प्रायः देखने में आया है कि कुंडली में स्थित प्रत्येक अशुभ घटनाओं से निजात पाने के लिये लोग यंत्र तंत्र आदि का सहारा लेते है. यह ठीक भी है. लेना चाहिए. किन्तु साथ में यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि क्या यंत्र उसके लिये कारगर है? अर्थात कई अवस्थाएं ऐसी होती है कि कोई भी यंत्र उस अवस्था में काम नहीं कर सकता. आज कल यह एक परम्परा सी बन गयी है कि लोग धड़ल्ले से श्री यंत्र, गायत्री यंत्र, कुबेर यंत्र, शाबर यंत्र, गणेश यंत्र आदि बाज़ार से खरीद लेते है. तथा पास में रख लेते है. यह तों अच्छा है कि बाज़ार में एक स्टैण्डर्ड साईज एवं मीजरमेंट का बना बनाया यंत्र खरीदने पर मिल जाता है. जिसका परिणाम लगभग बारह हजार व्यक्तियों में से किसी एक को अनुकूल मिल सकता है. कारण यह है कि वह श्री यंत्र तों ठीक है. किन्तु जिस व्यक्ति के लिये बना है, उसी के लिये वह कारगर होगा. अन्यथा उसका कोई परिणाम नहीं मिल सकता है. बल्कि इसके विपरीत इसका परिणाम विपरीत भी हो सकता है.
उदाहरण के लिये यदि कोई व्यक्ति श्री यंत्र धारण कर लेता है. उसकी कुंडली में विष्णु या लक्ष्मी (केंद्र या कोण) में कही भी चंड या कमण्डलु योग है. या राहू कन्या या धनु राशि में है, या लग्नेश पर सप्तमेश, अष्टमेश या द्वादशेश क़ी दृष्टि है, या किसी केन्द्रेश तथा कोणेश में विग्रह योग बन रहा है तों उसके लिये वह श्री यंत्र किसी काम का नहीं होगा. इसके अलावा यदि वह यंत्र उस व्यक्ति के जन्म नक्षत्र के भुक्त अंश के दशमांश के तुल्य प्रमाण, आकार-प्रकार का नहीं है. तों वह यंत्र कोई लाभ नहीं दे सकता. इसके विपरीत उसके बच्चे इसके उलटे परिणाम से व्यथित हो जायेगें.
यदि कोई मंगल क़ी शान्ति हेतु मूंगा धारण करता है. तथा यदि कुंडली में किसी भी भाव में शुक्र के साथ है तों मूंगा कोई भी अच्छा फल नहीं दे सकता है. यदि मंगल शुक्र क़ी किसी भी राशि-वृष या तुला में हो तथा कोण में हो तों मूंगा कोई प्रभाव नहीं दे सकता है. यदि मूंगा किसी भी प्रकार तराशा हुआ होगा तों वह मात्र सौंदर्य प्रसाधन के ही काम आयेगा. वह किसी ज्योतिषीय प्रभाव के लिये नहीं प्रयुक्त हो सकता है.
यदि कोई पुखराज धारण करता है. तथा गुरु के साथ कुंडली में सूर्य बैठा हो तों पुखराज प्रभाव शून्य हो जाता है. यदि गुरु केमद्रुम प्रभाव वाले चन्द्रमा के ठीक सम्मुख हो तथा केंद्र कोण के अलावा कही भी केन्द्रेश या कोणेश होकर बैठा हो तों पुखराज का कोई प्रभाव नहीं देखा गया है. यदि गुरु नीचस्थ मंगल से सातवें हो तथा साथ में शुक्र हो या नीचस्थ मंगल के साथ ही शुक्र हो तथा गुरु उनसे सातवें हो तों पुखराज का विपरीत प्रभाव देखा गया है.
कहने का तात्पर्य यह कि कुंडली में यदि कोई अशुभ योग हो तथा जिस ग्रह के कारण अशुभ योग बन रहा हो. तों यह कोई ठीक नहीं है कि उस ग्रह से सम्बंधित रत्न धारण करने से उसका अशुभ प्रभाव दूर हो जाएगा. ऐसी अवस्था में षटत्रिंशति ताप करना ही एक मात्र साधन रह जाता है.
यंत्रो का निर्माण केवल तीन आधार पर ही आधारित होता है. बाज़ार में बिकने वाले यंत्र बिना किसी माप-परिमाप के बने होते है. उनका प्रयोग केवल नमूने के तौर पर किया जा सकता है. जैसे किसी का जन्म अश्विनी नक्षत्र के दूसरे चरण में अर्थात पांचवें अंश में हुआ है. तथा उसके तर्जनी ऊंगली क़ी लम्बाई सवा तीन अंगुल है. तों जो ताम्बे या सोने या चांदी क़ी प्लेट होगी उसकी लम्बाई चौड़ाई का अनुपात होगा-
३-१/४ (५)/ ५+१= ढाई अंगुल
अर्थात उस प्लेट क़ी चौड़ाई तथा लम्बाई ढाई अंगुल होगी. तथा उस प्लेट पर वह यंत्र खुदा होगा. उसके बाद पांचो ऊंगलियो में जिस अंगुली के सिरे पर शंख का निशान होगा उस अंगुली के द्रव्य से वह यंत्र सिद्ध या Activeted होगा. जैसे यदि मध्यमा अंगुली में शंख का निशान है तों बेसन एवं सफ़ेद चन्दन से प्रलिप्त उस यंत्र को सिद्ध किया जाएगा. क्योकि प्रत्येक अंगुली के लिये कुछ शास्त्रीय द्रव्य निश्चित किये गये है. इसके विपरीत रत्नों को जागृत करने के लिये जिस अंगुली में चक्र का निशान बना हो उसके द्रव्य से उस रत्न क़ी अंगूठी को सिद्ध करते है. पुनः यदि शनि, राहू एवं केतु के रत्न सिद्ध करने हो तों कृष्ण पक्ष क़ी त्रयोदशे, चतुर्दशी तथा अमावश्या तिथियाँ ही बतायी गयी है. यदि सूर्य एवं मंगल के रत्न सिद्ध करने हो तों किसी भी पक्ष क़ी अष्टमी या नवमी तिथिया ही बतायी गयी है. चन्द्रमा एवं बुध के रत्न सिद्ध करने हो तों सिर्फ द्वितीया तिथि ही प्रशस्त मानी गयी है. शुक्र का रत्न सिद्ध करना हो तों शुक्ल पक्ष क़ी षष्टी तथा दशमी तिथि ही अनिवार्य है. एवं गुरु का रत्न सिद्ध करना हो तों एक मात्र तिथि पूर्णिमा है.
शनि, राहू एवं केतु के यंत्र अथर्ववेदीय मन्त्र, सूर्य, चन्द्र एवं गुरु के यंत्र ऋग्वेदीय तथा शुक्र एवं बुध के यंत्र सदा सामवेदीय मंत्रो से ही सिद्ध होते है.
इसका विशद विवरण यंत्र रत्नाकर, श्रीहन्नल्लम कोट्तैयम तथा शिवकर्तरि में दिया गया है. किन्तु इनकी भाषा विचित्र, गूढ़ एवं कूट में होने के कारण बहुत ही श्रम करने पर स्पष्ट हो सकती है. एक उदाहरण-
अर्थात अंक या सूर्य के प्रथम नक्षत्र से अष्टो अर्थात आठवें मघा के नुगामू अर्थात अनुगमन करने वाली अर्थात पुष्य नक्षत्र के परर्थकम अर्थात पुच्छ भाग को नापग्वंग अर्थात खंडित करें. इसे इस सन्दर्भ में कहा गया है कि यदि गुरु के किसी यंत्र या रत्न को धारण करना है तथा यदि गुरु किसी पाप ग्रह के साथ या प्रभाव में है तों उसके लिये मघा नक्षत्र के ठीक पहले आने वाली नक्षत्र अश्लेषा का अनुगमन करने वाली नक्षत्र पुष्य के दूसरे अर्थ वाली अर्थात पुच्छ भाग या उस रत्न या यंत्र के पृष्ठ भाग को सम्मुख होना चाहिए.
इस प्रकार इन सावधानियो के साथ निर्मित यंत्र ही प्रभाव शाली हो सकते है. यंत्र यद्यपि अपना प्रभाव थोड़ा विलम्ब से प्रकट करते है. किन्तु बहुत ही सटीक प्रभाव दिखाते है.
आज जब रत्नों क़ी कीमत आसमान छू रही है. उस अवस्था में जन साधारण के लिये यंत्र उनकी अपेक्षा बहुत ही सरल, सस्ते एवं सुलभ है. किन्तु यदि अत्यंत तात्कालिक आवश्यकता हो तों यंत्र कारगर नहीं होते है. ऐसी अवस्था में तूलकोटि के रत्न ही उचित एवं प्रभाव शाली होते है.
उदाहरण के लिये यदि आमूलक, केमद्रुम या ग्रहण योग हो तों बसरे क़ी शंकु मोंती ही सिद्धि प्रद हो सकती है. साधारण मोंती या साधारण बसरे क़ी मोंती कोई प्रभाव नहीं दे सकती. तथा मोंती को अष्टका करने के बाद ही धारण किया जा सकता है.
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