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प्रकृति का अनमोल खजाना : एक अति विचित्र आख्यान

वेद विज्ञान
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प्रकृति का अनमोल खजाना : एक अति विचित्र आख्यान
मै पिछले दिनों अपने देश से बाहर था. एक सरकारी मिशन पर अपनी यूनिट के साथ जाना पड़ गया था. संसार के ऐसे हिस्से में था जिसे साक्षात नरक के रूप में देखा जा सकता है. भयंकर भूखमरी. मानवता नाम की कोई चीज नहीं. मैंने सिर्फ कथाओं में सुन रखा था. या फिर लोगो के मुंह से ही सुना था. माँ बच्चे को जन्म देती है. और उस बच्चे को छोड़ कर चल देती है. अपने ही कुल परिवार के सदस्य को मार कर बड़े ही प्रेम एवं हर्ष उल्लास के साथ खाया जाता है. यहाँ मनुष्य ही नहीं बल्कि पेड़ पौधे भी नरभक्षी है. रोड्रिलिया, सार्मीनिया, क्लियोपेंटिना आदि पौधे मनुष्य या जानवरों को पकड़ कर खा जाते है. इस स्थान का नाम क्लोएंज़ा है. यहाँ से छ सौ किलोमीटर पूर्व-उत्तर में एक छोटी हवाई पट्टी है जो छोटे हेलीकाप्टर आदि के लैंड करने के काम आती है. किन्तु यह अस्थाई पट्टी है. क्योकि यह हमेशा धुल एवं रेत से भर जाती है. प्रसिद्ध हवाई अड्डा केपटाउन है जो यहाँ से बाईस सौ किलोमीटर दूर है. इसके बीच केवल एवं केवल रेत ही है. कुछ दूर तक तो लगभग सात आठ सौ किलोमीटर दूर तक डारसौल, मेडागास्कर, रिफ्लेंदा आदि के पेड़-पौधे दिखाई देते है. लेकिन उसके बाद घोर जंगल दिखाई देता है. यहाँ से पश्चिम-दक्षिण तो सिवाय रेत के और कुछ भी नहीं दिखाई देता जहाँ तक भी नज़र जाती है. दूर बीन से भी दूर दूर तक कुछ दिखाई नहीं देता है. ऐसा लगता है आसमान बहुत दूर नीचे आकर इसी रेत में समा गया है.
इसी स्थान पर दक्षिण अफ्रिका का एक छोटा सा देश है या राज्य है मोजाम्बिया. यह एक अति पिछड़ा, सभ्यता से बहुत दूर, दाने दाने को मुहताज, भयंकर रोगों का भण्डार एवं आसुरी प्रवृत्ती से भरा राज्य है. फिर भी संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में यहाँ विविध देशो के हस्तक्षेप से आधा प्रतिशत विकाश के लक्षण यहाँ देखने को मिलने लगे है. फिर भी यहाँ पर कपड़ा पहनना लोग फालतू समझते है. केवल विदेशियों की देखा देखी उलटे सीधे कपडे लपेट लेते है. यहाँ पर इनसे काम कराया जाता है. तथा इन्हें खाना पका कर खाने का ढंग सिखाया जाता है. यहाँ की नब्बे प्रतिशत आबादी एड्स से ग्रसित है.
और यहाँ पर मैं मुख्य विषय पर आना चाहूंगा.
जिस गहराई तक यहाँ एड्स जा चुका है, उस हिसाब से यहाँ जीवन कब का समाप्त हो जाना चाहिए. एड्स तो खैर संज्ञान में आ चुका है इसलिए यह आज सब लोग जान गए है क़ि एड्स एक लाइलाज़ बीमारी है. इसके अलावा भी यहाँ अनेक अज्ञात भयंकर व्याधियां फ़ैली है जिन्हें अभी पहचाना जाना शेष है. ये एड्स से भी भयंकर बीमारियाँ है. किन्तु अति समृद्ध प्रकृति का अनमोल खजाना अपने इस समुदाय को कैसे समाप्त होने देगा? यहाँ के घने एवं रेतीले जंगलो में कुछ पौधे होते है. जो जिस लम्बाई में ऊपर जाते है, उसी लम्बाई में नीचे गहराई में भी जाते है. जैसा क़ि जगह जगह पर देखने को मिला, अनेक पेड़ो के पास बीसों हाथ नीचे गहरा खड्ड जैसा दिखाई दिया. ये लोग इसी गहराई में घुस कर और उस पौधे के अति कोमल जड़ में हल्का सा छेद कर पत्ते का दोना बनाकर उस छेद से लगाकर बैठ जाते है. कई दिनों में वह दोना भरता है. और ज्योही दोना भर जाता है, फिर शुरू होती है खूंखार लड़ाई. कई जाने जाती है. और वह दोना कही रेत में गुम हो जाता है. किन्तु भाग्य से यदि वह दोना बच गया. या उस दोने में थोड़ा भी वह द्रव पदार्थ बच गया. तथा उसे किसी ने पी लिया तो समझ लीजिये उसमें पहले से हज़ार गुना ताक़त आ जाती है. और वह महीनो तक बिना भोजन पानी के रह सकता है.
किन्तु इस काम में निन्यानबे प्रतिशत खतरा है. पहला तो यह क़ि जो मनुष्य उस खड्ड में उतरेगा उसके ऊपर रेत का बहुत बड़ा ढूहा भरभरा कर गिर जाएगा. और वह उसी में कई हाथ नीचे दब जाएगा. यदि किसी तरह नीचे उतर गया और उस पेड़ की जड़ में छेद कर दोना लगाने जाएगा उसकी उसी में कब्र बन जायेगी. मनुष्य की गंध पाकर खूंखार गुरिल्ला हमला कर देगा. गुरिल्ला क्या करते है क़ि जब कोई ऐसा मनुष्य ऐसे खड्ड में घुसता है, तो वे घाट लगाकर ऊपर से ढेर सारा रेत नीचे गिरा देते है. और वही पर तब तक इंतज़ार करते है जब तक वह मर न जाय. उसके बाद रेत हटाकर उसे खाते है. कभी भी रेत का बवंडर धुहा भर भराकर उसे बीस-तीस हाथ नीचे दबा देगा. यदि किसी तरह वह दोना भर भी गया तो दश प्रतिशत ही चांस होगा क़ि वह मनुष्य ज़िंदा बच जाय. हजारो की संख्या में जंगली मनुष्य हमला कर देगें. इन्हें मरने का कोई डर नहीं होता. मर जाने पर तो इन कबाईलियों में जश्न मनाया जाता है.
कभी कभी यदि किसी को ज्यादा भूख लग गयी तो वह अपना ही हाथ या टांग काट कर खा जाएगा. इस प्रकार वह चलने फिरने से लाचार हो जाएगा. तथा फिर उसे दूसरे काट कर खा जायेगें. मिशन में आये डाक्टर जोएल आर. फ्रेड्रिक्स एवं अन्य विशेषज्ञ का मानना है क़ि जो द्रव पदार्थ ये कबाईली ऐसे विशेष वृक्षों से निकाल कर सेवन करते है, वह एक अति प्रभावशाली रोग निरोधक सिंड्रोम है. जो यदि प्राप्त हो जाय तो उस पर शोध किया जा सके. किन्तु करोडो की संख्या में इन जीवन मृत्यु की सोच से बेखबर कबाईलियो के बीच कोई भी अत्याधुनिक सेना कामयाब नहीं हो सकती. चाहे किसी भी बम से क्यों न हमला किया जाय. क्योकि रेत में बम भी नाकाम हो जाता है. तथा इससे अति मूल्यवान वन संपदा का विनाश भी हो जाएगा. इसलिए इसे प्राप्त करने का एक मात्र उपाय यही है क़ि इन कबाईलियों को सभ्यता की मूल धारा में शामिल करने तथा इनके ही सहयोग से प्रकृति की विपुल संपदा के बारे में ज्ञान प्राप्ति का प्रयास किया जा रहा है.
डाक्टरों की माने तो यह एक अति दुर्लभ प्रकार का अमृत ही है. इसमें रोग निरोधक क्षमता आज तक उपलब्ध सबसे उन्नत किस्म की रोग निरोधक औषधि से कई करोड़ गुना ज्यादा है. इस द्रव की एक और विशेषता सामने आयी है. यदि पेड़ की जड़ में स्वतः या प्राकृतिक रूप से ही किसी तरह चोट पहुँची. या कही से जड़ कट गयी. या किसी भी प्रकार से जड़ से द्रव पदार्थ निकल कर रेत में मिल गया. तो एक महीने में उस स्थान पर इतना बड़ा बवंडर उठेगा क़ि कोसो तक का आसमान कई दिनों तक रेत एवं धुल के गुब्बार से ढका रहेगा. तात्पर्य यह क़ि इसमे इतनी गर्मी या ऊर्जा होती है क़ि रेत में दबने के बाद और ज्यादा ताप एवं दाब पाकर यह और ज्यादा उद्वेलित हो जाता है तथा कई एकड़ के रेत को आसमान में उछाल देता है.
इस तरह का एक द्रव पदार्थ अपने देश में भी पाया जाता है. किन्तु इसकी क्षमता बहुत ही अल्प होती है. यह हिमालय की उन पर्वत श्रृंखलाओं में उपलब्ध है जहाँ के पत्थर अपनी परत अनुताल क्रम में संजोये रहते है. अनुताल का तात्पर्य यह है क़ि नीचे और ऊपर का रंग सफ़ेद किन्तु बीच वाला भाग लाल हो. ये चट्टाने स्वतः ही फट जाती है. उसके बाद उसमें से पहले गर्म भाप निकलती है. और फिर एक लसलसा लबाब जैसा द्रव पदार्थ उस दरार से बाहर निकल कर उस पत्थर पर ही जम जाता है. पहले यह बहुत गर्म होता है. धीरे धीरे यह ठंडा पड़ता है. और कुछ समय बाद यह पत्थर जैसा ही कठोर हो जाता है. और कुछ दिनों बाद पहचान में ही नहीं आयेगा क़ि यह चट्टान है या वही पदार्थ. जंगली बन्दर इसके बहुत शौक़ीन होते है. इसे खाने के लिए एक दूसरे की जान तक ले लेते है. पहले जो भाप निकलती है. उसी से उन्हें पता चल जाता है क़ि अब वह पदार्थ निकलने वाला है. तथा उनका झुण्ड वही आस पास जमा हो जाता है. इसको आयुर्वेद की भाषा में संभवतः शिलाजीत कहा गया है. मौलिक शिलाजीत तो दुर्लभ ही है. अब तो दवा कम्पनियां कृत्रिम शिलाजीत भी बनाने लगी है. वैसे तिब्बत एवं शिवालिक की पहाडियों में अवश्य ही यह मिलता होगा.
आयुर्वेद में कहा गया है क़ि शिलाजीत का लगातार सेवन करने वाला कभी बूढा नहीं होता है.
प्रकृति के समृद्ध गोद में कितनी अनमोल संपदा पडी है इसका अनुमान लगाना असंभव है.
पंडित आर. के. राय

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