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पूजा क़ी सर्वोत्तम संक्षिप्त विधि

वेद विज्ञान
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आज विविध अनुकूल एवं प्रतिकूल विचारों के उत्साह एवं प्रमाद भरे वातावरण में पूजा पाठ क़ी बात करना सिवाय अरण्य रोदन के और कुछ भी नहीं है. फिर भी मै कुछ श्रद्धावानो क़ी विशेष रूचि को देखते हुए कतिपय पंक्तियाँ लिखना आवश्यक समझता हूँ. यद्यपि चावल एवं सब्जी आदि में पानी पड़ता है. किन्तु फिर भी भोजन के बाद पानी पीना पड़ता है. हम ऐसा नहीं करते है कि उस सब्जी या चावल में ढेर सारा पानी उँडेल दें कि भोजन के बाद पानी पीने क़ी आवश्यकता ही न पड़े. हम अपनी जानकारी में नित्य शुभ एवं आवश्यक क्रियाओं का सम्पादन करते है. किन्तु फिर भी उसकी पूर्णता एवं सार्थकता के लिये पूजा पाठ का करना अति आवश्यक है. बिना इसके हमारे समस्त शुभ एवं उपयोगी कर्म अधूरे एवं निष्क्रिय अवस्था में पड़े रहता है. ऐसा नहीं है कि हमारे जनोपयोगी, हितकारी एवं शुभ कर्म निरर्थक ही रह जाते है. जी नहीं. जिस तरह से कोई बीज ज़मीन में धूल में पडा रहता है. और जब बरसात क़ी नमी पाता है तों अंकुरित हो जाता है. ठीक उसी प्रकार हमारा शुभ, जनोपयोगी एवं हितकारी कर्म सुरक्षित रहता है. तथा पूजा रूपी पवित्र कार्य क़ी बूंदों के संपर्क में आते ही अंकुरित होने लगते है.
किन्तु समस्त द्रव पदार्थ जल ही नहीं होते. अम्ल या तेज़ाब भी द्रव रूप में ही होता है. जो अंकुरित बीज को भी जला देता है. अतः यह भी देखना है कि कही पूजा का विधान विपरीतार्थक तों नहीं है.
मै एक सरल पूजा विधि के बारे में कुछ लिखना चाहूँगा. हम नहा धोकर अपने को पवित्र मान कर किसी साफ़ सुथरी जगह पर बैठ कर अपने आराध्य देवी देवताओं को धुप दीप आदि करते है. ध्यान लगाकर उस देवी देवता से अपनी सफलता का आशीर्वाद माँगते है. कारण यह है कि हम अपने बुजुर्गो एवं अन्य श्रेष्ठ जनो से यही करते देख कर सीखा है. ठीक है. यह पूजा भी ठीक ही है. किन्तु जब तक मानसिक संतुलन अपने समस्त अवयवो के साथ इस क्रिया में भाग न ले, यह पूजा निष्फल ही रह जाती है. इसलिए सर्वप्रथम स्नान के जल को देखें कि यह हमारे शरीर के तंतुओ को किस सीमा तक दाब-ताप- संकुचन एवं प्रसारण तथा वायु-जल निस्सरण के लिये उपयुक्त एवं समर्थ है. इसीलिए वैदिक चिकित्सा विधान में पुष्यामृत स्नान का विधान बताया गया है. इन औषधियों को एकत्र कर घर में रख लेना चाहिए. तथा थोड़ा थोड़ा रोज ड़ाल कर या दो एक दिन के अंतराल पर जल में ड़ाल कर स्नान करने से शारीरिक तंतुओ का संतुलन विक्षोभ रहित हो जाता है. बैठते समय धरती एवं शरीर का सीधा संपर्क होने से एक निश्चित लक्ष्य को धारण कर किये स्नान से प्राप्त शारीरिक तंतुओ क़ी एकाग्रता पार्थिव आवेश से प्रभावित हो जाती है. इसलिये पूजा करते समय शरीर एवं धरती के बीच कोई विद्युत् ऊष्मा का कुचालक आसन होना चाहिए. हम इस निमित्त परम्परागत रूप में कम्बल या कुश का आसन प्रयोग करते है. पुनः पूजा में हम प्रायः सुगन्धित द्रव्यों का प्रयोग करते है. किन्तु आज कल अगर बत्ती का प्रचलन ज्यादा हो गया है. वास्तव में अगरबत्ती अगरु के चूर्ण को गीला कर लकड़ी में लपेट कर बनाया जाता है. इससे अच्छा है कि बाज़ार से अगरु के चूर्ण को खरीद कर उसे घी में गूंथ लें. और उसे ही टुकड़ा टुकड़ा कर जलाएं. यह धूम सम्मुख रखी मूर्ति या चित्र क़ी तरफ प्रवाहित होना चाहिए. यदि ऐसा नहीं हो पाता है तों इसका प्रयोग न करें. यदि चन्दन या रोली का टीका लगाना हो तों दोनों भौहो के बीच नासिका के ऊपर (ट्रीकोमेटिकल ग्लैंड पर) लगाए. किन्तु यदि भष्म लगाना हो तों उसे दोनों भौहो के ऊपर ललाट (फोरहेड या मेट्रोडेनियल ग्लैंड) पर लगाए. चन्दन भर सक घिसा हुआ ही प्रयोग करें. लड़कियों को सफ़ेद चन्दन लगाना मना है. कारण यह है कि इसमें अपश्रुती द्रव्य या एंटी जेनिटल बेस होता है जो गुण सूत्रों अर्थात क्रोमोजोम्स को निष्क्रिय कर देता है. संतान युक्त स्त्री या पुरुष को ललाट पर किसी भी वैष्णवी हवन के भष्म को नहीं लगाना चाहिए. क्योकि उसमें त्रिपत्रिका एवं जटामांसी का अंश ज्यादा होता है. इस प्रकार सुविधानुसार टीका लगाना चाहिए. यदि दीप जलाकर पूजा करनी हो तों निश्चित रूप से सुगन्धित पुष्पों का पूजा में प्रयोग करना चाहिए. अर्थात बिना सुगंध वाले पुष्प का प्रयोग दीप जलाकर पूजा करते समय नहीं करना चाहिए. जिस किसी भी देवी देवता को जलाभिषेक करना हो उसे चन्दन लगाना अनिवार्य है. अकेले किसी भी स्त्री को किसी भी देवी देवता का जलाभिषेक नहीं करना चाहिए. विधवा या अविवाहित स्त्री को कभी भी जलाभिषेक पूर्वक किसी देवी देवता क़ी पूजा नहीं करनी चाहिए. प्रायः यह देखने में आया है कि चाहे वह औरत सधवा हो या विधवा कुंवारी हो या विवाहित बिना विचार किये सूर्य एवं हनुमान क़ी पूजा में जल का प्रयोग करती है. यदि विधि से सूर्य को जल चढ़ाया जाय तों अरुण विन्दु या फ्लोरो कैल्सीफेराल एवं डिक्लोरिबेविन का संक्रमण शरीर पर सीधा होता है. अतः संतति संबंधी इच्छा से सम्बंधित इन्द्रियों को उत्प्रेरित करने के लिये ये दोनों पदार्थ पर्याप्त होते है. यही कारण है कि कुंवारी या विधवा स्त्रियों को जलाभिषेक प्रतिबंधित किया गया है.
अस्तु मै साधारण पूजा क़ी प्रस्तुति क़ी तरफ ही ध्यान केन्द्रित करना चाहता हूँ. उपरोक्त प्रकार से खाली पेट, शौच आदि क्रिया के उपरांत दातुन आदि से निबट कर स्नान करने के बाद आसन पर बैठ कर धुप दीप करने के बाद आँखें बन्द कर के उतनी ही देर तक बैठे एवं अपने लक्ष्य के बारे में विचार करे जितनी देर में 60 श्वास एवं प्रश्वास पूरे हो जाय. यह नित्य क़ी जाने वाली सबसे साधारण पूजा है. 60 श्वास एवं प्रश्वास पुरा करने में कशेरुक दंड या स्पाईनल कार्ड, आहार नाल या एलीमेंट्री कैनाल, श्वसन तंत्र या लैरिंगटिस सिस्टम, दृष्टि तंत्र या ओफ्थैल्मिक सिस्टम, केंद्रीय तंत्रिका तंत्र या सेन्ट्रल नर्वज सिस्टम में समस्त संवेदनाओं का एक चक्र पुरा हो जाता है.
इस समस्त प्रक्रिया में अधिक से अधिक पंद्रह मिनट से ज्यादा समय नहीं लगेगा. यह एक सीधी, सरल एवं संक्षिप्त पूजा विधि है जिसे प्रत्येक व्यक्ति को करनी ही चाहिए.

पण्डित आर. के. राय
प्रयाग
9889649352

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