Menu
blogid : 6000 postid : 1112

शरीर के रूप में कुंडली.

वेद विज्ञान
वेद विज्ञान
  • 497 Posts
  • 662 Comments

ज्ञान राशि के संचित कोष को साहित्य कहते है. और फिर जब उलटा चलते है, अर्थात ग्रंथो से वाक्य चुनते है. वाक्यों से विशेष शब्द का चयन करते है. ये ही शब्द मन्त्र हो जाते है. क्योकि ये ग्रंथो के चुने शब्द है जिनमें एक भरे पूरे साहित्य के समस्त वाक्य भरे पड़े है. और जब शब्दों में से गूढ़ वर्णों को चयनित करते है. तो वे ही अत्यंत लूक्ष्म स्वारित बीज मन्त्र कहलाते है. इस प्रकार एक मन्त्र या बीज मन्त्र विशाल रूप में साहित्य एवं सूक्ष्म रूप में मन्त्र कहलाता है. जैसे एक बरगद का बीज अत्यंत छोटा होता है. किन्तु मिट्टी, पानी एवं जलवायु आदि के मिलाने पर एक विशाल बरगद का वृक्ष तैयार हो जाता है. उसी प्रकार निरंतर अभ्यास से पूर्णतया सिद्ध एक मन्त्र अत्यंत विशाल, प्रभावी एवं आशा से भी बहुत बड़ा फल देने वाला हो जाता है.

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आकाश गंगाओं, आकाश गंगाओं को सौर मंडलों, सौर मंडलों को ग्रह एवं उपग्रह वर्गों एवं इन उपग्रहों आदि को जल, पृथ्वी आदि जीवन निवास के रूप में बांटा गया है. और इसी क्रम में पृथ्वी के अध्ययन के लिए ज्योतिष शास्त्र के फलित भाग को पृथ्वी के लघुरूप को शरीर में कल्पित कर विविध रेखाओं या राशियों के रूप में नामित किया गया है. उदाहरण के लिए जिस प्रकार पृथ्वी के दक्षिण वर्ती हिस्से को बिलकुल आक्सीजन या प्राणवायु हीन होने के कारण मृत्यु का कारण या यमराज पुरी कहा गया है. उसी प्रकार कुंडली में दक्षिण भाग या आठवें हिस्से को आयु एवं दुर्घटना के रूप वाले भाव के रूप में नामित किया गया है. दूसरे शब्दों में कुंडली का विस्तृत रूप पृथ्वी, पृथ्वी का विस्तृत रूप ग्रहमंडल, ग्रहमंडल का विस्तृत रूप सौरमंडल, सौरमंडल का विस्तृत रूप आकाशगंगा, आकाशगंगा का विस्तृत रूप ब्रह्माण्ड है.
इन ग्रहों के अध्ययन के लिए इन्हें छोटे छोटे भागो में बाँट कर अध्ययन किया जाता है. जैसे धरती को बारह बड़े एवं 27 मझोले तथा 360 छोटे टुकड़ो में बाँट दिया गया है. इन बारह भागो को वैदिक गणित में चाप, ज्या, वृत्त खंड आदि, ज्योतिष में राशियाँ तथा अंगरेजी में आर्क या आर्बिट आदि नामो से जाना जाता है. मझोले सत्ताईस भागो को नक्षत्र या अंगरेजी में सब स्टार्स कहा जाता है. तथा छोटे भागो को अंश या डिग्री के नाम से जाना जाता है. यह विभाग मात्र धरती के लिए ही नहीं बल्कि प्रत्येक ग्रह या नक्षत्र के लिए है जो ब्रह्माण्ड में उपस्थित है. इस प्रकार धरती पर तो बारह खंड या राशिया है ही, इसके अलावा बुध, गुरु, शुक्र मंगल आदि को भी ऐसे ही बारह भागो में बांटा गया है. धरता वालो के लिए धरती की राशि तो स्थाई है. किन्तु जो दूसरे ग्रहों पर राशिया है, वे सब तो धरती के लिए अस्थाई है. जैसे धरती के लिए मेष खंड स्थाई है. किन्तु धरती का मेष खंड गुरु के लिए अस्थाई है. क्योकि गुरु भी घूमता है. तथा धरती भी घूमती है. अतः धरती की रार्शियाँ धरती पर तो स्थाई है, किन्तु शेष ग्रहों के लिए यह दिशा बदलती रहती है. इसलिए धरती पर घटने वाली घटनाओं के लिए धरती की राशियों की गणना करनी चाहिए. किन्तु आकाशीय घटनाओं  जैसे सूर्य-चन्द्र ग्रहण, उल्कापात, बादल फटना, वर्षा आदि. किन्तु महामारी, बाढ़, भूकंप, नरसंहार, या विकाश-उन्नति आदि के लिए धरती की राशियों को ही व्यवहार में लाना चाहिए. आकाशीय वृत्त खंड से धरती के परिवर्तन का आंकलन सर्वथा अनुचित एवं अग्राह्य है. आकाशीय वृत्त खंड से सिर्फ ग्रहों के प्रभाव का आंकलन करना चाहिए. जैसे आकाश में सूर्य क्षितिज में मेष वृत्त में है. किन्तु उसका प्रकाश धरती के मिथुन खंड पर पड़ रहा है. तो पृथ्वी पर उसके प्रभाव की गणना मिथुन राशि से ली जानी चाहिए. किन्तु यदि बादल आदि आकाशीय लक्षणों का साधन करना हो तो सूर्य को मेष राशि में रखना पडेगा. यही ज्योतिष का मूल भूत सिद्धांत है. जिसका कठोरतम अनुशासन पाराशर, वाराह, भृगु एवं कालिदास ने दिया है. पंडित सीताराम झा ने इसका उल्लेख बड़े जोरदार शब्दों में किया है. यही कारण है क़ि आज इस श्रमसाध्य ज्योतिषीय गणना से जी चुराने वाले आचार्य सीधे पंचांग में प्रदर्शित ग्रहों को उसी भाव में रख कर कुंडली तैयार कर देते है. जो मूल भूत ज्योतिषीय सिद्धांत के सर्वथा विरुद्ध है. तथा तार्किक एवं गणितीय रूप से अशुद्ध भी है. अब आगे देखते है.
जो ग्रह सूर्य से जितने अंशो पर होता है उतना ही प्रकाश वह सूर्य से ग्रहण कर पाता है. अर्थात किसी भी राशि में गुरु क्यों न हो. या अपनी उच्च राशि कर्क में ही क्यों न हो यदि वह मात्र पांच अंशो में है तो वह किसी भी तरह बहुत अच्छा फल नहीं दे सकता है. किन्तु यदि इसके विपरीत यदि गुरु नीच राशि मकर में पांच अंशो में है तो निश्चित ही उत्तम फल देगा. और यदि इस प्रकार नीच में पांच अंशो में वक्री हो जाय तो इसके फल में और अधिक वृद्धि हो जाती है. जब क़ि तोता रटंत पाठ क्या पढ़ाया जाता है? कोई भी ग्रह अपने नीच में बहुत ही अशुभ फल देता है. और यदि इसी में वक्री हो जाय तो बहुत उत्कट अशुभ फल देने वाला हो जाता है. यह कथन शास्त्रीय गणित की मर्यादा केविपरीत है.
ज्योतिष एक अत्यंत विशाल अध्ययन क्षेत्र वाला विविध ठोस एवं प्रामाणिक आधार पर आधारित विज्ञानों का केंद्र एक महा विज्ञान है. इसमें शरीर विज्ञान (Human Anatomy), भूगर्भ विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, पदार्थ विज्ञान, स्थैत्य विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, जंतु विज्ञान, पर्यावरण विज्ञान, भूगोल विज्ञान, खगोल विज्ञान तथा समाज विज्ञान के अलावा आवश्यक रूप से गणित विज्ञान का सूक्ष्म अध्ययन नितांत आवश्यक है. यदि इनमें से किसी भी एक का ज्ञान नहीं है तो ज्योतिष महाविज्ञान का अध्ययन अधूरा है.
जैसे यदि पता नहीं है क़ि यूराल पर्वत से नील नदी के बीच का किसी निश्चित अक्षांश एवं देशांतर रेखाओं का मध्य क्षेदन विन्दु कहाँ है तो उस स्थान के बारे में कोई भी भविष्यवाणी कैसे की जा सकती है? इसके लिए वर्त्तमान भूगोल विज्ञान या पुराण वर्णित कूर्म प्रकरण का अध्ययन परम आवश्यक है. जिसका उल्लेख गागर में सागर भरने वाले आचार्य वराह मिहिर ने अपने वृहत्संहिता में विधिवत किया है. इस प्रकार ज्योतिष के बारे में कोई कहे, विशेषतया वर्त्तमान काल में, क़ि वह ज्योतिष का पारंगत विद्वान है, तो यह एक हास्यास्पद विषय ही होगा. तथापि अपनी कुछ एक यत्र तत्र से संकलित अवधारणा या बुद्धि के सहारे तथ्यों को यहाँ रखने का प्रयत्न कर रहा हूँ.
कोई भी ग्रह चाहे कितना भी शुभ क्यों न हो, यदि अशुभ भावो में चला जाता है तो उस भाव के लिए भले शुभ दे, किन्तु स्वयं अशुभ हो जाता है. तथा इस प्रकार वह जिस भाव का स्वामी होता है, उस भाव का फल अशुभ हो जाता है. नीचे जो चित्र दिया गया है, उसमें गुदा या लिंग भाव में या रंध्र भाव में गुरु चला जाय तो रोग आदि का तो निराकरण हो जाएगा. किन्तु गुरु यदि चौथे सुख भाव का स्वामी हुआ तो आजीवन दुखी रहना पडेगा.  इसी के आधार पर केन्द्राधिपति दोष की व्यवस्था की गयी है. अर्थात यदि शुभ ग्रह केंद्र भाव का स्वामी होगा तो वह अशुभ हो जाएगा. किन्तु यदि अशुभ ग्रह केंद्र का स्वामी होगा तो वह शुभ फल देने वाला हो जाएगा.
दो ग्रह राहू एवं केतु बड़े ही अद्भुत एवं विचित्र क्रिया कलाप वाले ग्रह है. कारण यह है क़ि इनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है. जैसा क़ि मैं अपने पिछले लेखो में कहने की कोशिस करते आया हूँ. केतु यदि कुंडली में किसी भी कोण भाव से समबाहु त्रिभुज बनाता है तो यह चाहे किसी भी राशि में हो, चाहे वह राशि अशुभ हो या शुभ , सदा अशुभ फल ही देगा. अब यहाँ पूर्व कथन का व्यतिरेक हो रहा है. पहले कहा गया है क़ि यह जिस राशि या ग्रह के साथ रहता है उसी के अनुसार फल देता है. किन्तु यहाँ विपरीत हो जा रहा है. ज्योतिष में कुछ एक नियम सामान्य होते है तथा कुछ विशेष. यहाँ राहू एवं केतु के सन्दर्भ में यह विशेष नियम है. पौराणिक मतानुसार केतु अत्यंत चमकदार होने के कारण इसे देवताओं एवं राजाओं ने अपने मुकुट में धारण किया. कुंडली में पंचम एवं नवं भाव कूल्हे (हिप) के अगल बगल पड़ते है. और यहाँ पर इसका अपमान होता है. सर पर धारण किया जाने वाला मुकुट अधोवस्त्र या आभूषण के रूप में प्रयुक्त कैसे किया जा सकता है? खगोल विज्ञान के अनुसार केतु का अत्यंत चमकीला सतह जो लगभग १.९X १०Y वेधन क्षमता से युक्त होता है. वह जनन तंत्र (Genital System) के गुण सूत्रों (Chromosomes) को स्थाई रूप से निष्क्रिय कर देता है. और व्यक्ति संतान हीनता की जिन्दगी व्यतीत करता है. इसे ज्योतिषीय भाषा में पितृदोष के नाम से जाना गया है. इसी प्रकार नावें भाव में केतु के रहने से “दक्षिणो दक्षता नाशम बुद्धि धर्म क्षयताम यातु . शिखिनः भाग्ये यथा भोग्यम नर पिशाचम खलु करोति.”
अर्थात दक्षिण भाग में नवें भाव में केतु की उपस्थिति जन्म जन्म के संचित आभा (पुरुषत्व-नारीत्व) का हरण कर लेता है. अर्थात इसके विचित्र विकिरण से अल्पायु में ही जोश, आभा, उत्साह, क्रिया शीलता आदि का क्षरण हो जाता है. ध्यान से नीचे के संलग्न चित्र में देखें, पांचवां भाव शरीर के निचले हिस्से में आगे आता है. तथा सातवें भाव के बाद के सारे भाग शरीर के पीछे वाले हिस्से है. जैसा क़ि हम प्राचीन ग्रंथो, श्रुतियो एवं स्मृतियों में पढ़ते सुनते चले आ रहे है, ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने से ओज एवं तेज में वृद्धि होती है. वीर्य-रज आदि का क्षरण रुक जाता है. तथा आयु, बल, यश आदि में वृद्धि होती है. इसके पीछे क्या कारण है? कारण यह है क़ि कशेरुक दंड का कमर बंध या संधि का द्रव स्खलित एवं तनु (Dilute) एवं विकिरित (Radiated or Dissolved) नहीं होने पाता है. विज्ञान के अनुसार अंतिम कशेरुका (Spinal chord) कमर के संधि भाग में विचलित या दूषित हो जाती है.
कुंडली को ध्यान से देखें, जब लग्न,

शरीर के अँग एवं कुंडली के भाव.

पंचम एवं नवं भाव को मिलते हुए सीधी रेखाएं खींची जाएँ तो वह समबाहू त्रिभुज बन जाता है. इसीलिए समबाहु त्रिभुज में कोनो पर केतु की स्थिति अशुभ कही गयी है. अब बात आती है क़ि केतु को मुकुट में तो धारण किया जा सकता है. अर्थात लग्न में तो धारण करना शुभ होना चाहिए. ? सामान्य निया के अनुसार यही होना चाहिए. किन्तु यहाँ आप एक बात प्रत्यक्ष प्रमाण के साथ देखें. प्राचीन काल में राजा-महाराजाओं के यहाँ उनके दरबार में अनेक धर्म गुरु एवं ज्योतिषाचार्य हुआ करते थे. वे अपने राजा को विविध रत्न-नग आदि उपहार स्वरुप उन्हें देते थे. ताकि उनका यश-कीर्ति बढ़ता रहे. राजा लोग उन हीरे-मोती आदि नगों को मुकुट तथा अंगूठी आदि में पिरो कर उसे धारण कर लेते थे. किन्तु उन्हें यह नहीं मालूम था क़ि इससे बल, साहस, पराक्रम एवं जोश तो बढेगा. किन्तु इसका उनके परिवार तथा आयु पर क्या प्रभाव पडेगा? उनकी बुद्धि इससे कुंठित हो जायेगी. इन रत्नों की चकाचौंध केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (Central Nerves System) में गाँठ (Clot) पैदा कर देगी. आप ध्यान से देखें मुकुट न पहनने वाले राजा, राज कुमार, ऋषि, तपस्वी दीर्घायु होते थे. इसके विपरीत मुकुट धारण करने वाले राजा, बादशाह अल्पायु होते थे. इसके हज़ारो उदाहरण विविध ग्रंथो में उपलब्ध है. अतः केतु लग्न में भी हानि कारक
है.
किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं क़ि केतु लग्न में सदा हानिकारक ही होगा. यदि लग्न में कोई भी उज्जवल आभा से युक्त ग्रह होगा तो वह केतु के विकिरण को आच्छादित कर देगा. जैसे यदि शनि ही क्यों न हो, यदि वह तुला- अपनी उच्च राशि, में हुआ तो उसके साथ केतु शनि के प्रभाव को वृद्धि देना  शुरू कर देगा. क्योकि जैसा क़ि पहले ही बता चुका हूँ क़ि वक्री ग्रह सदा पीछे खिसकने का स्वरुप प्रदर्शित करता है. इसलिए केतु अपना प्रभाव न देकर पीछे अर्थात अपने साथ युक्त शनि का फल देना शुरू कर देगा. और उच्च का शनि लग्न में केंद्र-चतुर्थ सुख एवं पांचवां-विद्या, संतान, अर्थात केंद्र एवं कोण भाव का स्वामी होकर लग्न में बैठेगा . अतः हर हालत में उसका तो शुभ परिणाम होना ही है. इसीलिए कहा गया है क़ि-
“तुला को दंड मीनस्थो लग्नस्थो वा शनैश्चरः.
ध्यान रहे शनि तुला अर्थात अपनी उच्च राशि में जाते ही सूर्य की उच्च राशि मेष के विपरीत दिशा में चला जाता है. शनि एक तो स्वयं काले रंग का. अर्थात पूर्ण अपारदर्शी, उस पर सूर्य से दूर चले जाने के कारण किसी भी तरह के दूसरे (सूर्य)
प्रकाश को भी नहीं प्राप्त करता है. अतः इतना काला हो जाता है क़ि केतु के चमक को अवशोषित कर लेता है. इस प्रकार शनि का केवल शुभ प्रभाव ही प्राप्त होता है.
परन्तु यदि इसी लग्न में तुला में सूर्य भी बैठ जाय तो ऐसे व्यक्ति के धन, बुद्धि, परिवार, आयु एवं सुख की रक्षा से स्वयं भगवान शिव भी इनकार कर देते है. क्योकि इस स्थिति में शनि एवं केतु दोनों ग्रह आगे एवं पीछे दोनों तरफ से प्रकाशित होकर अपना पूर्ण कुफल देने लगते है. कहा है-
“शिखिश्च मंदों सभानु लग्ने तुला स्थितो याति खलु देहधारी. देवि! न कुर्यादहमप्यरक्षण तन्नरो नश्यति सर्व जातो”
अर्थात भगवान शिव कहते है क़ि हे देवि! यदि तुला लग्न में कुंडली में लग्न में ही भानु, शनि के साथ केतु बैठ जाय तो उसके सब कुछ नष्ट हो जाने से मैं भी बचाने में असमर्थ हूँ.
इस कथन के पीछे कारण भी उपरोक्त ही है. अर्थात सूर्य के साथ होने से शनि के अपरावर्तक सतह भी प्रकाश मान हो जाते है. और उनका सुषुप्त फल भी जागृत हो जाता है.
ज्योतिष के हर पहलू को पूर्ण रूप में वर्णित कर पाना मेरे द्वारा इस जन्म में तो असंभव है. किन्तु जगज्जननी माता दुर्गा की कृपा से जो कुछ भी मेरे पास इस दिशा में प्रस्तुत करने के लिए उपलब्ध था. उसे मैंने आप के सम्मुख रख दिया है.
“ॐ नमश्चण्डीकाये”

पंडित आर. के. राय


khojiduniya@gmail.com

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply