चाहे कोई कुछ भी कह ले, आयुर्वेद एवं ज्योतिष आज की आवश्यक आवश्यकता बन चुके है. अब अपना झिझक छिपाने, अपना हठ दर्शाने या खिझियानी बिल्ली की तरह खम्भा नोचने की तरह कोई लाख आयुर्वेद एवं ज्योतिष की बुराई करे, इसको झूठा, पाखण्ड, प्रलाप, दिवा स्वप्न या कुछ भी कहे, बस यह उसकी मानसिक थकान, उद्विग्नता, अज्ञान या विनाश कारी हठ के सिवाय और कुछ भी नहीं है. आप बहुत सोच में पड़ गए होगें क़ि मैं आज यह बात इतनी दृढ़ता से क्यों कह रहा हूँ? जी हाँ, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पिछले दिनों भौतिक विज्ञान का विश्व का सबसे बड़ा पुरस्कार प्रदान किया गया. इसके समापन में केलिफोर्निया विश्व विद्यालय के प्रोफ़ेसर आर. जेड. निक्विद, आर्कफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर विलियम क्यूसेक रोजर, हार्सेस्टर शायर के प्रोफ़ेसर मेरिन एस. क्वार्ड़ो तथा और भी विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं चिकित्साविद शिरकत किये थे. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही शिक्षण कार्य करने वाले तथा मेरे विचारों के घन घोर विरोधी प्रोफ़ेसर, गोपनीयता के चलते तथा उनके सम्मान को ध्यान में रखते हुए उनका नामोल्लेख यहाँ मै नहीं कर रहा हूँ, वैसे जो तीन अगस्त को दूरदर्शन पर समाचार देखे होगे या प्रसिद्ध समाचार पत्रों का अवलोकन किये होगें उन्हें उनका नाम एवं उनका वक्तव्य अवश्य पढ़ने को मिला होगा. जो आज लगभग पंद्रह वर्षो से भगंदर रोग से पीड़ित थे. तथा उन्होंने संसार के किसी भी छोटे बड़े अस्पताल का सहयोग लिए वगैर नहीं छोड़ा था, आखिर कार ज्योतिषाचार्य पंडित रामदास ओझा, प्रवक्ता, प्राच्य विद्या संस्थान की शरण में सात फरवरी 2010 को पहुंचे. मुझसे उन्होंने आत्म ग्लानी के चलते संपर्क नहीं किया. क्योकि वह शुरू से मुझे ढपोर शंख एवं पोंगा पंडित कहा करते थे. और आज वह बिलकुल स्वस्थ है. इसकी जान कारी उन्होंने खुद ही अपने वक्तव्य में समस्त गणमान्य आगंतुको, प्रसिद्ध वैज्ञानिकों एवं विदेशी विशेषज्ञों की उपस्थिति में दी.
वैसे तो मै और भी अन्य व्यक्तियों का उदाहरण दे सकता हूँ. किन्तु इस विशेष घटना का उल्लेख यहाँ पर इसलिए किया क्योकि इसका सम्बन्ध एक विशेष एवं उच्च स्तरीय सामाजिक स्तर प्राप्त व्यक्ति से था. और जिसे ढेर सारे लोग जान गए है.
ज्योतिष एक विज्ञान है. यह किसी धर्म विशेष या स्थान विशेष के लिए नहीं आविष्कृत किया गया है. यदि सूर्य हिदुओं के लिए परावैगनी (Ultra Violet) किरणे देता है. तो मुसलमानों के लिए नीलाश्म द्युति (Thailamilik) किरणे नहीं देगा. या चन्द्र ग्रहण के समय यदि सेमल तथा अरंडी का पेड़ हिन्दुओ के लिए उद्रेक धूम (polisoak) फैलाते है. तो ईसाईयों के लिए इससे प्राणवायु (Oxygen) नहीं निकल सकती. यदि सूर्य के नजदीक जाने से शनि की किरणे हिन्दुओ के लिए ज्यादा ज़हरीली हो जाती है. तो यहूदियों के लिए उससे स्वास्थय वर्धक किरणे नहीं निकल सकती.
इतना प्रत्यक्ष एवं स्पष्ट होने के बावजूद भी कुछ एक परम हठवादी अपनी अलग एवं विशेष छवि बनाने एवं सबसे पृथक एवं उत्कृष्ट प्रदर्शित करने के लिए इसकी भर्त्सना एवं आलोचना में तन-मन-धन से समर्पित है. ताकि सबकी नज़र इनकी तरफ अनायास ही आकर्षित हो सके. तथा यह रूढ़िवादिता से ऊपर, सभ्यता के बिलकुल सन्निकट विद्वान एवं पढ़े लिखे लग सकें. तथा लोग इन्हें विशेष सम्मान की दृष्टि से देख सकें.
इस तरह ये जान बूझ कर अपना तो नुकसान करते ही है, साथ में अपने साथियो, परिचितों एवं संबंधियों को भी गुमराह कर उन्हें वंचित नहीं बल्कि प्रवंचित करते है.
इसमें क्या धोखा है की सूर्य की किरणे सात रंगों का समूह है? इसे ही यदि संस्कृत में कह दिया गया की “सप्ताश्व रथमारूढा” तो यह झूठा कैसे हो गया? क्या उसी भाव को अंगरेजी में कह देने से वह सत्य हो जाता है? तथा हिंदी या संस्कृत में कह देने से झूठा हो जाता है? अंतरिक्ष में सौर मंडल के अप्रकाशित उल्का पिंड या ग्रह यदि सूर्य के इन विविध रंग वाली किरणों से अलग अलग रंगों से अलग अलग प्रकार के दिखाई देते है. तथा इसी आधार पर यदि उनका नाम उसी प्रकार रख दिया गया तो यह झूठा कैसे हो गया? इसी आधार पर तो ये सात ग्रह बने है. सूर्य से लेकर शनि तक का नाम करण इसी आधार पर तो है. राहू एवं केतु छाया ग्रह होने के कारण इनका स्थान ज्योतिषीय गणना के लिए ही प्रयुक्त होता है. व्यवहार में इनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है. तो क्या यही बात हिंदी में कह दी गयी तो यह गलत हो गया?
क्यों कर के लोगो को गुमराह किया जा रहा है? कुछ लोग तो ऐसे अवश्य है जिन्हें लोगो को गुमराह करने से फ़ायदा हो सकता है. जैसे बहुत सी औषधियां आज भी विदेशी पेटेंट के अधीन है. यदि उनका आयात अस्पतालों के लिए किया जाय तो उन विदेशी संस्थाओं से कमीसन मिल सकता है. तथा कमाई हो सकती है. या फिर आज भी बहुत सारी मशीनें या संयंत्र ऐसे है जिन्हें विदेशो से मंगाना आवश्यक है. तथा उन विदेशी संस्थाओं से दलाली के रूप में पैसे कमाए जा सकते है. और यदि इसके बदले में अपनी स्वदेशी स्तर पर ही इनका विकाश किया जाय तो कोई दलाली नहीं मिलाने वाली. इससे इन दलालों को घाटा हो जाएगा. इसलिए यदि ऐसे व्यक्ति ज्योतिष या आयुर्वेद की आलोचना या भर्त्सना करते है, तो यह तो बात समझ में आती है.
जैसे मौसम विज्ञान के नाम पर कई संस्थान खोले जा चुके है. वहां से भविष्य वाणी होती है की दो-तीन दिनों में मानसून दिल्ली में प्रवेश करने वाला है. उसके बाद दो तीन दिन बाद यदि वर्षा नहीं हुई तो मौसम विभाग द्वारा घोषणा कर दी जाती है की मानसून का रुख पूर्व दिशा की और मुड़ जाने के कारण अभी मानसून आने में देरी हो सकती है. यह है मौसम विभाग की भविष्य वाणी. इसके अलावा जब कोई भूकंप आकर गुजर जाता है. जान माल का नुकसान कर जाता है. तो उसके बाद मौसम विभाग द्वारा बड़े गर्व के साथ यह घोषणा की जाती है की रेक्टर स्केल पर भूकंप की इतनी तीव्रता आंकी गयी है. भारी भरकम धनराशि इस विभाग के नाम पर खर्च करने तथा ऐसी ही अन्य संस्थाओं के निर्माण हेतु अथाह धन लगाने का परिणाम क्या निकला है? परिणाम यह निकला है की मानसून ने रूठ कर अपना रुख बदल दिया. तथा रेक्टर स्केल पर भूकंप की तीव्रता माप ली गयी.
अब आप सोचिये इस रेक्टर स्केल पर इसकी तीव्रता माप लेने से क्या लाभ हुआ? क्या जान माल के नुकसान को बचाया जा सका? लेकिन फिर भी इसे बढ़ावा दिया जाएगा. कारण यह है की इसमें प्रयुक्त होने वाली मशीनें विदेशो से मंगाई जाती है. तथा उन्हें वहां से मंगाने पर दलालों को अच्छी खासी रकम दलाली के रूप में मिल जाती है. अब पंडित जी के ज्योतिष के लिए कौन सी मशीन विदेश से मंगाई जायेगी? इस प्रकार इसमें तो किसी दलाली की कोई संभावना ही नहीं बनती है.
भारत देश की जिस ज्ञान रूपी अनमोल धरोहर के आधार पर विविध औषधियां एवं यंत्र विकशित कर आज दुनिया के विविध भूखंड अपने आप को विकशित या समर्थ होने का दम भर रहे है. उसी ज्ञान की उपेक्षा कर आज भारत देश भीखमंगो की तरह इन्ही उपकरणों एवं उपस्करों के लिए इन देशो की तरफ टकटकी लगाए भीख की झोली फैलाए हुए है. इससे बड़ा अभिशाप किसी के लिए भी और क्या हो सकता है?
आज माईक्रोस्कोप, टेलिस्कोप, बाईस्कोप, तेईसकोप चौबीसकोप आदि पता नहीं कितने कोप बनाकर अंतरिक्ष में ग्रहों की गति एवं दिशा का अनुमान लगाया जा रहा है, उसे वैदिक ज्योतिषीय गणित विज्ञान ने बिना किसी कोप के अपने गणित के सहारे सेकेंडो से भी सूक्ष्म मात्रा में उन ग्रहों की गति माप लिया है. और आज से हजारो साल से आज तक बिना किसी कोप के सूर्य ग्रहण, चंद्रग्रहण, ज्वार भाटा, सूर्योदय, चंद्रोदय आदि बिना किसी त्रुटी के सिद्ध कर देते है. वाराणसी, देहरादून, नासिक, जालंधर आदि स्थान जहाँ पर पंचांग तैयार किये जाते है, वहां पर कोई कोप नहीं लगाया गया है. किन्तु फिर भी सेकेंडो से भी सूक्ष्म ग्रह-गति का माप कर लिया जाता है.
लेकिन फिर बात वही आकर रुक जाती है. आखिर पंडितो के पास ऐसा कौन सा संयंत्र है जिसे विदेशो से आयात किया जाय? या जिन उपकरणों के निर्माण के लिए कोई कंपनी लगाने के लिए सरकार से टेंडर निकलवाकर ठेका अपने नाम लिया जाय?
आधुनिक चिकत्सा विज्ञान की आविष्कृत औषधियों से अतिरिक्त घातक प्रभाव की आशंका सदा ही रहती है. एसिटिक सैलिसिलिक एसिड वाली कोई भी दर्द निवाराक एलोपैथिक दवा ह्रदय के आलिन्द (आर्टरी) को सख्त बना देती है. और व्यक्ति की मृत्यु ह्रदय गति रुकने से हो सकती है. पाचन के लिए प्रसिद्ध “डायजीन” या मैग सल्फ़” लेने से पाचनतंत्र के अन्दर का पदार्थ तो पच जाएगा. किन्तु इसका मैगनिसियम एवं सल्फा सेटामायिड संग्रहणी (ड्यूओडीनम) के वाल्व पर छोटे छोटे गाँठ बन कर बैठ जाते है. तथा ड्यूओडिनल अर्बुद (कैंसर) की शत प्रतिशत संभावना बन जाती है. ह्रदय गति के नियमन के लिए दिया जाने वाला कोरामीन ह्रदय के तीसरे कक्ष निलय को दूसरे या तीसरे बार में सदा के लिए निष्क्रिय कर देता है. आँखों या कान में डाले जाने वाले वे सब एलोपैथिक दवा या यौगिक जो सल्फामेथाक्साजाल, सल्फाथायामीन या सल्फासेटामायिड के संयोग से निर्मित होते है, ओफ्थाल्मिक सिस्टम (दृष्टि तंत्र) के निक्लियोराईड डक्ट को अपवर्तक या रेट्रोगेटेड या उलटी चाल वाली बना देते है.
कहने का तात्पर्य यह है की यदि आप एलोपैथिक चिकित्सा का आश्रय लेते है तो यह शत प्रतिशत आश्वस्त होकर चलिए की तत्काल दूसरे रोग की दवा के लिए अस्पताल जाना पडेगा.
इसके विपरीत आयुर्वेद में इसकी कही कोई संभावना नहीं होती है. जो ज़हर है, वह ज़हर है. उसकी कोई औषधि निर्मित नहीं हो सकती. उसे सदा के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया है. और तो और, भांग जैसे अल्प मात्रा में नशा करने वाले पदार्थ को भी औषधि योग से वंचित रखा गया है. आयुर्वेद में इसका प्रयोग केवल औषधि के रूप में नहीं बल्कि अवरोधक के रूप में किया गया है. प्रतीकात्मक रूप में भगवान शिव ने हलाहल को भी उदरस्थ न कर के अपने कंठ में ही स्तंभित कर के इस बात का निरूपण कर दिया गया है की यह खाने या निवृती हेतु नहीं बल्कि स्तम्भन के लिए ही प्रयुक्त किया जा सकता है. किन्तु एक बात यह अवश्य देखने में आई है की वर्त्तमान आवश्यकता, मांग या ज्यादा धन कमाने की प्रतिस्पर्धा में आज आयुर्वेदिक कम्पनियां भी इनका प्रयोग औषधि निर्माण में करने लगी है. जो मूल भूत आयुर्वेदीय मान्यताओं के विपरीत है. ज़रा ध्यान से इस वेद वाक्य के कूट को देखे-
नशीली या प्राणघातिनी वनस्पतियों का प्रयोग औषधि के रूप में प्रतिबंधित है. किन्तु धन की तितिक्षा जो न करवा दे. जैसे मैं घर-परिवार, बीबी बच्चे, गाँव-नगर एवं सगे संबंधी छोड़ कर वेतन के रूप में आजीविका चलाने के लिए भटक रहा हूँ.
“माया महा ठगिनी हम जानी.”
अस्तु, मूल मार्ग से भटकने के बजाय अब यह देखने में निश्चित रूप से आ गया है की जितने भी लोग प्राणपण से ज्योतिष एवं आयुर्वेद की आलोचना एवं भर्त्सना में लगे थे. वे सब प्रत्यक्ष या चोरी छिपे अब इसकी तरफ ढुलकते चले आ रहे है. चलिए सुबह का भूला यदि शाम को घर लौट आये तो उसे भूला नहीं कहते है. किन्तु ऐसा नहीं होना चाहिए की-
“what to lock the stable yard after when the steed is stolen”
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