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कौन सा मंदिर सिद्धि देने वाला होता है.

वेद विज्ञान
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मंदिर एवं महत्व
विविध वैदिक, पौराणिक एवं अन्य ग्रंथो के अनुसार मंदिर या अन्य देव स्थलों में जाकर पूजन, अर्चन एवं ध्यान आदि क़ी प्रधानता बतायी गयी है. आखिर इन कुछ विशेष स्थान या भवन में ही यह सब काम करने को क्यों महत्व दिया गया? अपने अति उत्कृष्ट वैज्ञानिक उपस्करों, संयंत्रो एवं उपकरणों के द्वारा अंतरिक्ष के विविध तारो क़ी गति एवं चाल का सटीक विवरण देने वाले ये मुनि-ऋषि एवं महात्मा लोग ऐसा क्या देखे जो मंदिर आदि क़ी व्यवस्था लागू क़ी? किसी भी पूजा-पाठ या धार्मिक क्रिया कलापों के लिये किसी स्थान विशेष को ही क्यों सीमित किया?
जी हाँ, इसके पीछे बहुत बड़ा कारण है. यद्यपि आज का विज्ञान अभी इतना उन्नति नहीं कर पाया है कि इन सारे रहस्यों क़ी तह तक पहुँच पाये. किन्तु जो कुछ थोड़े बहुत तथ्य मिले है वे बड़े ही आश्चर्य जनक एवं चौंकाने वाले है. भगवान शिव के अंतिम स्वयंभू ज्योतिर्लिंग घुस्मेश्वर जो महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एलोरा क़ी विश्व प्रसिद्ध गुफाओं के पास लगभग एक किलोमीटर क़ी दूरी पर स्थित है, के प्रकाश में आने के बाद भगवान शिव के आदेशानुसार अब कोई भी उनका लिंग अवतार नहीं होने वाला था. यद्यपि झूठ का सहारा लेते हुए तथा जन साधारण को धोखा देकर उन्हें गुमराह करने के लिये अभी आज तक कही कही यह प्रचारित प्रसारित किया जाता रहता है कि अमुक जगह पर अमुक देवता ने अवतार लिया है. और उसके बाद आज तों इतने सम्प्रदाय, धर्म एवं मान्यताएं हो गयीं है जितने उनके मानने वाले भी नहीं है.
खैर किसी धर्म या सम्प्रदाय से मुझे कुछ नहीं लेना देना है. मुझे धार्मिक स्थलों क़ी महत्ता के बारे में देखना है. शरीर निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाने वाले तथा भौतिक क्रिया कलापों के द्वारा भावनाओं, सोच एवं विचार क़ी कल्पना को मूर्त रूप देने के लिये उसी के अनुरूप पर्यावरण एवं स्थिति निर्माण करने वाले पञ्चमहाभूतो – क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर के प्रतिबिम्ब स्वरुप स्वतंत्र आभा के विकाश, निखार एवं परिपोषण हेतु जो स्थूल साधन या विकल्प अभिधृत हुए उनके तीन रूप हुए-यंत्र, मन्त्र एवं तंत्र. ये तीनो विकल्प प्रत्येक महाभूत में पाये जाते है. जैसे उदाहरण स्वरुप क्षिति या पृथ्वी. पृथ्वी का प्रधान गुण है-रस. पांचो महाभूतो के पांच गुण है- शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गंध. धरती का प्रधान गुण है रस. रस में तीनो विकल्प पाये जाते है-यंत्र, मन्त्र एवं तंत्र. रस क़ी अनुभूति जिस अँग से होती है उसे रसना या दूसरे शब्दों में जीभ कहते है. जीभ के अग्र, पश्च एवं मध्य विभाग से तीन प्रारूप बने है जिन्हें स्वर, व्यंजन एवं मात्रा के नाम से जाना जाता है. रस के इन्ही गुणों को ध्यान में रखते हुए संत शिरोमणि गोस्वामी श्रीराम भक्त तुलसी दास ने लिखा है कि-
“तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चाहू और. वशीकरण इक मन्त्र है तजि दे वचन कठोर.”
अब हम मुख्य विषय पर आते है. इन्ही पांचो महाभूतो के स्वतंत्र स्थूल रूप को जन साधारण तक पहुंचा कर तथा उन्हें लाभान्वित कराने क़ी दृष्टि से जो स्वरुप प्रकाश में आया उन्हें देव स्थल का नाम दिया गया. जिसे मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर आदि कहते है. इन पञ्च महाभूतो को अलग अलग प्रकार से स्वतंत्र रूप से मानने वाले – गाणपत्य (गणपति उपासक), शाक्त (शक्ति या दुर्गा उपासक), शैव (शिव उपासक), भागवत (विष्णु उपासक) एवं कापालिक (भैरव आदि उपासक). अभी हम एक महाभूत को लेकर चलते है. शाक्त में तीनो प्रधान शक्तियां- महालक्ष्मी, महाकाली एवं महासरस्वती, (यंत्र, मन्त्र एवं तंत्र स्वरुप) आते है. माता वैष्णव देवी पीठ इसका प्रधान उदाहरण है.
शाक्त या देवी मंदिर वही सिद्ध साधना स्थल होता है जो इन तीन आधारों पर आधारित हो. अर्थात मध्य का हिस्सा उभरा हुआ त्रिस्फ़टिक आकार का तथा परावर्तक सतह का हो. इसके दोनों अन्य हिस्से चाहे आगे वाला या पीछे वाला कोई एक अर्धगोलाकार तथा बीच वाले को आवृत्त करते हुए होना चाहिए. तथा अंतिम हिस्सा केतु या टोपी या मुकुट के रूप का होना चाहिए. यह आकृति मंदिर के नींव से शुरू होकर चोटी के त्रिशूल या मुकुट तक जाना चाहिए. इस प्रकार किसी भी शाक्त या देवी मंदिर में जब तक ये तीन-तीन के विभाग में नौ उभार न हो वह देवी मंदिर सिद्ध साधना स्थल नहीं हो सकता है. वैसे तों मंदिर एक मंदिर ही होता है. साफ़ सुथरा एवं सुसज्जित स्थान सदा ही मन मोहक होता है. और एक मंदिर को ऐसा अवश्य होना चाहिए. इसीलिए कहा गया है कि घर को मंदिर क़ी तरह साफ़ सुथरा एवं सजा कर रखना चाहिए. किन्तु मंदिर का मुख्य उद्देश्य जो सिद्धि एवं साधना है वह इस घर रूपी मंदिर से सिद्ध नहीं हो सकता है. घर रूपी मंदिर से सांसारिक एवं भौतिक क्रिया कलापों क़ी तों सिद्धि क़ी जा सकती है किन्तु जो पारलौकिक या पराभौतिक सिद्धियाँ है वह तों एक निश्चित आकार प्रकार के निर्माण के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है. जैसे जिस घर क़ी दीवार मोटी होगा तथा छत ऊंची होगी उस घर में गर्मी बहुत कम लगेगी. अपेक्षाकृत उस घर के जिसमें दीवार पतली एवं छत बिल्कुल नीची होगी. ठीक उसी तरह से तीस तीस अंश के कोण पर उभार लेकर तथा पूर्वी क्षितिज से मुकुट एवं आधार का उन्नयन एवं अवनयन कोण समबाहु त्रिभुज का निर्माण करे. किन्तु मुकुट से आधार पर बनने वाला त्रिभुज मंदिर क़ी बाहरी दीवारों से समकोण त्रिभुज क़ी रचना करे तों मध्यवर्ती मुकुट का उभार जो आपाती किरण आधार पर डालेगा वह सीधे ब्रह्मरंध्र (Centrifugal Armature) यदि उसके आपतन क्षेत्र में है तों उसे अनावृत्त कर देता है. और इसी रंध्र से प्रसृत होने वाली किरण अंतरिक्ष में घूमना शुरू कर देती है. जिसकी डोर प्रचेतस – एक किरण के रूप में अर्धचेतन अवस्था में उप मस्तिष्क से बंधी रहती है.
इस प्रकार शक्ति मंदिर इन त्रेधा आधारों पर होना चाहिए. तभी शक्ति साधना का उद्देश्य पूर्णता को प्राप्त हो सकता है. मंदिर के पृष्ठ भाग का उभार आधार से लेकर शीर्ष तक तीन कोनो पर चापाकृति में, सम्मुख भाग का उभार आधार से लेकर शीर्ष तक सपाट किन्तु पृष्ठ भाग के आधे क्षेत्रफल का तथा शेष दोनों भागो का उभार शीर्ष से आधार तक परस्पर तीस अंश के कोण पर एक दूसरे से मिला हुआ होना चाहिए.
किन्तु यदि हम वैज्ञानिक विश्लेषण करें तों पृष्ठ एवं अग्र भाग को छोड़ कर शेष दोनों भागो को आधार से लेकर शीर्ष तक यदि आपतन कोण तीस अंश कर देते है तों किरणे परस्पर आघात प्रतिघात से शून्य या सुषुप्त अवस्था में बिना किसी आवेश (चार्ज) के हो जायेगीं. तथा उन किरणों का वांछित एवं अनुकूल परिणाम नहीं मिल पायेगा. या दूसरे शब्दों में उन किरणों का हमारे शरीर के किसी भी अवयव से कोई भौतिक या रासायनिक संयोग स्थापित नहीं हो पायेगा.
तामिल नाडू के तंजौर में राज राज चोल द्वारा निर्मित शिव मंदिर है. बहुत ही विशाल काय एवं आधार से लेकर शीर्ष तक 60 अंश के आपतन कोण पर दोनों भागो क़ी दीवारें परस्पर मिली है. इस मंदिर क़ी ऊंचाई इतना ज्यादा होने के बावजूद भी इसकी छाया धरती पर नहीं पड़ती. चाहे सूरज कितना भी चमकते हुए चाहे किसी भी दिशा में क्यों न जाए. किन्तु इसके प्राचीन मंदिर-वास्तु को दूषित कर दिया गया है. कारण यह है कि इसके आगे लगभग 100 फीट का लंबा बरामदा बना दिया गया है. जिससे उसकी दाहिने एवं बाएं भाग क़ी दीवारें आपतन कोण से बहुत दूर जा चुकी है. परिणाम स्वरुप उस मंदिर के निर्माण क़ी परिकल्पना या उद्देश्य अब भ्रंश हो चुका है. अब वह मंदिर तों है, किन्तु उद्देश्य पूर्ण मंदिर नहीं रह गया है.
सूरत में पारसी सम्प्रदाय का एक मंदिर है जिसे अग्नि मंदिर के नाम से जाना जाता है. इस सम्प्रदाय क़ी मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर में गैर पारसी सम्प्रदाय का प्रवेश वर्जित है. इस मंदिर में अग्नि क़ी पूजा होती है. यह अग्नि कभी बुझती नहीं है. इस मंदिर के चार दरवाजे है. किन्तु प्रधान रूप से एक ही दरवाजे का ज्यादा उपयोग किया जाता है. जिस तरफ मुख्य दरवाजा है, उसके ठीक सामने अन्दर क़ी दीवार मंदिर क़ी पूरी चौड़ाई के बराबर ऊंचाई पर जाकर मेहरावदार हुई है. तथा अग्नि जलाने का पात्र उस दीवार से उतनी ही दूरी पर रखा जाता है जितनी लम्बाई प्रधान पुजारी क़ी होती है. अर्थात यदि पुजारी बदलता है तों दूसरा पुजारी अपनी ऊंचाई के बराबर उस दीवार से दूरी पर वह अग्निपात्र रखा जाता है.
इस प्रकार मंदिर के निर्माण क़ी कल्पना के पीछे एक निश्चित सिद्धांत एवं ठोस मान्यता है. किन्तु अब या लगभग मध्य काल से जितने भी मंदिर बन रहे है, वे सब प्रायः देव स्थल तों बन रहे है. किन्तु उनका पौराणिक या शास्त्रीय सिद्धांत नहीं है. बस सीधे उठाया और एक भवन बनवाकर उसमें कोई एक मूर्ति बिठा दी. मंदिर बन कर तैयार हो गया. जितने भी पौराणिक काल के मंदिर है वे सब सिद्ध है. वहां साधना फलीभूत होती है. क्योकि उनके निर्माण में देव स्थान से सम्बंधित वास्तु कला का प्रयोग हुआ है. जहाँ पर संवेदना वाही तंतुओ एवं इन्द्रियों को नियंत्रित करने वाले विविध किरण एवं रसायन उत्सर्जित होते रहते है.
उदाहरण के लिये वडोदरा में बहुत ही प्राचीन विश्वनाथ मंदिर है. किन्तु उसके निर्माण में देवस्थल निर्माण हेतु आवश्यक शर्तो का पालन नहीं किया गया है. इसलिए यह एक मंदिर तों अवश्य है. किन्तु साधना का स्थल नहीं बन पाया है. किन्तु उसी वडोदरा में एक ईसाई सैनिक अधिकारी द्वारा पुराने शिव क़ी प्रतिमा को वर्ष 1965 में एक विशेष आकार प्रकार के भवन का आवरण दे दिया तों आज वह एक अति विचित्र साधना स्थल बन गया है. और उच्च शिक्षा प्राप्त लोग चाहे वे भारतवासी हो या विदेशी, हिन्दू हो या गैरहिन्दू, सभी वहां आकर बैठते एवं शान्ति का आनंद उठाते है.
वाराणसी में बीएचयूं के प्रांगण में एक अति विशाल विश्वनाथ मंदिर का निर्माण हुआ है. जिसे नए विश्वनाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है. इसके निर्माण में अरबो-खरबो रुपये खर्च हो गये है. आज भी वहां उसके आस-पास काम चल ही रहा है. किन्तु सौंदर्य क़ी दृष्टि से तों बहुत अच्छा है. साफ़ सफाई एवं सजावट क़ी दृष्टि से बहुत अच्छा है. परन्तु मंदिर के लए आवश्यक वास्तु सिद्धांत का पालन नहीं किया गया है. इसीलिए उससे कम सुन्दर, संकरी जगह पर स्थित दशाश्वमेध घाट पर बना पुराना वाला विश्वनाथ मंदिर सिद्धि एवं साधना क़ी दृष्टि से उचित एवं प्रसिद्ध है.
मंदिर नया हो या पुराना, यदि उसमें उसके निर्माण के आवश्यक सिद्धांत का पालन नहीं किया गया है तों वह एक सुन्दर भवन तों हो सकता है. किन्तु साधना या सिद्धि का स्थल नहीं हो सकता है.
वास्तु सिद्धांत के तकनीकी आधार पर निर्मित मंदिर एक अनोखी अनुभूति, प्रेरणा एवं भाव उत्पन्न करते है. इसे सहज ही अनुभव किया जा सकता है. अनेक आतंरिक गुत्थियो का निराकरण हो जाता है. मानस पटल पर निरर्थक रूप से गूंजने वाली हानिकारक चिंता, भय, दबाव, क्लेश, बंधन, शोक आदि का निश्चित रूप से विनाश हो जाता है.
मुझे जहाँ तक याद है, इसका बहुत ही अच्छा विवरण दक्षिण भारतीय ग्रन्थ “वास्तु लिंगम” तथा चीन देश का “यांग हूँ झ्वेंग” के हिंदी एवं अंग्रेजी रूपांतर में प्राप्त किया जा सकता है. जम्मू विश्व विद्यालय के पुस्तकालय में भी इस प्रकार क़ी एक पुस्तक मैंने पढी थी. जिसमें इसका ठोस एवं आधार भूत कारण स्पष्ट किया गया था.
पण्डित आर. के. राय

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