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केतु आकस्मिक परिवर्तन देता है.

वेद विज्ञान
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केतु आकस्मिक परिवर्तन देता है.

केतु सौर ग्रह का सबसे विचित्र ग्रह है. तथा इसके क्रिया कलाप का आंकलन भी बहुत ही मुश्किल होता है. वैसे तों यह एक सामान्य नियम है कि राहू एवं केतु दोनों सदा ही वक्री या टेढ़ी गति से चलते है. विज्ञानं भी इसे सिद्ध कर चुका है. कारण यह है कि इन दोनों ग्रहों राहू एवं केतु का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है. पौराणिक मतानुसार कहावत आती है कि समुद्र मंथन के समय भगवान विष्णु ने एक राक्षस को मार डाला था. किन्तु यह राक्षस अमृत पान कर चुका था. इसलिए यह मर नहीं सका. तथा इसके दोनों हिस्से जीवित ही रह गये. यह कथा श्वेत वाराह कल्प क़ी है. किन्तु जब अभी कृष्ण वाराह कल्प अग्रसर था तब सूर्य पुत्र शनि ने जो स्वयं छाया के गर्भ से जन्म लिये थे, अपनी माता छाया क़ी सखी निशा क़ी पुत्री सिंहिका से विवाह किये. सिंहिका से जो दो जुड़वां पुत्र हुए वे आभाषी कहलाये. आभाषी को ही दूसरे शब्दों में छाया कहते है. ये ही अभिछाया एवं प्रतिछाया के नाम से प्रसिद्ध हुए. जिन्हें आज हम राहू एवं केतु के नाम से जानते है. विज्ञान कहता है कि ये दोनों अवश्य ही छाया है. इसीलिए जब कोई भी ग्रह जो सूर्य के सामने होता है उसके पृष्ठ भाग क़ी छाया यदि धरती पर पड़ती है तों उसे राहू कहा गया है. तथा उसके पुरो भाग का अपरावार्तक सतह केतु के नाम से जाना जाता है. इसीलिए यह सदा वक्री अर्थात टेढ़े ही चलते है. क्योकि छाया तों उलटा चलती ही है. जैसे हम बस या ट्रेन से चलते है तों खिड़की से बाहर के पेड़ पौधे या घर गाँव आदि पीछे विपरीत दिशा में भागते नज़र आते है. किन्तु यह केवल आभाषी होता है. वे भागते नहीं है. बल्कि वास्तव में वे स्थिर ही होते है. पुराणों में कहा गया है कि राक्षसी क़ी संतान होने के कारण ये दोनों ग्रह देवताओं के विपरीत चलते है. अस्तु जो भी हो.
कुंडली पृथ्वी का छोटा रूप है. किसी निश्चित जन्म समय पर पृथ्वी के किस हिस्से में अंतरिक्ष के किस ग्रह क़ी कितनी किरण पड़ रही थी, इसे ही पृथ्वी के लघु रूप कुंडली में दिखाया जाता है. कुंडली का लग्न भाव उत्तर दिशा होता है. और इस प्रकार लग्न से आगे चलते हुए अग्नि, वायव्य आदि कोण के क्रम से आठ भावो तक जाता है.
हमें मालूम है कि दिशाएँ सिर्फ दश- चार कोण, चार दिशा एवं एक ऊपर तथा दूसरा नीचे, ही होती है. किन्तु यह हमारा भ्रम है. दिशाएँ उनचास होती है. इसीलिए तुलसी दास जी ने राम चरितमानस में लिखा है कि जब हनुमान जी ने लंका को जलाना शुरू किया तों उनचासो पवन बहने लगे थे.
“हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास.
अट्टहास करि गरजा कपि आगि बढ़ी लगी आकाश.—–(सुन्दर काण्ड)
महाद्वीप सात होते है. इन पवनो को सातो महाद्वीपों में समान विभाजन से एक महाद्वीप को सिर्फ सात ही दिशाएँ मिलती है. इसका विशेष विवरण फिर कभी अगले लेखो में दूंगा. अभी विस्तार भय एवं प्रसंग विचलन के भय से ध्यान मुख्य विषय पर ही केन्द्रित कर रहा हूँ. ये ही सात दिशाएँ कुंडली में वर्णित होती है. सात ऊपर एवं सात नीचे. इस प्रकार कुल चौदह भाव होना चाहिए. किन्तु अब सवाल उठाता है कि कुंडली में तों मात्र बारह ही भाव होते है. ये चौदह कहाँ से हो गये? कथन एवं संदेह बिल्कुल सत्य है. इसका निराकरण यह है कि जो हिस्सा पृथ्वी के नीचे पड़ता है वह चिपटा होने के कारण आधा पृथ्वी के इस तरफ तथा आधा पृथ्वी के दूसरी तरफ हो जाता है. किन्तु रहता तों वह एक ही हिस्सा है. इसी प्रकार पृथ्वी के ऊपर के हिस्से का भी होता है. इस प्रकार भाव चौदह न होकर मात्र बारह ही सिद्ध होते है. शास्त्र में इसे इस प्रकार बताया गया है कि जिस भाव से गणना क़ी जाती है उसे भी लेकर आगे क़ी गणना क़ी जाती है. इसीलिए ज्योतिष में गणना एक से नहीं बल्कि शून्य से क़ी जाती है. अर्थात जब भाव गणना होती है तब पहले एक से लेकर सातवें भाव तक कुंडली का आधा भाग होता है. और फिर सातवें से लेकर बारहवें तक दूसरा हिस्सा होता है. अर्थात सातवाँ भाव दोनों बार गणना में आजाता है. इस प्रकार चौदह भाव होने के बावजूद भी प्रत्यक्ष रूप से भाव बारह ही होते है. जिस प्रकार नक्षत्र वास्तव में अट्ठाईस होते है. जिसमें अभिजित क़ी गणना नहीं होती है. तथा व्यवहार में मात्र सत्ताईस ही आते है. अभिजित नक्षत्र को छोड़ दिया जाता है. इस प्रकार कुंडली में मात्र बारह ही भाव सिद्ध होते है.
इन्ही दिशाओं के क्रम को कुंडली में स्थिर कर के उन उन हिस्सों में ग्रहों को दर्शा दिया जाता है. चार दिशाएँ, चार कोण, एक ऊपर, एक नीचे, एक नीचे का तिर्यक तथा दूसरा ऊपर का तिर्यक. यह तिर्यक दिशा-भाव पृथ्वी के टेढ़े या अपने अक्ष पर झुकी होने के कारण होता है. इस प्रकार बारह भाव होते है. इनमें तिर्यक भाव टेढ़े होने के कारण हमेशा विपरीत फल देने वाले होते है. इसे ही ज्योतिष या कुंडली में आठवां एवं बारहवां भाव कहा गया है. अपने अक्ष पर पृथ्वी के झुके होने के कारण ही प्रतिवर्ष अयनांश 54 विकला विचलित हो जाता है.
Inline image 2 इस ऊपर के चित्र से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पृथ्वी का ऊपरी हिस्सा चिपटा एवं झुका है. इसीलिए दोनों चिपटे हिस्से दो अतिरिक्त दिशाओं का रूप लेलेते है. और इस प्रकार चार मुख्य दिशाएँ, चार कोण, एक ऊपर, एक नीचे और दो झुकाने के कारण बनी दिशाएँ- ये सब मिलकर बारह दिशाएँ हो जाती है. इन्हें ही कुंडली में बारह भावो के रूप में दर्शाया जाता है. तिर्यक या झुके होने के धरती का झुका चित्रकारण ये अतिरिक्त दोनों दिशाएं केवल गणना के लिये ही है. वास्तव में ये कभी अच्छा फल नहीं देती है. अब हम केतु क़ी बात करते है.
जैसा कि ऊपर के वर्णन से स्पष्ट है, केतु सदा परावर्तित प्रकाश क़ी छाया का ऊपरी भाग ही होता है. इस लिये यह न तों अशुभ होता है और न तों शुभ. केतु का अर्थ मुकुट या ध्वज होता है. यह इसी आधार पर कहा गया है. क्योकि यह ऊपरी भाग ही होता है. इसके विपरीत राहू छाया का निचला भाग एवं रंग में स्याह होता है. जब कि केतु रंग में चितकबरा होता है. मुकुट में भी कई रंग के हीरे मोंती आदि लग कर उसे चितकबरा बना देते है.
अभी केतु जिस भाव में बैठेगा और यदि किसी अन्य ग्रह के प्रभाव में नहीं रहेगा तों वह उस राशि के अनुसार प्रभाव देगा जिस राशि में बैठेगा. प्रस्तुत कुंडली में केतु दूसरे भाव में जो संचित धन, वाणी, कुटुंब का भाव है, उसमें बैठा है. इस पर चन्द्रमा क़ी समसप्तक दृष्टि है. तों देखें कि इसे लाटरी या गढ़ा धन अचानक मिलेगा. या घूस या रिश्वत का अकूत पैसा मिलेगा. किन्तु बारहवें भाव में मंगल – एक अग्निकारक ग्रह तथा उस पर शनि-एक परम पापी ग्रह क़ी पूर्ण दृष्टि, इसका सारा संचित धन एक झटके में स्वाहा कर देगें. अर्थात केतु के कारण झटके में धन मिलेगा. और मंगल के कारण एक झटके में ख़तम हो जाएगा. फिर भी चूंकि इस भाव का स्वामी सूर्य उच्च राशि का होकर परम केंद्र दशम भाव में बैठा है. तथा आमदनी के भाव में स्वयं उसी भाव का स्वामी बुध के साथ बैठा है. अतः सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद भी इसके पास अकूत धन संपदा होगी.  इसी प्रकार केतु जिस भाव में बैठेगा उस भाव का अचानक आश्चर्य चकित कर देने वाला फल देगा. जैसे यदि यह तीसरे भाव में होता तों इसके भय से शत्रु स्वयं पलायित हो जाते. किन्तु इसकी अकाल मृत्यु होती. प्रायः इस अवस्था में जब केतु तीसरे भाव में होता है तों ऐसी कुंडली जघन्य हत्यारों लुटेरो, तस्करों आदि क़ी देखी गयी है. किन्तु ध्यान रहे, यदि इस अवस्था में जब केतु तीसरे भाव में हो तथा उसी में बुध भी बैठ जाय तों वह व्यक्ति हत्यारा या पापकर्मी नहीं हो सकता. बल्कि निर्भीक एवं साहसी होता है.
केतु अचानक परिवर्तन देता है.

पण्डित आर. के. राय

Email-khojiduniya@gmail.com





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