प्रसारिणी : एक विलक्षण पौधा यह एक तरह का पौधा है. जो पहाड़ियों में बहुतायत में पाया जाता है. यह एक बदबूदार पौधा है. इसका प्रयोग संधिवात के अलावा शरीर की किसी भी तरह की विषाक्तता को दूर करने में किया जाता है. देहरादून की पहाड़ियों में यह बहुतायत में पाया जाता था. अक्सर किसान इसे अपने खेतो के मेड़ो पर लगाते थे. ताकि फसलो को नुकसान पहुंचाने वाले जंगली जानवरों से उनके फसल की रक्षा हो सके. यह इतना बदबू करता है क़ि जानवर के मुंह में चला जाय तो वह उलटी करते हुए दूर भाग जाता है. लेकिन जब से इसकी महत्ता संसार को मालूम हुई तब से इसे विविध दवा कंपनियों ने इसका पेटेंट करा दिया. और अब यह बिरले ही मिलती है. फिर भी देहरादून की पहाडियों में दूर ग्रामीण अंचल में कही कही यह मिल ही जाती है. इसके ऱस को यदि शरीर की गांठो पर डाल दिया जाय तो दर्द छू मंतर की तरह गायब हो जाता है. कुछ जादू मंतर दिखाने वाले इसका प्रयोग तमाशा आदि दिखाने में भी पहले करते थे. खाने वाले सोडा, हींग, कचनार के फूल एवं प्रसारिणी के चूरन को किसी भी पुराने कोष्ठ बद्ध से पीड़ित रोगी को दे देने पर उसकी अंत बिलकुल ही स्वच्छ हो जाती थी. किन्तु इसे खाने को नहीं देना चाहिए. इससे कालाजार भी फैलता है. किन्तु बाहरी प्रयोग के लिए यह सर्वोत्तम औषधि है. दंडकारण्य में इसकी उत्पत्ती मानी जाती है. किन्तु औषधीय गुणों से संपन्न प्रसारिणी सह्याद्री पहाडियों में पायी जाती है. दक्षिण में संभवतः इसे लुम्बकम नाम से जानते है. कहते है क़ि देव दानव युद्ध में जब देवताओं से राक्षस हारने लागे तो शुक्राचार्य जो संजीवनी विद्या के भी ज्ञाता थे, बहुत दुखी हुए. वह मरने वाले राक्षसों को जीवित कर देते थे. इधर देवताओं के पास अमृत था, वे मरते ही नहीं थे. तब क्रुद्ध होकर उन्होंने अपने वातसक शिष्य को बुलाया. तथा देवताओं पर आक्रमण करने का हुक्म दिया. जब वातसक ने देवताओं पर आक्रमण किया तो सबके घुटने एवं अन्य संधियाँ अकड़ गए. सबके हाथ पाँव चलने बंद हो गए. और राक्षस देवताओं को दुखी करने लगे. तब सब लोग भूत भावन भगवान भोले नाथ के पास पहुंचे. भगवान शिव उनकी प्रार्थना से प्रसन्न हुए. और उन्होंने अपनी जाता से एक बाल उखाड़ कर जमीन पर पताका. वह जाता तुरंत पौधे का रूप धारण कर के समस्त युद्ध क्षेत्र में फ़ैल गयी. उस पौधे पर जिसका भी पाँव पड़ता था. उसकी अकडन दूर हो जाती थी. और फिर युद्ध शुरू हो गया. इस पौधे का आरंभिक नाम अभिसारिणी था. किन्तु इसके गुण के कारण इसका नाम प्रसारिणी हो गया. यह तंतुओं को फैला देती है. तथा अकडन को दूर भगाती है. आज कल प्रमुख आयुर्वेदि कम्पनियां इसकी सहायता से विविध संधिवात नाशक तेल बना रही है. जैसे महानारायण तेल, विषगर्भ तेल तथा षडबिंदु तेल आदि. इसके सत से अनेक एलोपैथिक कम्पनियां सिक्लान, मेंड़ोको, मूव, आदि औषधियां बना रही है. किन्तु चूंकि ये औषधियां विविध रसायनों एवं खाद के बल पर उगाई प्रसारिणी पौधे के सत से बनायी जा रही है. इससे इसका प्रभाव उतना शक्ति शाली नहीं रह गया है जितना प्राकृतिक रूप से उगी हुई प्रसारिणी का होता है. कुंडली में धनु या कन्या लग्न वालो के छठे राहू या मंगल या दोनों की उपस्थिति से, मेष, वृश्चिक, तुला एवं वृषभ लग्न वालो के छठे गुरु या शनि की उपस्थिति से, सिंह, कर्क एवं मिथुन लग्न वालो के छठे सूर्य, चन्द्रमा या शुक्र की उपस्थिति से संधिवात का प्रकोप होता है. ऐसी स्थिति में इस प्रसारिणी के जड़, पत्ते एवं छिलका को महीन पीस कर गले या कमर में बांधने पर दोष दूर हो जाता है. अभी भी सुदूर अंदरूनी ग्रामीण इलाको में इसका जंतर बनाकर बच्चो के गले में डाला जाता है. कारण यह है क़ि चमड़े के स्पर्श से बहुत भयानक जलन भी उत्पन्न करता है. अतः इसका कपडे में जंतर बनाकर कमर में बाँध दिया जाता है. भैषज्य भास्कर के अनुसार केतुकूट एवं उग्रबाहू योग जिसकी कुंडली में हो उसे प्रसारिणी नहीं धारण करना चाहिए. यही बात अथर्वसंहिता में भी सांकेतिक या कूटशब्दों में कही गयी है. पंडित आर. के. राय
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