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रोग एवं प्रकृति

वेद विज्ञान
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रोग एवं प्रकृति
प्राकृतिक व्यतिक्रम से ही रोग उत्पन्न होते है. तथा समानुपातन से उनका निदान भी हो जाता है. यह एक शाश्वत एवं स्वयं सिद्ध नियम है. यह केवल शास्त्रों या पुराणों का ही कथन नहीं है. जब भी नैसर्गिक संचरण में भेद पैदा होगा, कोई न कोई अनपेक्षित या कृत्रिम घटना-दुर्घटना जन्म लेगी ही. इसी बात या तःय को कोई बहुत पढ़ कर समझता है. तथा कोई प्रकृति क़ी गोद में बैठ निरंतर अनुभव के द्वारा संग्रहीत करता है.
ऊधमपुर (जम्मू) से लगभग सौ किलोमीटर क़ी दूरी पर स्थित एक स्थान है जिसे शिवखेरी के नाम से जाना जाता है. यहाँ पर भगवान शिव का एक बहुत पुराना स्थान है. यह बहुत ही दुर्गम स्थान पर है. इसमें जाना सब के बस क़ी बात नहीं है. फिर भी यहाँ पर श्रद्धालुओं क़ी भारी भीड़ जमा होती है. जम्मू से सीधे यहाँ के लिये बस सेवा है. चाहे जो भी हो, यह एक अति मनोरम स्थान है.
शिवखेरी से लगभग सात किलोमीटर पहले मुख्य रास्ते से पश्चिमोत्तर दिशा में एक स्थान है देवजल. बिल्कुल संकरी चतुर्दिक सघन पहाडियों से घिरा चीड एवं देवदार के घने वृक्षों से ढका यह स्थान बड़ा ही डरावना दीख पड़ता है. वैसे भी यहाँ पर घूमने जाना वर्जित है. क्योकि यहाँ बड़े बड़े बाघ एवं भालू जैसे हिंसक जीव पाये जाते है. इन पहाडियों के बीच में एक बिल्कुल खाली एवं साफ़ सुथरा लगभग पचासों एकड़ में फैला स्थान है. बिल्कुल सपाट एवं समतल स्थान है. यहाँ तक पहुँचने के लिये एक अति संकरी पगडंडी जो पहाडियों के बीच से होकर पेड़ो एवं घनी झाड़ियो से गुजराती है, उसी से आना होता है.
प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष क़ी दशमी एवं कृष्ण पक्ष क़ी अष्टमी को एक महात्मा जी यहाँ आते है. कभी कभा नहीं भी आते है. मैंने कई बार कोशिस किया. लोगो के साथ जाता था. तथा निराश होकर लौटना पड़ता था. किन्तु एक बार दर्शन हो ही गये. नाम मात्र के वस्त्र शरीर पर, रंग बिल्कुल काला, आँखे बड़ी बड़ी बहुत ही चमक दार एवं तीव्र वेधन क्षमता वाली रोशनी से भरी हुई, बड़ी बड़ी दाढी मूंछें, लगभग सात फिट से भी ज्यादा लम्बाई, पूरे शरीर पर कोई बहुत ही खुशबूदार भष्म लपेटे हुए, बहुत ही भद्दी-मोटी शरीर क़ी चमड़ी किन्तु चेहरे पर साहस, सफलता एवं खुशी का ओज. एक सफ़ेद चट्टान जो मैदान के एक किनारे पर एक बड़े चिनार जैसे बड़े चपटे पत्तो वाले पेड़ के नीचे था, उसी पर बैठ जाते थे. किसी से डोगरी भाषा में, किसी से पश्तो तथा किसी से हिंदी में बाते बड़ी आसानी से करते है. एक चमड़े क़ी झोली उनके कंधे पर लटकी रहती है. लोग कहते थे कि ह़र बार उनकी झोली बदल जाती है. मुझे लगता था कि वह किसी जानवर के ताजा चमड़े से बनी झोली थी. वह कहाँ से और किस रास्ते से आते है, किसी ने नहीं देखा है. ऐसा सुनने में आया है कि उसी मैदा में किसी किनारे से एक सुरंग निकलती है जो जम्मू में बड़ीब्रह्मणा नामक जगह पर खुलती है. तथा जाम्बवंत जी इसी सुरंग से आते जाते थे. खैर मैंने सुरंग नहीं देखी, किन्तु उनके आने जाने को कोई नहीं देख पाता है. केवल सुगंध से ही पता लगता है कि अब महात्मा जी आने वाले है. वहां पर लाइन लगाने क़ी ज़रुरत नहीं है. चाहे आप कही भी बैठे, वह ज़रुरत मंद को दूर से भी बुला लेते है.
लेकिन एक बात आज भी प्रत्यक्ष है कि उस सौ किलोमीटर क़ी दूरी में कोई भी व्यक्ति दमा, टीबी, गठिया, संधिवात, कुष्ठ, आमवात या किसी अस्थि रोग से पीड़ित नहीं है. बहुत ही अचूक औषधि वह प्रदान करते है. एक रोग के लिये एक दिन में वह मात्र तीन या चार रोगी को ही दवा देते है. अर्थात गठिया के चार रोगी, कुष्ठ के चार रोगी आदि. मैंने पूछा भी था, किन्तु उन्होंने बड़ी सौम्यता से उत्तर दिया कि इतनी ही औषधि वह एकत्र ही कर पाते है. उनको यह बताने क़ी आवश्यकता नहीं है कि कौन दूर से आया है तथा कौन फिर दुबारा या तिबारा भी आ सकता है. इसीलिए लोग परस्पर झगड़ा भी नहीं करते है. क्योकि चाहे कितना भी परस्पर वाद विवाद कर लो, उन्हें जिसको औषधि देनी होगी, उसे ही वह देगें. चाहे कोई कुछ भी कर ले.
लोग  बताते है कि एक बार शेख अब्दुल्ला जो वहां के मुख्य मंत्री थे, अपने किसी रिश्तेदार को लेकर आये. उस दिन वह महात्मा आये ही नहीं. लगभग चार-पांच बार ऐसा हुआ, किन्तु वह महात्मा नहीं आये. लोगो को लगा कि शायद उन्हें किसी हिंसक जानवर ने मार डाला. सात महीने बाद वह फिर दिखाई दिये. लोग आने जाने लगे. फिर शेख अब्दुल्ला पहुंचे. किन्तु वह उस दिन नहीं आये. ऐसा कई बार हुआ. अंत में लोगो ने महात्मा जी से इसका कारण पूछा. उन्होंने बताया कि यदि कोई लाव लस्कर के साथ उनके पास आयेगा तों वह नहीं आयेगें. कुछ आतंक वादियों ने वहां अपना डेरा बनाना चाहा. किन्तु सभी बारी बारी मरते रहे. इसीलिए डर के मारे उस पहाडी क़ी तरफ आतंक वादी भी नहीं जाते है. अंत में शेख अब्दुल्ला क़ी रिश्तेदार वह महिला अन्य लोगो के साथ पैदल चल कर वहां पहुँची. तथा औषधि लेकर गयी. उस महिला ने महात्मा जी के उस बैठने वाले चट्टान को हटवाकर वहां पर ग्यारह कुंतल वजन के चांदी का बहुत ही नक्काशीदार आसन बनवाकर रखवाया. किन्तु महात्मा जी के बैठते ही वह काले मिट्टी में बदल गया. उन्होंने लोगो से उसे हटाने को कहा. लोग हटाने लगे तों वह टूट कर रेत क़ी तरह बिखर गया. फिर महात्माजी ने अकेले उतने बड़े भारी पत्थर को जिस पर वह बैठते थे, धकेल कर वही पर लाये जहाँ पर वह पहले बैठते थे. और फिर उसी पर बैठने लगे.
संभवतः अभी भी वह आते है, लेकिन किस महीने आयेगें, यह ठीक नहीं है. मैंने उनसे इसका भी कारण पूछा तों उन्होंने बताया कि अभी औषधियां बहुत कम मिल रही है. तथा लोग अब दुर्लभ औषधियों क़ी काला बाजारी भी करने लगे है. उन्होंने यह बात अच्छी तरह समझ लिया था कि मै कोई मरीज नहीं बल्कि उत्सुकता बस केवल जानकारी लेने के लिये गया हुआ था. आश्चर्य तब हुआ जब मैंने उनसे उनका फोटो खीचने का आग्रह किया. तों उन्होंने मंजूरी तों दे दी, किन्तु यह बता दिया कि शरीर पर लगे खुशबूदार भष्म पदार्थ के कारण उनका फोटो नहीं आ सकता. और बात भी सही थी, कोई फोटो नहीं आया.
महात्माजी  झोली में ढेर सारी जडी बूटियाँ भर कर लाते थे. किन्तु उन्होंने बता रखा था कि उनके पास श्वसन तथा अस्थि तंत्र के अलावा अन्य किसी भी व्याधि क़ी औषधि नहीं है. फिर भी लोग अंधश्रद्धा एवं विश्वास के कारण नया व्याधियो से ग्रसित होने पर भी जाते ही थे. आप को संभवतः यह जान कर और आश्चर्य होगा कि जम्मू तथा जम्मू से सटे किसी भी शहर या नगर के किसी भी अस्पताल में श्वसन या हड्डी के रोग से सम्बंधित कोई भी मरीज नहीं मिलेगा. मैंने तों बहुत खोजा. किन्तु कही कोई मरीज नहीं मिला. बस वही आदमी भूले भटके इन अस्पतालों में चला जाएगा जो इस महात्मा के बारे में नहीं जानता हो. या फिर उस बीहड़ में जाने से डरता हो. या फिर वातानुकूलित जगह को छोड़ना नहीं चाहता हो.
महात्मा जी ने जो जडी बूटियाँ कुछ मरीजो को दी थी, उन्हें मैंने देखा तों बहुत ज्यादा तों नहीं पहचान सका किन्तु ऐसा लगा कि भावार्थ रत्नाकर एवं शारंगधर संहिता में जो जडी बूटियाँ बतायी गयी है, वे ही है. थोड़ा बहुत अंतर दिखाई दे रहा था. जैसे डिडबेहडा. कहा जाता है कि यदि घोड़े क़ी भी टांग टूट गयी हो, तथा एक दिन से ज्यादा का विलम्ब नहीं हुआ हो तों इसे हल्दी के साथ पीस कर लगा देने से वह हड्डी तों जुड़ ही जाती है. अगले दिन वह घोड़ा फिर दौड़ने के लिये पूरी तरह तैयार होता है. फिर दूसरा बघमकोय- सुश्रुत ने बघमकोय को रक्त रोग के लिये रामबाण बताया है. उन्होंने तों इसके बारे में यहाँ तक कह दिया है कि यदि बघमकोय से कुष्ठ रोग ठीक नहीं हुआ तों चाहे शुक्राचार्य या अश्विनीकुमार ही क्यों न चिकित्सा करें, वह ठीक नहीं हो सकता. फिर तीसरा शीतलपाटी- वृहत्संहिता में कहा गया है कि जिस किसी कन्या को कुंडली में विषघात, विषकन्या या वैधव्य योग हो, या आर्द्रोपेत कणिकाओं जिसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान संभवतः अनुमान के सहारे स्यूडाफेड्रीलरी सेल्स कहता है, बेतरतीब (irregular) हो गयी हो, या देहातो या ग्रामीण आँचल में कहते है कि किसी दुर्योग के कारण जब किसी लड़की क़ी शादी नहीं हो पाटी है तों इस झाडी के मूल, छिलके एवं पत्तियों के रस के विविध प्रयोग से अचूक सफलता मिलती है. इसी शीतल पाटी वनस्पति से वर्त्तमान समय में “साराभाई केमिकल्स” नाम क़ी गुजरात स्थित दवा कंपनी अत्यंत मंहंगा कैप्स्यूल संभवतः उसका नाम “ब्लेंटाडीन” है बनाती है. जो एक कैप्स्यूल लगभग सात हजार रुपये से भी ज्यादा का मिलता है.
मैंने महात्माजी से यह प्रार्थना किया कि यदि यह औषधि सरकार बनाए तों इस पर और ज्यादा शोध होकर ज्यादा से ज्यादा लोगो के लिये प्रयुक्त हो सकती है. बहुत ही सोच कर एवं गंभीर मुद्रा में उन्होंने उत्तर दिया कि यदि इसे आज सरकार जान जाए तों इन गरीबो का क्या होगा जो सरकारी या बड़े बड़े चिकित्सालयों का भारी भरकम खर्च न उठा सकते हो? मै निरुत्तर हो गया.
मै अपनी नौकरी क़ी मज़बूरी के कारण फिर दुबारा न जा सका. या फिर इसलिए भी नहीं प्रयत्न किया कि बार बार इतना पैसा क्यों एवं कहाँ से खर्च करूँ? मैं ठहरा एक निश्चित वेतन पर काम करने वाला सरकारी नुमाइंदा. इसलिए फिर दुबारा उधर जाना नहीं हुआ.
किन्तु इतना निश्चित है कि वह महात्मा कुछ विशेष प्राकृतिक जडी बूटियों के बहुत ही उत्कृष्ट जानकार थे. जैसे उस सुगंध क़ी ऐसी कौन सी विशेषता थी कि उनके शरीर से टकराकर आने वाली किरणे कैमरे में नहीं आ पाती थीं?
मैंने उस स्थान का कुछ चित्र ले रखा है. किन्तु मेरे सिम कार्ड में मात्र कुछ एमबी यूसेज ही बचा हुआ है. इसलिए मैं इन्हें अपलोड नहीं कर पा रहा हूँ.
मैं  वर्ष 2003-2004 में जम्मू में पोस्टेड था. तों तीन चार बार उनके दर्शन हुए. मेरे साथ काम करने वाले कुछ एक लोगो को उनकी औषधि से अचूक लाभ भी हुआ. जो सैनिक चिकित्सालय में कई वर्षो से चिकित्सा करा रहे थे. किन्तु सेना क़ी नौकरी में इतनी छुट्टी कहाँ मिलती है? इसलिए मैं फिर उसके बाद वहां नहीं जा सका.  किन्तु फिर भी शिवखेरी के मेले में आज भी लोग कोने कोने से जाते रहते है. तथा उस संकरी गुफा में बड़ी ही कठिनाई से प्रवेश कर आशुतोष भगवान भोले नाथ का दर्शन कर उनकी कृपा प्रसाद प्राप्त कर अधिभौतिक एवं अधिदैविक विपदाओं से त्राण पाते रहते है.
पण्डित आर. के. राय
Email- khojiduniya@gmail.com

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