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क्या माँ का जन्म उसके पाप का फल है? भाग-2

वेद विज्ञान
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आगे——
अपनी अवस्था अभी इतनी नहीं थी कि मै माँ के अंतर्मन क़ी पीड़ा को आत्मसात कर उसका विश्लेषण या अनुवीक्षण कर सकूं. किन्तु राग विशेष का प्रवाह मुझे इस प्रकार व्यथित कर रहा था कि मै भी बिना कुछ समझे जोर जोर से रोना शुरू कर दूँ. जिसे मै दुनिया क़ी ह़र ताक़त से ऊपर समझा. जिसे मै धन धान्य का एक मात्र खज़ाना समझा. जिसकी रोशनी से खुद सूरज को भी रोशन समझा.जिसको गलती से भी कभी सोये देखने पर ऐसा एहसास होना कि दुनिया ही सो गयी, आज वही दया, ममता, संपदा, करुना एवं वात्सल्य क़ी मूर्ति पता नहीं क्यों निःशक्त, बेबस, लाचार एवं शव समान हो गयी. जिसने जाड़े क़ी भीषण सर्दी को अपने तपते हुए गर्म हड्डी, खून एवं माँस से हमारे पास फटकने तक नहीं दिया, जिसकी स्नेह सिक्त ममतामयी वात्सल्य सरिता के शीतल, मंद, सुगंध प्रवाह के एक हलके झोंके से ग्रीष्म ऋतु क़ी कड़ कडाती हुई गर्मी एवं चिल चिलाती हुई धुप भी मलाया गिरी के शीतल पवन के रूप में बदल गयी, आज क्रंदन के लिये क्यों विवश हो गयी. जो भी हो मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था.”
शायद महात्मा जी को थोड़ा विधिवत समझाने क़ी इच्छा से उस आदमी ने हाथ अपने चहरे पर फिरा कर फिर कहना शुरू किया
“मुझे माँ पर कभी कभी बहुत क्रोध आता था. खेतो में काम करते समय वह किसी के भी बच्चे को पुचकारने लगती थी. किसी भी बच्चे को गोद में उठा लेती थी. वह क्यों ऐसा करती थी. हम उसके बच्चे तों थे ही? लेकिन हे प्रातः स्मरणीय महात्मा जी ! आज मेरी समझ में वह सब कारण आ रहा है. कारण यह था कि वह एक माँ थी. वैसे एक बात मैंने और भी देखी थी. ज़मीदार साहब क़ी बड़ी बहन अपने किसी भी काम के लिये मेरी माँ के ही पास आती थी. मेरी मौसी या बड़ी काकी के पास कभी नहीं जाती थी. जब कि मेरे मौसा एवं बड़े काका भी ज़मीदार साहब के हल चलाते थे. काका का बड़ा बेटा पतलून पहनता था. मौसी क़ी बड़ी बेटी कशीदा क़ी हुई घाघरा पहनती थी. एक बार उसने मेरी माँ के लिये भी कुछ वैसा ही कपड़ा लेकर मेरी मौसी क़ी वही बेटी मेरे घर आई थी. किन्तु मेरी माँ एवं पिताजी दोनों ने उसे लौटा दिया. मुझे बहुत दुःख हुआ. हमारे पास कपड़ो क़ी निहायत ही कमी थी. फिर माँ एवं पिताजी वह कपड़ा क्यों लौटा दिये? एक बार मै सोचा कि मै जाकर उससे वह कपड़ा चुपके से मांग लाऊं. फिर मेरे छोटे दिमाग में यह बात कौंध गयी कि आखिर वह क्या कारण था कि मेरे माता पिता ने उसे नहीं स्वीकार किया? कुछ न कुछ तों बात होगी ही. और बस मै भी मन मार कर रह गया.
सुबह पिताजी वापस आये. आँखें भाव शून्य, जिह्वा शब्द शून्य, भाव अभिव्यक्ति शून्य, शरीर सेमल के सूखे पेड़ के समान घृणित विरक्ति का सन्देश देता हुआ न थकान के कोई लक्षण न ही स्फूर्ति का आभास , आये एवं एक चिकना लकड़ी का बेढंगा टुकड़ा जो मेरे छप्पर के सहारे हमेशा खडा रहता था, और पिताजी जिस पर हमेशा बैठने का ही काम करते थे, उसी पर बैठ गये. छप्पर के टूटे मुंडेर क़ी तरफ देर तक घूरते रहे. छप्पर का वह हिस्सा जो एक बांस के खम्भे के सहारे थोड़ा उठा रह गया था, उसी तरफ हम दोनों भाई बैठे थे. माँ दाहिने हाथ को गोद में दबाये हुए थी. बाएं हाथ से रोटी एवं चटनी एक सफ़ेद थाली में जो किनारे क़ी तरफ थोड़ी टूटी हुई थी, उसी में लेकर आई. पिताजी घर घराती हुई आवाज में बोले, ” हाथ में क्या हुआ? ” माँ बोली,”थोड़ी चोट आई है” और पिताजी क़ी आँखें एकाएक बरसाती नदी क़ी तरह उमड़ पडी जैसे अचानक हुई बारिस से कोई छिछली नदी उफन जाती है. उनके सब्र का बाँध टूट गया. वह उठे, माँ को पकड़ कर हमारे पास बिठाए. और  कभी माँ और कभी हम दोनों भाईयों क़ी तरफ देख कर आँखों से आंसू गिराते रहे. पर पता नहीं, क्यों, माँ क़ी आँखों में आंसू नहीं थे. वह बहुत ही मज़बूत नज़र आ रही थी. उसने अपने आँचल से पहले पिताजी के आंसू पोंछे. फिर हम दोनों भाईयों का मुँह पोंछा. और हम तीनो-अर्थात पिताजी एवं हम दोनों भाई, उस एक ही थाली में खाना खाने लगे. माँ भी एक ढक्कन में कुछ रोटी लेकर खाने बैठ गयी. वैसे तों अभी बहुत सुबह का समय था. खाना खाने का वक़्त नहीं तथा. किन्तु फिर दोपहर में समय मिलेगा या नहीं, जैसा कि अमूमन नहीं मिलता है, इसीलिए सब लोग सुबह ही खाना खा लेते है. अभी माँ ने शायद रोटी का पहला या दूसरा ही टुकड़ा तोड़ कर मुँह में डाला होगा, कि तब तक ज़मीदार साहब का हरकारा पहुंचा और मेरी माँ से बोला कि ज़ल्दी से डेवढी में बुलाहट आई है. बाद में खाना खा लेना. माँ झटपट खाना एक पत्ते क़ी टोकरी से ढक कर जाने को तैयार हो गयी. पिताजी ने भी खाना नहीं खाया. हम दोनों भाई खाते रहे. पिताजी वही पर गीली ज़मीन पर लेट गये. हम दोनों भाई भी जमुहाई लेते हुए उसी छप्पर के टूटे हिस्से के पुआल पर लेट कर खेलते हुए सो गये. ”
हे श्रेष्ठ साधो ! दिन गुजरते गये. हम बड़े होते गये. माँ एवं पिता क़ी उम्र कम होती गयी. अब मै भी पिताजी के साथ काम पर जाने लगा था. लेकिन अभी उतना अभ्यास नहीं था. इसलिए जल्दी थक जाता था. उस समय मै सोचता था कि माँ तों दिन तों अलग, रात में भी काम करती रहती है. पता नहीं खाना भी खाती है या नहीं. फिर भी नहीं थकती है. हम कैसे थक जाते है? आज मुझे पता चलता है कि माँ के पास अनेक अप्रमेय शक्तियों का भण्डार था. उसके पास करुना, दया, ममता, स्नेह, वात्सल्य, त्याग एवं प्रेम नामक अनमोल एवं अद्वितीय शक्तियां थीं. जो उसकी हड्डियों को कभी ज़र्ज़र होने ही नहीं देती थी. और आज जब मै युवावस्था में आ पहुंचा हूँ तों पता चला है कि यह माँ क़ी ही अखंड सहन शक्ति है जो संतान प्राप्ति के दिव्य आह्लाद को संवरण करते हुए एक शिशु को भ्रूणावस्था से लेकर जन्म तक अपने उदर में ह़र आपदा, विपदा एवं दूषण से छिपाए ढोते रहती है.
अभी मेरा छोटा भाई एक सेठ क़ी दुकान पर नौकरी लगा. यद्यपि मेरे चाचा ने ज़मीदार साहब के कान भरे थे कि मेरे पिताजी के साथ मेरे छोटे भाई को भी ड्योढी क़ी सेवा में रख लिया जाय, किन्तु उसकी जगह मैंने जाना स्वीकार कर लिया. और अपने छोटे भाई को ज़मीदार घराने से दूर ही रखा. महीने के बीस बाईस रुपये वह बचा लेता था. कुछ पैसा जोड़ कर हमने दो कमरों का एक खपरैल का घर बना लिया था.  मेरी माँ एवं मेरे पिताजी दोनों अब चलने फिरने से लाचार हो चुके थे. अभी हम खा पी कर सुखी थे. मै घर का खाना बनाता था. सच मानिए हम बहुत खुश थे. क़र्ज़ बहुत था. ढेर सारा क़र्ज़ ज़मीदार का तों था ही, कुछ रुपये मौसी के यहाँ से भी लेना पडा था. यद्यपि बचता कुछ नहीं था. ह़र एक साल हम केवल ब्याज ही चुकाते रह जाते थे. किन्तु फिर भी खुश थे. एक दिन मेरी शादी के लिये चाचा के ससुराल से एक आदमी को लेकर कुछ लोग आये. माँ तों इतनी उतावली थे कि उसने आव देखा न ताव, बस सीधे शादी क़ी हाँ कर दी. मै एकाएक माँ से कुछ नहीं कह सकता था. उसके कोमल हृदय को ठेस पहुँचती. इसलिये मै दो एक दिन चुप चाप ही रहा. माँ के भावो को परखता रहा. किन्तु माँ क़ी तों खुशी सातवें आसमान पर थी. पर मेरे होश काफूर हो गये थे. कारण यह था कि मै देख रहा था कि अभी धीरे धीरे कर के हम किसी तरह थोड़ी बहुत उधार क़ी खुशी हासिल करने में सफल हुए थे. उधार शब्द का प्रयोग मैंने बहुत ही वाजिब तरीके से किया है. सब कुछ उधार ही तों था. प्रतिवर्ष लिये गये क़र्ज़ का ब्याज भर ही हम दे पाते थे. वह भी ब्याज पूरा नहीं हो पाता था. अब यदि नयी दुल्हन आयेगी. तों उसके सजावट, श्रृंगार, खान पान, रहन सहन आदि में और ज़्यादा क़र्ज़ क़ी ज़रुरत पड़ेगी. फिर छोटे छोटे लडके होगें. और जब छोटे बच्चो क़ी याद आती है ति कलेजा कांप जाता है. पुरानी भुतही यादें चिग्घाड़ मारना शुरू कर देती है. और मुझे अपनी एवं अपने छोटे भाई क़ी बचपन क़ी याद आ जाती है. न बाबा ना. किसी तरह तों हम इस ज़हरीले वक़्त एवं मुशीबत से छुटकारा पाये है. लेकिन माँ का क्या कहें? भय एवं बेबसी से मेरे रोंगटे खड़े हो रहे है. लेकिन माँ क़ी देखें-

    पाकल बांस के दऊरिया मौऊरिया हीरा मोंती लागल हो

    आरे रेशम के जामा जोड़ा झलके त गोड़े जूता लाल लाल हो.

    बईठल मडऊवा उजियार सुरुजवा के जोती झलके हो

    अरे देखी मुरुझई हे सब लोग त बबुआ बियाहन जइहे हो.

    क्रमशः ——

पण्डित आर. के. राय

    प्रयाग

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