धन एवं व्यवसाय के हानि के योग : शनि एवं गुरु यद्यपि प्रत्येक ग्रह अपनी स्थिति एवं अवस्था के अनुसार जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करता है. किन्तु कुछ एक ग्रह ऐसे होते है जो स्थाई रूप से जीवन के किसी विशेष पहलू को प्रभावित करते है. इनमें शनि, मंगल, गुरु एवं केतु प्रमुख है. हम यहाँ धन एवं संपदा तथा व्यवसाय से सम्बंधित तथ्यों पर विचार करेगें. ज्योतिष में यह एक सामान्य नियम है कि शत्रु के घर या भाव को प्रत्येक ग्रह बिगाड़ते है. यह एक सामान्य एवं स्थूल नियम है. नीचे उदाहरण के लिये एक कुंडली दी गयी है. इसमें लग्न एवं राशि दोनों सिंह है. सिंह राशि का स्वामी सूर्य होता है. सिंह के स्वामी सूर्य के गुरु, बुध, चन्द्रमा एवं मंगल स्वाभाविक मित्र होते है. इसके अलावा सारे ग्रह शत्रु होते है. प्रस्तुत कुंडली में धन, वाणी एवं परिवार के घर में शनि एवं गुरु बैठे है. कुछ एक भाव कुंडली में सदा ही अशुभ फल देने वाले होते है. जैसे छठा, आठवां एवं बारहवां. इन भावो के स्वामी भी जहाँ बैठते है उस भाव को बिगाड़ देते है. प्रस्तुत कुंडली में छठे भाव का स्वामी शनि, आठवें भाव का स्वामी गुरु एवं बारहवें भाव का स्वामी चन्द्रमा है. शनि एवं गुरु धन एवं परिवार भाव में बैठे है. तथा चन्द्रमा लग्न या शरीर, यश एवं प्रतिष्ठा भाव में बैठा है. इस प्रकार ये तीनो ग्रह अशुभ फल दे रहे है. इसके अलावा कुंडली में प्रत्याभाषी कालसर्प योग भी बना हुआ है. अभी हम इसका परिणाम देखते है. गुरु चूंकि दो भावो का स्वामी है. पहले उसकी धनु राशि पड़ रही है. अतः जीवन में पहले इस व्यक्ति को गुरु का पांचवें भाव का फल मिलेगा. पांचवां भाव विद्या, यश एवं प्रतिष्ठा तथा संतान का है. अतः जन्म के बाद चाहे किसी भी ग्रह क़ी दशा महादशा चल रही हो, गुरु क़ी अन्तर्दशा में विद्या एवं अध्ययन से सम्बंधित सफलता खूब मिलेगी. इसका एक कारण और भी पडेगा कि इस पांचवें भाव में अति शुभ केंद्र दशवें भाव का स्वामी स्वाभाविक शुभ ग्रह शुक्र बैठा है. अतः विद्या एवं बुद्धि का खूब लाभ मिलेगा. हम जानते है कि विंशोत्तरी दशा एक सौ बीस साल क़ी होती है. कुंडली में केंद्र के चारो घरो को बराबर बांटने पर एक घर को तीस वर्ष मिलते है. इस प्रकार इस व्यक्ति को गुरु के इस शुभ परिणाम क़ी प्राप्ति मात्र तीस वर्ष क़ी अवस्था तक ही होगी. उसके बाद गुरु अपने अगले घर का फल देगा. अर्थात आठवें घर का अशुभ फल देना शुरू करेगा. आठवां घर हानि, अपमान, दुर्घटना आदि देता है. अतः तीस वर्ष क़ी अवस्था के बाद धन क्षय तथा अपमान आदि का योग बन जाता है. यही स्थिति शनि क़ी भी है. शनि भी पहले छठे भाव का फल देगा. किन्तु यहाँ एक बात ध्यान में रखना होगा कि अशुभ भाव का स्वामी यदि पाप ग्रह है तों स्वाभाविक रूप से शुभ ग्रह के साथ हो जाने पर वह उसी शुभ ग्रह का फल देना शुरू कर देता है. यही कारण है कि इस व्यक्ति का साढ़े साती शनि समाप्त हो जाने के बाद भी शनि कोई शुभ परिणाम नहीं दे पा रहा है. इसके अलावा एक अशुभ योग “दीन योग” भी बन रहा है. कारण यह है कि धन एवं वाणी भाव का स्वामी बुध अशुभ भाव एवं अशुभ राशि शनि के घर मकर में बैठा है. तथा शनि जो शत्रु तथा रोग आदि भाव का स्वामी है वह बुध के घर में बैठा है. इस प्रकार इस अशुभ स्थान परिवर्तन से “दीन योग” बन रहा है. अशुभता में इसका भी बहुत बड़ा योग दान है. एक स्थूल एवं सामान्य नियम है कि अकेले चन्द्रमा लग्न में शुभ फल नहीं देता है. यह सिर दर्द एवं निरर्थक चिंता आदि देता है. उसमें भी यह बारहवें अशुभ भाव का स्वामी है. अतः इसका अशुभ फल मिलेगा ही. चूंकि यह व्यय भाव का स्वामी है. अतः अनावश्यक खर्च से धन का बहुत नुकसान कराएगा. इस पर भी पाप एवं क्रूर ग्रह मंगल क़ी पूर्ण दृष्टि है. अतः चन्द्रमा का अशुभ परिणाम ही मिलेगा. किन्तु चाथे भाव में सूर्य एवं मंगल जैसे अति क्रूर ग्रह बैठे है. अतः रोग तथा शत्रुओं का अनायास ही अंत होता चला जाएगा. इसके अलावा चूंकि मंगल अपनी उच्च राशि में बैठा है. अतः यदि थोड़ी सावधानी से निराकरण करते हुए काम लिया जाय तों इस अकेले मंगल के द्वारा समस्त विपरीत परिष्ठितियो से छुट कारा पाया जा सकता है. कारण यह है कि इस मंगल पर गुरु क़ी पूर्ण दृष्टि है. मंगल स्वयं उच्चस्थ है. तथा अपने मित्र ग्रहों-सूर्य तथा बुध से युक्त है. अतः धन संपदा का प्रचुर मात्रा में संग्रह हो सकता है. इसके अलावा एक तथ्य और ध्यान में रखना चाहिए कि गुरु कोण एवं शनि केंद्र का स्वामी है. इस प्रकार विष्णु एवं लक्ष्मी का संयोग बना हुआ है. वह भी धन एवं परिवार भाव में. तथा किसी केंद्र भाव का स्वामी यदि स्वाभाविक रूप से पाप ग्रह है तों वह शुभ फल देने वाला हो जाता है. इस प्रकार यदि यत्न एवं चतुराई के साथ ग्रहों क़ी अनुकूलता प्राप्त क़ी जाय तों भरपूर धन संपदा एकत्र हो सकती है. क्योकि बहुत ही ज़टिल स्थिति में यह योग प्राप्त होगा. इसे ही अंग्रेजी में कहा गया है कि- Just make a narrow escape and enjoy the advantages. शास्त्रों में कहा गया है कि – सुरेज्यमंदो चक्षुश्चरति यद् श्रीहरि नरेन्द्रो भावेश शुभताम. प्रकटीम करोति वैश्रवणो च ज्येष्ठो श्रमेण लभते खलु नातिचित्रम. अर्थात लक्ष्मी एवं हरि भाव के स्वामी होकर यदि देव पूज्य या गुरु तथा मंद या शनि चक्षु या दूसरे भाव में बैठे हो तों थोड़े से चतुराई पूर्ण श्रम से वैश्रवण ऋषि के ज्येष्ठ पुत्र अर्थात कुबेर अपनी संपदा उसके अधिकार में दे देता है. यहाँ पर चतुराई का तात्पर्य अशुभ भाव में बैठा राहू एवं शुभ भाव में बैठा अशुभ चन्द्रमा दोनों यदि अनुकूल हो जाय. इसके लिये एक मात्र उपाय है “तारण” नाम के विष्णुपाद नग को धारण करना. तथा “मंजरी” नाम वाली लघुत्तमा रुद्राक्ष माला पहनना. प्रायः इसका बहुत ही अच्छा एवं अनुकूल परिणाम देखने को मिला है. इसके अलावा यंत्र-तंत्र में कोई और विकल्प नहीं है. किन्तु पूजा एवं यज्ञ का प्रभाव अति विचित्र एवं सशक्त होता है. उसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता.
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