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काश्मीर घाटी की अमोघ वनस्पति-तक्रकूट या कालकूट

वेद विज्ञान
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Mighty Peer PaanchaalPani Mandir Srinagarकाश्मीर घाटी की अमोघ वनस्पति-तक्रकूट या कालकूट
भारत के सुदूर उत्तरवर्ती प्रांत कश्मीर की अद्भुत छटा से प्रभावित होकर उर्दू के एक कवी “फिरदौस” ने बिलकुल ही सही कहा है क़ि-

“गर फिरदौस बर रुए ज़मीं अस्त हमीं अस्तो हमीं अस्तो हमीं अस्त”

अर्थात अगर धरती पर कही स्वर्ग है तो वह यहीं पर है. और केवल यहीं पर है. और निश्चित रूप से यहाँ पर है ही. और इसमें कोई संदेह नहीं क़ि महर्षि कश्यप के नाम पर प्राचीन काल से जाना जाने वाला “कश्मीर सर” नामक यह स्थान अपनी अद्भुत रमणीय छटा एवं लुभावने मन मोहक प्राकृतिक दृश्यों से जड़, जंगम या थावर किसका मन नहीं मोह लेगा? रंग विरंगे विविध आकार-प्रकार के फूलो से दामन को खुशबूदार बनाए एक रमणीक नृत्यांगना की तरह अपने आकर्षक हाव भाव से प्रत्येक नवागंतुक को थोड़ी देर के लिए ठिठककर बरबस दृष्टि पात करने के लिए मज़बूर कर देने वाली विचित्र कश्मीर की कली के लिए प्रसिद्ध यह भू भाग वास्तव में फूलो का कटोरा है. यह वही स्थान है जहाँ पर धरती का सबसे उत्तम केशर उगाया जाता है.
खाना बदोशो की ज़िंदगी जीने को अपनी दिनचर्या का एक अँग बनाए फौजी को धरती के उस हिस्से पर भी जाना पड़ता है. जहाँ पर जाना आम आदमी ईश्वरीय कोप मानता है. ऐसा ही एक स्थान है काश्मीर की भयावह वादियों के अन्दर डरावने एवं बीहड़ जंगलो से घिरे पीरपांचाल की शक्तिशाली पर्वत श्रेणियां. खन्नाबल एवं अनंतनाग के बीच से एक अत्यंत संकरे मार्ग से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर उत्तर-पश्चिम यह स्थान स्थित है. यहाँ पर अभी भी अत्यंत भयानक वेशभूषा वाले जंगली मनुष्य पाए जाते है. जो बहुत ही उग्र प्रवृत्ति एवं प्रकृति के होते है. अभी तो बहुत कुछ ये सभ्य समाज के बारे में जान गए है. किन्तु फिर भी अभी ये वर्त्तमान सभ्यता से बहुत दूर है. गरीबी एवं भूखमरी यहाँ पर बहुत ज्यादा है. इस स्थान पर “डोडा” अर्थात पोश्ता या अफीम बहुत ही ज्यादा मात्रा में पाया जाता है. ये लोग अब जान गए है क़ि यह एक बहुत ही मंहंगा बिकने वाला वनस्पति है. और अब ये लोग इसकी तस्करी भी करने लगे है. उग्रवादी अब मुश्किल के समय में इन्हीं की सहायता ले रहे है. लेकिन बहुत ही मुश्किल में ही पड़ने पर इनकी सहायता लेते है. क्योकि ये बहुत ही खूंखार होते है. तथा इनके लिए क्या आतंकवादी या निर्दोष. तुरंत ही मरने मारने पर उतारू हो जाते है. और इनका संगठन इतना मज़बूत होता है क़ि किसी भी एक से दुश्मनी मोल लेने के बाद उस बियावान में किसी का भी टिकना मुश्किल है. चाहे उसके पास कितना भी अत्याधुनिक हथियार क्यों न हो.

यहाँ पीरपांचाल की पश्चिमी फिरकौल चोटी से नीचे अफगानिस्तान की सीमा से लगे जहाँ पर शक्तिशाली पीरपांचाल की पांचो चोटियों से निकलने वाली जलधारायें एक में मिलकर इन चोटियों के मध्य भाग में स्थित सरोवर के किनारे से होकर आगे बढ़ती है. तथा आगे इसका नाम “तवी” नदी पड़ जाता है. तवी नदी का पुराना नाम “तापसी” है. कही कही पर इसे तवापर्णी भी कहा गया है. यह सूर्य की पुत्री है.
कहा जाता है क़ि जब भगवान सूर्य के पुत्र शनि एवं उनकी पत्नी छाया ने क्रुद्ध होकर सूर्य को कोढी होने का शाप दे दिया. तब उनकी पुत्री तपसा बहुत दुखी हुई. आप को संभवतः यह ज्ञात होगा क़ि भगवान सूर्य के विग्रह या समस्त शरीर की पूजा नहीं होती है. क्योकि उनके सिर से नीचे का हिस्सा कुष्ठ रोग ग्रसित है. इसीलिए भगवान सूर्य के गोलाकार रूप की ही पूजा होती है. इधर शनी एवं छाया के इस कुकृत्य से सूर्य पुत्री तपसा या तवी तथा सूर्य के पूर्वज महर्षि कश्यप को बहुत क्लेश हुआ. ज्ञात हो क़ि महर्षि कश्यप की दो पत्नियां थीं. जिनका नाम दिति एवं अदिति था. दिति के पुत्र दैत्य कहलाये. तथा अदिति के पुत्र आदित्य या देवता कहलाये. इसीलिए सूर्य का एक नाम आदित्य भी है. जब भगवान सूर्य कोढी हो गए. तब उनकी आँखों से पश्चाताप के जो अश्रु गिरे वे सात थे. भगवान सूर्य की सात किरणों से सात तरह के अश्रु गिरे. उनमें काले रंग वाले आंसू काला सागर के नाम से प्रसिद्ध हुए. नीले रंग के आंसू नील नदी के नाम से प्रसिद्ध हुए. यही नील नदी आज भी मिश्र में बहती है. तथा शेष पांच आंसू पांच नदियों का रूप धारण कर आर्यावर्त में बहे. जिस क्षेत्र में ये पांच आंसू या जल नदी के रूप में बहने लगे उस स्थान का नाम पंचाम्बू पडा. यही पंचाम्बू आज का पंजाब है. ये नदियां झेलम, सतलुज, विपासा, चिनाव एवं सिन्धु के नाम से प्रसिद्ध है. भाषा या स्थान भेद से तपसा या विपासा को ही आज तवी के नाम से जाना जाता है.
भगवान के श्वेत रंग वाली किरण से जो नदी बनी वह तवी नदी बनी. तवी ने अपने पितृकुल के समर्थ कुलदेव महर्षि कश्यप से कातर स्वर में अपने पिता सूर्य के कुष्ठ जैसे महापातकी एवं कलंक स्वरुप महा घ्रिणित भयंकर क्लेश का वर्णन किया-

“अहो! तपो धनं वेत्सि कृत्यमुपस्थितम तात तनु ध्वगलित यातु.
महच्चित्रमिदं खलु पश्येत्त्वयाहृतो पाप वन्शानुघाता. “

अर्थात हे हमारे पितृकुल के प्रधान एवं समर्थ तपोधन! आज मेरे पिता किसी दुर्बुद्धि के कुकृत्य के कारण गलित कुष्ठ के शिकार हो गए है. यह तो महान आश्चर्य है क़ि आप सर्व समर्थ होते हुए भी इस वंशघातक पाप का हरण क्यों नहीं कर लेते है?
अपनी दुहिता के इस वचन से प्रभावित होकर महर्षि कश्यप ने रौद्र रूप धारण कर अपनी कुछ जटाओं को नोच डाला. तथा उन्हें तवी में डाल दिया. बालो के वे टुकडे नदी के किनारे लग गए. तथा उन्होंने पौधों का रूप धारण कर लिया. फिर शांत होकर और भवितव्यता पर निःश्वास छोड़ते हुए कहा क़ि हे पुत्री! इन पौधों के पत्ते, छाल एवं मूल भाग को एकत्र कर तथा उन्हें कूट पीस कर उसके ऱस को अपने जल में मिलाकर अपने पिता को पुष्य नक्षत्र में स्नान कराओ. कुष्ठ रोग से मुक्ति मिल जायेगी. तवी ने वही किया. भगवान सूर्य का कुष्ठ रोग निर्मूल हो गया. किन्तु भगवान सूर्य ने कहा क़ि यदि मेरा यह रोग निर्मूल हो जाता है तो शनि का शाप सदा के लिए निष्प्रभावी हो जाएगा. और इस मेरे पुत्र या ग्रह की महिमा धरती से सदा के लिए समाप्त हो जायेगी. अतः मै कोढी बन कर ही रहूँगा. लोग मेरे गोलाकार स्वरुप की ही पूजा करेगें. और जो इस पौधे की छाल, पत्ते एवं जड़ या मूल के ऱस से स्नान करेगा वह सदा के लिए इस रोग से मुक्त हो जाएगा. उसके बाद तवी ने कहा क़ि हे तात! एक और आशीर्वाद आप से चाहती हूँ. ये पौधे आप की जटाओं से निकले है. ये ज़मीं पर सबके पैरो तले रौंदे जायेगें. जो किसी भी तरह उचित नहीं है. तब महर्षि ने कहा क़ि यह इतने कठोर पत्थरो के बीच जन्म लेगा क़ि किसी का पैर इसे रौंद ही नहीं सकता है.
यही पौधा “कालकूट” या “तक्रकूट” नाम से प्रसिद्ध हुआ. स्थानीय डोगरी या काश्मीरी भाषा में इसे शायद “तूकसू” कहते है. बहुत छोटी, गोल एवं खुर दरी पत्तियों वाला यह पौधा जब बर्फ गिरनी शुरू होती है, तब उगना शुरू होता है. तथा ज्यो ही बर्फ गलना शुरू होता है, यह जल जाता है. इसके एक ही फूल में कई रंग होते है. स्वाद बहुत ही तीखा होता है. चट्टानों के या जमे हुए कठोर बर्फ के बीच से यह निकलता है. इसे कोई भी जानवर नहीं खाता है. यदि इसके ऱस में बिना पानी मिलाये शरीर के किसी हिस्से में लगा दिया जाय तो फफोला निकल आता है. किन्तु यदि फफोले पर लगा दिया जाय तो फफोला बहुत जल्दी सूख जाता है. इसकी ही एक वर्ण शंकर प्रजाति है जिसे आयुर्वेद की भाषा में “कुटकी” कहा जाता है. कहते है क़ि किसी तरह आंधी, तूफ़ान या बाढ़ आदि से किसी तरह इसका कोई एक विकृत अंश या जड़ मैदानी इलाकों में पहुँच गया. वही कुटकी कहलाने लगा.
कहते है पांडू नंदन भीम के के पौत्र एवं घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक ने यह शपथ लिया क़ि वह कौरव पक्ष की तरफ से युद्ध करेगा तो भगवान कृष्ण को बहुत चिंता हुई. क्योकि बर्बरीक एक ही दिन तो क्या, क्षण भर में पांडव एवं कौरव सेना को ध्वंस करने में सक्षम था. और बर्बरीक पांडवो से नाराज़ इसलिए था क़ि कृष्ण ने भीम की राक्षसी पत्नी हिडिम्बा जो घटोत्कच की माता भी थी, का वध कर दिया था. हिडिम्बा के वध का कारण यह था क़ि एक दिन हिडिम्बा क्रुद्ध होकर द्रौपदी को ही खाने झपट पडी थी. इसीलिए भगवान कृष्ण ने हिडिम्बा को मार डाला था. और अपनी माता के वध से घटोत्कच पांडवो से क्रुद्ध था. यही सब सोच कर भगवान कृष्ण ने बर्बरीक की गर्दन अपने चक्र से काट लिया. वह गर्दन उछलते हुए तवी नदी के किनारे गिरा. उस सिर के भार से अनेक तक्रकूट के पौधे कुचल गए. तथा उनका ऱस उसकी गर्दन कटे हिस्से में लग गया. और बर्बरीक की गर्दन का घाव ठीक हो गया. जब भगवान कृष्ण को इस बात का पता चला तो वह उस स्थान पर पहुंचे. तब बर्बरीक ने कहा क़ि हे माधाव! मै महाभारत की लड़ाई में हिस्सा तो नहीं ले सका. किन्तु मै इस लड़ाई को अपनी आँखों से देखना चाहता हूँ. भगवान कृष्ण ने उसकी गर्दन को कुरुक्षेत्र में एक ऊंचे पेड़ पर लटका दिया.
मै अनेक खतरा उठाने के बावजूद भी इस तवी नदी एवं तक्रकूट उद्गम स्थल का चित्र लाया हूँ. जिसे इस लेख के साथ डाउन लोड कर रहा हूँ. आप स्वयं देख सकते है क़ि इन पहाडियों के बीच में महर्षि कश्यप के तप सरोवर का दृश्य है. तथा चारो और ऊंची ऊंची पहाड़ियां है. कश्मीर सर के नाम पर ही चोटी के उत्तरी हिस्से का नाम बाद में काश्मीर पड़ गया. यही पर पांडवो ने महर्षि कश्यप से अनुमति लेकर भगवान शिव की प्रार्थना कर अपने स्वर्गारोहण से पूर्व उन्हें वहां पर प्रगट होने के लिए कहा था. ताकि अंतिम प्रयाण से पूर्व पांडव उनकी पूजा अर्चना कर सकें. तब भगवान शिव ने कहा था क़ि मै सशरीर प्रगट तो अवश्य होउंगा. किन्तु तुम लोगो की पूजा के बाद मेरा कोई चिन्ह तुम लोग यहाँ पर अवश्य रखना. जब भगवान शिव अंतर्ध्यान हो गए. तब महर्षि कश्यप ने उसी स्थान पर शिवलिंग की स्थापना कर दी. यह धरती का दूसरा ऐसा शिवलिंग है जिसकी रेती दक्षिण तरफ है. अर्थात इसका पानी उत्तर की बजाय दक्षिण दिशा में बहता है. यह स्थान वर्त्तमान समय में सेना की सघन अभिरक्षा में श्रीनगर के बादामी बाग़ छावनी के अन्दर है. मै इसका भी चित्र भर सक यहाँ पर प्रस्तुत करूंगा.
इस स्थान पर तुलसी, बेल, आम, कटहल, पीपल, जामुन, महुआ आदि के पेड़ नहीं पाए जाते है. इसके पीछे क्या कारण है, मै फिर कभी प्रस्तुत करूंगा. यदि जगज्जननी माता रानी की कृपा बनी रही तो.

“सर्वस्यार्ति हरे देवि! नारायणी नमो अस्तु ते.”

पंडित आर. के. राय


Email- khojiduniya@gmail.com

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