कुंडली जीवन का दर्पण है. जिसमें भूत, भविष्य एवं वर्त्तमान के जिस रूप को इसके सामने करेगें, उसका प्रतिबिम्ब उसमें झलकने लगेगा. अब यह दूसरी बात है क़ि वह दर्पण कैसा है? टूटा है, गंदा है, अवतल है उत्तल है या समताल है, पारदर्शी है, या अर्ध पारदर्शी या अपारदर्शी. जैसा दर्पण है, वैसा ही प्रतिबिम्ब भी प्रदर्शित होगा. यदि मुंह पर मस्सा है तो साफ़ एवं अपारदर्शी समतल दर्पण में तो दिखाई देगा. किन्तु टूटे दर्पण की संधि में पड़ने पर यह छिप जाएगा.
कुंडली बरगद के उस बीज के सामान होता है जिसमें एक पूरे भरेपूरे विशाल बरगद के वृक्ष की रूप रेखा छिपी रहती है. यदि उस बीज से उस बरगद के वृक्ष के भविष्य के बारे में जानना हो तो बड़े ही आसानी से यह पता लगाया जा सकता है क़ि इस बीज से निकलने वाला विक्ष कितना टिकाऊ, नीरोग एवं आकृति का होगा. और यदि उस बीज के द्वारा ही कमी बेसी का पता चल जाता है तो उस बीज को विविध औषधियों, ऊर्वरक, निराई, गुड़ाई एवं देख रेख के द्वारा उसमें सुधार किया जा सकता है.
“ललाट पट्टे लिखिता विधात्रा षष्ठी दिने या अक्षर मालिका च. ताम जन्म पत्री प्रकटीम विधत्ते दीपो यथा वस्तु घनान्धकारे.”
कुंडली चक्र को बराबर बराबर 360 अंशों में बाँट कर तब उसका अध्ययन किया जाता है. यह धरती की तरह ही गोल गोल होता है. जिस तरह धरती के एक भाग से चलना शुरू करने पर अंत में फिर उसी स्थान पर आना पड़ता है. ठीक उसी प्रकार कुंडली में भी जब प्रथम लग्न भाव से चलना शुरू किया जाएगा तो फिर गणना करते अंत में फिर लग्न पर ही आना पड़ता है. जब कुंडली का अध्ययन इन 360 अंशो के आधार पर किया जाता है तो उसे कल्पतनु कहते है. जब इसे 3 अंश 20 कला के बराबर हिस्सों में अध्ययन किया जाता है अर्थात नक्षत्र के प्रति चरण के हिसाब से अध्ययन किया जाता है तो उसे वृकतनु कहते है. जब 13 अंश 20 कला के सामान भागो में बाँट कर अर्थात प्रति नक्षत्र के आधार पर अध्ययन किया जाता ही तो उसे महत्कारुक कहा जाता है. और जब इसे 30 अंशों के सामान भाग पर अध्ययन किया जाता है तो उसे लगनक कहते है.
जिस प्रकार शरीर के किसी अंग में कोई व्याधि होने पर वहां पर दर्द होने लगता है. या वहां से दूषित पदार्थ निकलने लगता है. ठीक उसी प्रकार कुंडली में उस सम्बंधित भाव में अशुभ ग्रहों की दृष्टि या युति बन जाती है. तथा यह पता लग जाता है क़ि शरीर का कौन सा भाग पीड़ित, दूषित या संक्रमण प्रभावित है. जैसे यदि कुंडली का पान्हावान भाव अशुभ अष्टमेश से युक्त है तथा अष्टमेश पापी द्वादशेश से युक्त है. तो संतान नहीं होगी. यदि ऐसी स्थिति में इस भाव पर कही से शुभ लग्नेश की दृष्टि है, तो संतान होगी किन्तु अपाहिज होगी. यदि ऐसी स्थिति में पांचवें भाव में पापी ही क्यों न हो किन्तु लग्नेश बैठा हो तो संतान भी होगी तथा वह बहुत तेजस्वी होगी. किन्तु संतान से माता पिता को पीड़ा होगी. यदि दशम भाव में षष्टेश नीच अष्टमेश के साथ बैठा हो तथा लग्न में पापी द्वादशेश बैठा हो तो व्यक्ति को कोई नौकरी या व्यवसाय नहीं मिलता है. या घर की सारी संपत्ति समाप्त हो जाती है. तथा वह व्यक्ति घर, गाँव एवं समाज से बहिष्कृत हो जाता है. किन्तु यदि किसी भी तरह लग्नेश एवं पंचमेश या नवमेश एवं दशमेश, या चतुर्थेश एवं पंचमेश की युति दशम भाव में हो तथा लग्नेश उच्च का हो तो व्यक्ति उच्चतम शासकीय सेवा प्राप्त करता है. तथा उसका व्यवसाय भी शिखर पर पहुँच जाता है. लक्ष्मी सदा उसके घर में विराज मान रहती है. यदि सातवें भाव में मंगल ही क्यों न हो किन्तु यदि नवमेश एवं लग्नेश लग्न में हो तो उस व्यक्ति का वैवाहिक जीवन बहुत सुखी होता है. यद्यपि सातवें घर में अन्गल रहने से कुंडली मांगलिक हो जाती है. ठीक इसी प्रकार यदि बारहवें भाव में मंगल हो तो कुंडली मांगलिक होती है. किन्तु यदि शुक्र एवं गुरु सातवें भाव में तथा सूर्य बुध दशम भाव में तो व्यक्ति सुखी मांगलिक जीवन बिताता है. अब यदि पता चल जाय क़ि किस कारण से कोई परेशानी है तो उसके निवारण का उपाय किया जा सकता है.
हालाकि कुछ अल्प एवं मंद बुद्धि वाले बड़े ही आसानी से अपनी थोथी दार्शनिक प्रतिभा का परिचय देते हुए कहते है क़ि जो विधि में लिखा होगा उसे कोई मिटा नहीं सकता है. इस लिए भाग्य एवं भगवान के भरोसे काम होने दो. अब ज़रा उनसे कोई पूछे क़ि यदि सब काम भगवान भरोसे ही होना होता तो भगवान हमें हाथ, पाँव, बुद्धि, विवेक, आँख, कान एवं नाक आदि क्यों देता? यह सत्य है क़ि विधि का विधान नहीं मिटाता है. लेकिन केवल विधान नहीं मिटता है. हमारा कर्म नहीं. क्योकि भाग्र्य का निर्माण कर्म के आधार पर होता है. कर्म कर के भाग्य को इकट्ठा करते है. तथा फिर उस भाग्य को भोगते है. जैसे गर्मी के दिनों में जब सूरज अपनी भयंकर उच्च ताप वाली किरणों को फैलाना शुरू करता है. आदमी जब उष्णता से बौखला जाता है. तब वह भाग कर या तो किसी पेड़ के नीचे आ जाता है. या फिर छतरी ओढ़ लेता है. या घर में घुस जाता है. या एयर कंडीशन में घुसता है. किन्तु उसके छतरी ओढ़ने या एयर कंडीशन में घुसने से सूरज तो डूबता नहीं है. सूरज अपनी चिल चिलाती गर्मी वैसे ही फैलाता रहता है. किन्तु चातरी ओढ़ने वाला गर्मी से राहत पा जाता है. उसी तरह दुर्भाग्य या सौभाग्य अपना पूरा प्रभाव दिखाते है. केवल व्यक्ति अपने कर्मो की छतरी ओढ़ कर उससे निजात पा जाता है. इसी तरह अच्छी भाग्य भी अपना पूरा प्रभाव दिखाना शुरू करती है. किन्तु व्यक्ति अपने दुष्कर्मो एवं भ्रष्ट बुद्धि के कारण उस अच्छी भाग्य का लाभ नहीं उठा पाता है. तथा जीवन भर अँधेरे में ही भटकता रह जाता है. पूजा, पाठ, यज्ञ, तप, हवन, मन्त्र, यंत्र आदि ही वे छतरी या एयर कंडीशन है जो सौभाग्य या दुर्भाग्य से मुक्ति देते है. जैसे कुंडली में यदि किसी भी कारण से केमद्रुम योग बन गया हो. तो “अलिसोमा” यंत्र को विधिवत पूजन कर के बसरे की मोती के साथ धारण करने से राहत मिल जाती है.
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