हाय रे ग्रामीण परिवेश! सच्चे सुख का एकमात्र प्रबल एवं समर्थ स्रोत. सच्ची खुशी का अकेला मार्ग. बिना किसी बनावट के सरल, सपाट स्लेट जैसा चिकना जिस पर किसी भी खडिया से जो चाहे लिख दो. भोली भाली आचार संहिता. सीधी सादी मिठास भरी वाणी. बिना किसी छल कपट के. बहुत दिनों बाद अपनी श्रीमती जी के बहुत कहने पर रिश्तेदारी का फ़र्ज़ निभाने सबसे पहले पंद्रह दिन की आकस्मिक छुट्टी लेकर निकला. यह फरवरी का महीना था. दूसरी बार निकला तो मई का महीना था. अपनी श्रीमती जी के बारे में विशेष क्या कहूं. उनके बारे में स्वयं कहूं, यह अच्छा नहीं लगता. इतना ही कहना पर्याप्त होगा क़ि वह एक प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान से उच्च शैक्षिक पदक धारण करने वाली सर्वोत्कृष्ट गंवार महिला है—–आज के परिप्रेक्ष्य में. जो भी हो मै एक अत्यंत ही पिछड़े गाँव में पहुंचा. यह वाकया फरवरी महीने का है. चौदह जनवरी को जब भगवान सूर्यदेव मकर राशि का संक्रमण करते हुए कुम्भ में प्रवेश करते है. तो समस्त विवाहादि शुभ कार्य प्रारम्भ हो जाते है. ऐसे ही जिस गाँव में पहुंचा, उस गाँव में एक घर में शादी पडी थी. यह तो मै नहीं कह सकता क़ि शादी लडके की थी या लड़की की. किन्तु विवाह का माहौल दिखाई दे रहा था. मै जिनके यहाँ गया हुआ था उनके पड़ोस में वह शादी वाला घर था. प्रायः ग्रामीण इलाकों में आज भी लोग बाज़ार की दुकानों से मिठाई आदि नहीं खरीदते. बल्कि घर पर ही अपनी देख रेख में बनवाते है. स्वयं मिठाई के लिए सारा सामान खरीदते है. तथा हलवाई को देते है. तथा घर पर ही चूल्हे आदि की व्यवस्था कर के अपनी देख रेख में बनवाते है. इसके लिए जैसे लड्डू बनवाने के लिए बाज़ार से चना खरीदते है. फिर उसे अच्छी तरह चुन कर फिर उसे भिगोते है. पूरा एक दिन भीगने के बाद उसे पानी से बाहर निकालते हेई. और उसे हथेलियों के बीच रगड़ कर उसका छिलका उतार देते है. इसके लिए पड़ोसी, गाँव की अन्य महिलायें एवं सगे संबंधी सभी शामिल होते है. सब एक साथ बैठ जाते है. तथा बड़े ही मनोयोग से उसे अर्थात चने को हथेलियों में रगड़ कर उसका छिलका उतारते है. जग छिलका उतर जाता है. तो उसे साफ़ धुले हुए कपडे पर सूखने के लिए धुप में फैला देते है. जब खूब अच्छी तरह सूख जाता है. तब उसे चक्की में घर पर ही पिसते है. और उस बेसन से लड्डू तैयार होता है. आप सोच सकते है क़ि वह लड्डू कितना शुद्ध, स्वादिष्ट एवं किसी भी हानि से दूर होगा. उस घर में भी महिलायें इकट्ठा हुई थी. बाहर छोटे छोटे लडके खेल रहे थे. और अन्दर औरतें अपने काम में मशगूल थीं. गाँवों में जब औरतें गीत गाती है तो कुछ औरतें पहले गाती है. तो दूसरी औरते उसे दुहराती या अगली कड़ी गाती है. एक भाव ऐसा ही चल रहा था. घर में लड्डू के लिए बेसन का चना पिसा जा रहा था. और गीत का भाव यह था. किसी औरत का पति दूर देश में था. यहाँ घर पर अकेली उसकी पत्नी ही थी. उसे लडके एवं लड़कियों की देखा भाल के अलावा पशुओ को भी सम्हालना था. खेती बारी भी देखनी थी. सर्दी कडाके की पड़ रही थी. ठण्ड से सब बेहाल थे. पत्नी बहुत ही परेशान थी. वह इतना बोझ सम्हाल नहीं पा रही थी. वह रो पड़ती है. तथा फिर अपने काम में लग जाती है. उधर पति का संदेशा आया क़ि वह अगले महीने में घर आने वाला है. तो पत्नी चिट्ठी लिखवा रही है. स्वयं तो वह अनपढ़ है. दूसरे से लिखवा रही है. कैसे—–देखें—– “लिखवले रजमतिया पतिया रोई रोई ना. बाडाका का जामा बाटे छोटाका का नाही. बुचुनी सेयान भयिली साडी एगो चाही. छोटाका गदेलावा के—— छोटाका गदेलावा के- ले ले अइह गंतिया पतिया रोई रोई ना. हो लिखवले रजमतिया पतिया रोई रोई ना. दुवारा खटियावा के पाटी पार टूटले. साल बीती गिले रजईया के फटले. पाला परेला कोहड़ा———पाला परेला कोहड़ा धरे नाही बतिया पतिया रोई रोई ना. हो लिखवले रजमतिया पतिया रोई रोई ना.” बेचारी अनपढ़ गंवार पत्नी उसके जितने भी छोटे बड़े दुःख थे सब लिखवा दिया. चूंकि यह गीत ठेठ लोक भाषा में है. इसलिए सब को समझने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है. जैसे रजमतिया का तात्पर्य “मति का राज” या सीधे सीधे हाल चाल. जामा मतलब पायजामा. बुचुनी मतलब बच्ची. गदेलावा मतलब गोद में वाला लड़का. गंतिया मतलब एक पहनावा विशेष. इसे जाड़े में बच्चो के सिर और गले से लपेट कर बाँध दिया जाता है. यह चद्दर या धोती का कपड़ा होता है. इसे गाँती भी कहते है. बतिया मतलब कली या फूल जिसके बड़े होने पर कुम्हडा या कद्दू लगता है. बेचारी को जितना भी गिला शिकवा है सब लिखवाती चली जा रही है. यद्यपि अपने विरही के आगमन की सूचना से आह्लादित भी है. वह चाहती है क़ि उसके अंतर्मन की खुशी भरी पीड़ा उलाहना के रूप में मुखरित हो उसके विरही पति के पास पहुंचे. उसने पूरी गीत में अपने लिए कुछ नहीं माँगा है. वह बताना चाहती है क़ि वह बड़े ही कष्ट एवं दुःख में उनके बाल बच्चों को पाल रही है. जाड़ा पड़ रहा है फिर भी पुराने गांती एवं फटी रजाई आदि से काम चला रही है. जब उसकी सहेली उसकी गाथा व्यथा लिख लेती है. तब वह कहती है- धीर धर बहिना बीतल अंधियरिया क़ि आई गईले ना तोहरो विरह के दिनावा ओराई गईले ना. चुहुकी चिरइया अन्गानावा निहोरे. जामुनी के फेड कागा डाढी झक झोरे. उड़तिया धूरि देख पुरुब की देशावा बहुरि गईले ना. तोहरो विरह के दिनावा ओराई गईले ना. हारिल चिरईया चकोहे चारु घारावा. पिऊ पिऊ बोलेला पपीहा पिछुवारावा. लेइके संदेशावा आवेले पुरुवईया महकी गईले ना. तोहरो विरह के दिनावा ओराई गईले ना. खोरी खोरी झारेले बयारी पुरुवैया. आवतारे पहुना विदेश रहवइया. बान्हि रखिह बहिना पाहून प्रीति डोरिया जाए न दीह ना. तोहरो विरह के दिनावा ओराई गईले ना. भाव विभोर होकर औरतो का एक दल दूसरे से सुर में सुर मिलाकर मीठे मनमोहक अंदाज में गीत गाता चला जा रहा है. कोई थकान नहीं. कोई सुस्ती नहीं. और इनकी इस सच्ची लगन को देख डर के मारे चना भी चक्की में रुकता नहीं. बल्कि झटके से बेसन बन कर चक्की से बाहर आ जाता है. क्योकि उसे मालूम हो गया है क़ि अब इन औरतो ने निश्चय कर लिया है क़ि चाहे कुछ भी हो जाय चने का बेसन और वह भी बहुत अच्छा बेसन बनाना ही है. लगन और विश्वास की चक्की में पिसा जाने वाला चना निश्छल भाव रूपी बेसन के रूप में बाहर आकर प्रेम के स्वादिष्ट चीनी में जब लड्डू का रूप लेगा तो आप अनुमान लगाईये क़ि वह कितना मीठा होगा. बाईस तेईस साल बाद गाँव की शुद्ध हवा से सुशोधित वाणी, मीठे जल से अभिसिंचित भाव, सच्चे दिल से अनुशासित दिनचर्या, निष्कपट व्यवहार से चतुर्दिक आवेष्टित आचार विचार तथा वर्णशंकरता से दूर मौलिक लहलहाते फसलो के विविध लुभावने रंग के फल एवं फूल से संपन्न ग्रामीण परिवेश के असीम सुख देने वाले अति सुखकारी आँचल में आने का सौभाग्य एवं उसके लोभ को मै संवृत्त नहीं कर पा रहा हूँ. सच्चाई का मूर्त रूप. अनंत सुख एवं शान्ति का एकमात्र उद्गम ————हमारे देश का गाँव. इसीलिए कोई विदेशी यहाँ के इस अति समृद्ध अनमोल एवं अनुपमेय संपदा से अभिभोत होकर कह पडा- A country life is sweet. In moderate cold and heat.
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