Menu
blogid : 6000 postid : 1114

राहू-केतु क्या है? विज्ञान एवं वेद की दृष्टि

वेद विज्ञान
वेद विज्ञान
  • 497 Posts
  • 662 Comments

राहू-केतु क्या है?
वैसे तो मैं अपने पिछले लेखो में राहू एवं केतु के बारे में बहुत कुछ बताने की कोशिश किया हूँ. किन्तु कुछ एक बातें जो मुझे और ज्ञात है उन्हें भी आप को बताना चाहता हूँ.
यह सबको ज्ञात है क़ि पूरे सौर मंडल में मात्र दो ही ग्रह ऐसे है जो सदा ही मार्गी रहते है. वे कभी भी वक्री नहीं होते. अर्थात उनकी गति कभी भी टेढ़ी नहीं होती है. इसी प्रकार पूरे सौर मंडल में मात्र दो ही ग्रह ऐसे है जो कभी मार्गी नहीं हॉट. वे सदा ही वक्री रहते है. वे कभी आगे नहीं चलते. सदा पीछे ही चलते है. तो ऐसा क्यों है? इन मार्गी एवं वक्री ग्रहों की संख्या मात्र दो ही क्यों है? कोई दो और कोई तीन क्यों नहीं?
ध्यान रहे चन्द्रमा पृथ्वी के सबसे नजदीक का ग्रह है. यह एक ग्रह तो है ही , साथ में यह पृथ्वी का एक उपग्रह भी है. साथ में यह भी ध्यान दें क़ि पृथ्वी के सापेक्ष चन्द्रमा की गति सदा सामान है. केवल अक्षो पर जाकर या ध्रुवो पर जाकर इसकी गति थोड़ी विचलित होती है. वह भी बहुत नाम मात्र की ही विचलित होती है. कारण यह है क़ि पृथ्वी का सम्पूर्ण भाग तो गोल है. किन्तु ध्रुवो पर यह थोड़ी चिपटी है. पिछले लेख में मैंने इसका विवरण दे दिया है. चिपटी होने की वज़ह से इसके सामने पड़ते ही चन्द्रमा की गति स्थिर हो जाती है. तथा गति में व्यतिरेक पैदा हो जाता है.
इसी प्रकार सूर्य भी गति करता है. यहाँ मैं यह बता दूं क़ि समस्त ग्रहों की गति जो पंचांग आदि में दिखाई जाती है. वह अंतरिक्ष को स्थिर मान कर और उसके सापेक्ष दिखाई जाती है. यह हमारे प्राचीन गणितज्ञो एवं ज्योतिषाचार्यो की विशाल सोच, दूरदृष्टि एवं अनुपमेय ज्ञान का प्रतिबिम्ब ही है क़ि उन्होंने कोई भी निर्णय, सिद्धांत या नियम किसी एक जाति, वर्ग, स्थान या जीव के लिए नहीं बल्कि समस्त ब्रह्माण्ड को ध्यान में रख कर बनाया. उन्होंने यह बता दिया क़ि यह एक व्यापक सिद्धांत है क़ि किसी की बुराई जानने के लिए भलाई के बारे में ज्ञान रखना चाहिए. अर्थात रास्ता रास्ता टेढा है, यह जानने के लिए सीधे मार्ग के विषय में कुछ न कुछ पूर्वाभाष होना अनिवार्य है. जैसे किसी जंगल में भटकने के बाद बहुत कोशिश करते हुए जब हम बाहर निकल पाते तो हम यह समझ जाते है क़ि हम राह भूल गए है. ठीक उसी तरह किसी भी ग्रह की गति या किसी आकाश गंगा के विचलन को जानने के लिए यह आवश्यक है क़ि किसी न किसी बिंदु को स्थिर माना जाय. जैसे किसी एक आकाश गंगा की गति जानने के के लिए किसी दूसरी आकाश गंगा को स्थिर कल्पित करना पडेगा. ठीक इसीतरह हमें किसी ग्रह की गति जानने के लिए किसी दूसरे ग्रह को स्थिर मानना पडेगा. चाहे भले ही वह ग्रह गतिमान हो. इसी प्रकार अंतरिक्ष में किसी एक सौर मंडल को स्थिर मान कर दूसरे सौर मंडल तथा उसकी परिधि में आने वाले ग्रहों की गति निर्धारित की जाती है. यही सिद्धांत ज्योतिष में हमारे वर्तमान सौर मंडल से संदर्भित होता है. किसी निश्चित बिंदु पर सूर्य को स्थिर मान कर शेष ग्रहों की स्थिति निर्धारित कर दी जाती है.
किन्तु बहुत पश्चाताप का विषय है क़ि हम अपने पूर्वाचार्यो के मूल भूत सिद्धांतो का यहाँ उल्लंघन कर देते है. यथा उस निश्चित बिंदु पर भी सूर्य की गति मान लेते है. और कुंडली में ग्रहों को स्पष्ट करते समय सूर्य की भी गति दर्शा देते है. फिर सूर्य स्थिर कैसे हुआ? और हम अन्य ग्रहों की गति किसके सापेक्ष निर्धारित किये? और यदि सूर्य की गति निर्धारित किये तो किस ग्रह को स्थिर मान कर किये? और यदि सूर्य की गति अंतरिक्ष को स्थिर मान कर किये तो फिर उसका वर्त्तमान सौर मंडल से किस तरह का प्रयोजन? वह तो फिर दूसरे सौरमंडल, आकाश गंगा या अंतरिक्ष का हो गया.
अभी पिछले दिनों जब मै प्रवास के दौरान मांट्रियाल में था, वहां पर एक प्रवासी भारतीय पंडित जी मिले. उनसे जब मैंने यह बात बतायी तो उन्होंने कह़ा क़ि पंचांग में जो सूर्य की गति दिखाई जाती है वास्तव में वह सूर्य की नहीं बल्कि सूर्य के सापेक्ष पृथ्वी की गति है. किन्तु हमें अपने पृथ्वी के बारे में गणना करनी होती है, इसीलिए पंचांग में उसे सूर्य की गति के रूप में प्रदर्शित किया जाता है. मैंने उनसे एक प्रश्न किया क़ि फिर यह बताइये क़ि सूर्य के सापेक्ष तो शेष ग्रहों की गति निर्धारित कर दी जाती है. पृथ्वी की भी गति सूर्य के रूप में दिखा दी जाती है. तो इस प्रकार तो यह ज्योतिष शास्त्र मात्र पृथ्वी वासियों के लिए ही सीमित होकर रह गया. और यदि किसी दूसरे सौर मंडल के बारे में जानना हो तो कैसे गति निकालेगें? तो क्या हमारे त्रिकालदर्शी तपोनिष्ठ ऊर्ध्वरेता एवं जितेन्द्रिय ऋषि मुनि स्वार्थी, संकीर्ण बुद्धि या मतिमंद थे जिन्होंने केवल अपनी बुद्धि धरती वासियों तक ही सीमित रखी? क्या वे विविध ग्रहों पर स्वच्छंदता से निर्बाध भ्रमण नहीं करते थे? क्या उन्होंने बिना धरती छोड़े ही धरती एवं सूर्य के सापेक्ष अन्य ग्रहों-उपग्रहों की गति निर्धारित कर डाली जो आज के इस उन्नत विज्ञान से भी ज्यादा सटीक उनकी गती सेकेण्ड के 1200वें (प्रतिविपल) भाग तक निकाल डालते है? सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण के बिलकुल सटीक समय को बता देते है? आखिर बिना धरती छोड़े उन्होंने धरती की गति विविध ग्रहों के सापेक्ष कैसे निकाल ली? और उसमें भी आज जब मनुष्य चाँद, मंगल, शनि तथा वृहस्पति आदि ग्रहों की सैर करने लगा है, तो यदि अंतरिक्ष के सापेक्ष सूर्य आदि अन्य ग्रहों की गति निश्चित नहीं होती है तो किस गति से चल कर वह अबाध गति से चलने वाले ग्रहों का पीछा कर उन पर जा सकता है?
संभवतः उन्हें ज्योतिष के संहिता स्कंध का ज्ञान नहीं था. इसलिए उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया. खैर यह कोई आवश्यक नहीं है क़ि हर व्यक्ति हर विधा का विशेषज्ञ ही हो. जैसे मैं पंडित हूँ, किन्तु मुझे हस्तरेखा पढ़ने की विद्या का बिलकुल ज्ञान नहीं है. कहने का तात्पर्य यह है क़ि वैदिक गणित के सहारे ग्रहलाघवीय या सूर्य सिद्धांत आधारित अन्य सिद्धांतो के आधार पर जो परम्परा गत प्रकार से पंचांग आदि में सूर्य की गति दिखाई जाती है वह अंतरिक्ष के सापेक्ष सूर्य की गति होती है. और उसे दिखाने की परम्परा मात्र इसीलिए है क़ि यदि इसका प्रयोग पृथ्वी के अलावा अन्य किसी ग्रहमंडल या सौरमंडल पर किया जाय तो आसानी से वहां के अन्य ग्रहों की गति अंतरिक्ष के सापेक्ष निकाली जा सके.
इससे यह प्रमाणित होता है क़ि हमारा ज्योतिष विज्ञान केवल धरती के लिए या केवल हमारे ही सौर मंडल के लिए ही नहीं बल्कि समस्त ब्रह्माण्ड को ध्यान में रख कर प्रवर्तित किया गया है. और इसी से हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों के अंतरग्रहीय परिभ्रमण की बात सार्थक सिद्ध होती है.
अस्तु हम राहू एवं केतु के बारे में बात करेगें. सूर्य और चन्द्रमा के ही कारण राहू एवं केतु की उत्पत्ति होती है. यह बात पुराणों में भी विविध कथाओं एवं अंतर्कथाओ के माध्यम से बतायी जा चुकी है. और विज्ञान भी इसे उसी रूप में मानता है. जैसे सूर्य के प्रकाश का चन्द्रमा की सतह से परावर्तन होता है. तो जो प्रकाश परावर्तित होकर ऊपर चला जाता है वह केतु है. तथा जो प्रकाश चन्द्रमा को वेधकर नीचे या दूसरी तरफ उस पार नहीं जाता और छाया पड़ जाती है वह राहू है. अर्थात चमकीला भाग केतु एवं काला भाग राहू है. इसीलिए मार्गी भी मात्र दो ही ग्रह-सूर्य एवं चन्द्रमा तथा वक्री भी मात्र दो ही ग्रह राहू एवं केतु ही है. इसीलिए आकाश में टूटने वाले तारे या ऐसे ही अस्थाई चमकीले तारे विविध नामो से जाने जाते है. यथा- पुच्छल केतु, उपकेतु, धूमकेतु, भौमकेतु आदि. ये चमकीले होते है. इसीलिए ये दिखाई दे जाते है. किन्तु राहू काला या स्याह वर्ण होने के कारण दिखाई नहीं देता है. किन्तु यह पड़ता तो अवश्य है.
इसीलिए इनके फलो का तारतम्य रहस्यमय, अस्थाई, अनपेक्षित एवं प्रायः अशुभ ही होता है. फिर भी सदा अशुभ नहीं होता है. क्योकि गुरु जैसे सौर मंडल के सबसे विशालकाय ग्रह के विस्तृत परिधि क्षेत्र में यह विलुप्त हो जाता है. या इसी प्रकार सूर्य से समीप स्थित ग्रह की विस्तृत परछाई में यह छिप जाता है. जो ग्रह सूर्य से जितना समीप होता है उसकी परछाई उतनी ही बड़ी होती है. जैसे रात में टार्च के नजदीक खडा होइए, आप की छाया बहुत बड़ी दिखाई देगी. या दूसरे शब्दों में छोटा सा भी हाथ टार्च के मुंह पर जाने पर उसकी रोशनी को ढक लेता है. किन्तु कितना भी बड़ा पर्दा हो, वह यदि टार्च से दूर हो तो कुछ न कुछ रोशनी तो फिर भी बाहर दिखाई देगी ही. यही कारण है क़ि कहा गया है क़ि जब देवग्रह या दूसरे शब्दों में शुभ ग्रह-गुरु, चन्द्र, बुध, मंगल, शुक्र आदि साथ होते है तो कुंडली के शेष अशुभ योग नष्ट हो जाते है. कारण यह है क़ि सूर्य के नजदीक जाते ही इनकी विशाल छाया दूसरे ग्रहों को ढक देती है. तथा सूर्य एवं उसके समीप वाला ग्रह बली हो जाता है.
एक बात मैं यहाँ बता दूं क़ि ज्योतिष में कहा गया है क़ि सूर्य के समीप जाते ही ग्रह अस्त हो जाते है. तथा अपनी आभा खो देते है. बिलकुल सत्य बात है. किन्तु वे अपनी आभा खो देते है. अपना बुरा या भला फल नहीं प्रकट करते. केवल सूर्य ही प्रभावी रह जाता है. किन्तु उनकी छाया से अन्य पापी ग्रहों का पाप प्रभाव तो नष्ट हो जाता है. यही स्थिति पाप ग्रहों के साथ भी है. यदि पाप ग्रह सूर्य के समीप गए तो उनकी छाया में शुभ ग्रह अपनी अस्मिता खो देते है. इस प्रकार पापी ग्रह तो पापी है ही . उसका फल मिले या न मिले, शुभ ग्रहों का तो अशुभ फल मिलने लगेगा. क्योकि वे तो अशुभ ग्रह की छाया में अपनी अस्मिता लुप्त कर चुके.
वेद के अंतर्गत वर्णित सिद्धांत गणित के आधार पर ही यह सिद्ध किया गया है क़ि सूर्य एवं चन्द्रमा सदा मार्गी एवं उनकी छाया राहू एवं केतु सदा वक्री होते है. और केवल ये दो ग्रह मार्गी तथा दो ही ग्रह सदा वक्री होते है. न तो सूर्य-चन्द्रमा कभी वक्री हो सकते है. और न तो राहू-केतु कभी मार्गी.
और यही कारण है क़ि आज किसी व्यक्ति विशेष की कुंडली बनाते समय पंचांग में, जो मात्र पृथ्वी के लिए नहीं बल्कि समस्त ब्रह्माण्ड के लिए एक निश्चित एवं निर्धारित नियम है, ग्रहों क़ि स्थिति को उस कुंडली में भी उल्लिखित कर देते है. हम थोड़ा भी गणितीय नियम का सहारा नहीं लेते क़ि इन ग्रहों की स्थिति को जो पंचांग में उल्लिखित है, उसे अपने सौर मंडल के अनुरूप परिवर्तित करें.
इसी के लिए प्राचीन आचार्यो ने अन्य ग्रहों के साथ सूर्य की भी गति उल्लिखित करने की परम्परा डाली. ताकि किसी भी देश, महाद्वीप या ग्रह पर क्यों न जाया जाय, इस ग्रह स्थिति को सूर्य की उल्लिखित गति से उस स्थान पर अन्य ग्रहों की गति का पता लगाया जा सके. जैसे क़ि अंतरिक्ष में जब सूर्य की गति 50 थी तो अन्य ग्रहों की 30 या 20 जो भी थी. अब उस अन्य ग्रह पर जब अंतरिक्ष के सापेक्ष सूर्य की गति 50 है, तो शेष ग्रहों की क्या होगी. किन्तु हम ज्योतिषाचार्य यह नहीं देखते और वहां पर भी पंचांग में जो ग्रह जिस राशि में दिखाए गए होते है, बस उसी में लिख देते है. परिणाम यह होता है क़ि सारी भविष्य वाणी, चाहे वह किसी मनुष्य से सम्बंधित हो या, बाढ़, भूकंप, महामारी या अकाल से हो सब मिथ्या हो जाती है.
पंडित आर. के राय
Email- khojiduniya@gmail.com

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply