त्रों क़ी सम्पूर्ण शिक्षा प्रदान क़ी.

    वर्त मान समय में भी सैद्धांतिक शिक्षा से ज्यादा महत्व पूर्ण प्रायोगिक शिक्षा ही है. जिस सिद्धांत का कोई व्यावहारिक ठोस रूप न हो वह निरर्थक है. इसका परिपोषण तकनीकी ज्ञान के शिरोमणि महर्षि भृगुपुत्र शुक्राचार्य ने भरपूर किया है.

    पण्डित आर. के. राय

    प्रयाग

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