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दुर्गा एवं कलिकाल

वेद विज्ञान
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दुर्गा एवं कलिकाल
“कलौ चंडी विनायकौ” अर्थात कलिकाल में चंडी के साथ विनायक की ही पूजा सार्थक एवं फल देने वाली होगी. वास्तव में कलिकाल में होने वाली घटनाओं एवं दुर्घटनाओं को ध्यान में रखते हुए यह देखा गया क़ि इस प्रचंड कलिकाल में यदि कोई पूजा आदमी सफलता पूर्वक एवं मनोयोग से कर सकता है तो वह तात्कालिक शक्ति की उपलब्धता को ध्यान में ही रखकर कर सकता है. कारण यह है क़ि कलिकाल में लम्बी पूजा एवं तपस्या करने से लोग ऊब महसूस करेगें. इनको चटपट या शीघ्र फल चाहिए. इसके लिए एक मात्र साधन दुर्गा की पूजा ही है. दुर्गा की पूजा थोड़े समय में, कम सामग्री में तथा किसी भी स्थान पर की जा सकती है. बस उस स्थान, सामग्री एवं मुहूर्त के अनुरूप दुर्गा का भी रूप होना चाहिए. यहाँ दुर्गा के रूप से तात्पर्य नौ दुर्गा से नहीं, बल्कि उन सत्ताईस रूपों से है जिनका वर्णन श्रीमद्देवी भागवत महापुराण के मातृखंड में आया है. देखें चौखम्भा प्रकाशन, बाम्बे प्रकाशन या कचौड़ी गली वाराणसी से प्रकाशित श्रीमद्देवी भागवत महापुराण का द्वीतीय भाग.
मार्कंडेय पुराण में वर्णित दुर्गा के नौ रूप अप्रमेय, अनुपम, अलौकिक एवं शाश्वत रूप है. इनकी पूजा में बहुत कठोर व्रत, प्रतिबन्ध एवं तपस्या की आवश्यकता होती है. किन्तु इसका फल चिरस्थाई होता है. तथा जन्म जन्मान्तर के लिए होता है. किन्तु मातृखंड में वर्णित रूपों का अनुष्ठानं तात्कालिक सुख देने वाला, संकट दूर करने वाला एवं बाधा-रोग-शोक आदि से मुक्ति देने वाला होता है. इन्ही सत्ताईस रूपों का वर्णन दूसरे प्रकार से चीन में किया जाता है.  चीन के उत्तरी हिस्से में हीलोंगजियांग नामक प्रांत में इसकी राजधानी हार्बिन एवं जिक्सी शहर के मध्य ल्यूमाक्सियांग नामक स्थान है. इसका पूर्वी भाग घनघोर जंगल एवं पहाडियों से घिरा है. ध्यान रहे यह उसी आतंरिक मंगोलिया से घिरा स्थान है जहाँ पर आर्यों का उद्गम स्थल माना गया है. इन पहाडियों में एक पर्वत श्रृंखला बड़े अजीब प्रकार से बनी है. इन पहाडियों से दश बारह किलोमीटर की दूरी पर खडा होकर यदि इन्हें देखा जाय तो ये पहाड़ियां एक औरत के रूप में दिखाई देती है जो किसी जंगली जंतु पर सवार है. इन्ही पहाडियों में एक नुकीली और थोड़ी टेढ़ी पहाडी है जिसे यहाँ के लोग कान्चिंग कहते है. यहाँ पर ऊपर स्थित एक बहुत भयावनी देवी का बहुत ही विशाल गुफानुमा पूजा स्थल है. उस देवी का भी नाम कान्चिंग ही है. यह लगता है जैसे महाराष्ट्र के औरंगाबाद स्थित एलोरा की कोई गुफा है. किन्तु एलोरा में 34 गुफाएं है. यह एक ही गुफा है. जो बहुत ही विस्तृत है. इसमें सत्ताईस विकराल रूप वाली देवियों की प्रतिमाएं है. और आप को यह जान कर और आश्चर्य होगा क़ि इन देवियों का नाम भी लगभग हिन्दुओ के सत्ताईस नक्षत्रो के नाम से बहुत कुछ मिलता जुलता है. तथा इन देवियों की सिद्धि का विधान भी बहुत कुछ हिन्दू विधि विधान से मिलता जुलता है. एक अंतर अवश्य है क़ि यहाँ पर न तो कोई बलि का विधान है और न ही कोई पुरोहित या पंडा मिलता है. लोक कहावत के अनुसार यहाँ जो शुल्क या दक्षिणा लेता है, वह अंधा हो जाता है. सच्चाई क्या है, मुझे नहीं मालूम. विविध प्रतिमाओं के पूजन का विधान उन देवियों की प्रतिमाओं के नीचे बने चबूतरे पर चीनी या ऐसी ही किसी भाषा में लिखी है. दक्षिणी-पश्चिमी मिश्र तथा रोम के तटवर्ती प्रान्तों में भी ऐसी ही देवियों की प्रतिमाओं वाले सिद्धि स्थल बने हुए है. किन्तु भारत में जितनी पूजा-पाठ या सिद्धि विधान में जटिलता है, इन देशो में ऐसा नहीं है.
जो भी हो, दुर्गा या शक्ति के अनुष्ठानं से वर्त्तमान काल में अनेक विध राहत या शान्ति मिल सकती है. यहाँ दुर्गा के एक रूप की संक्षिप्त विधि का उल्लेख कर रहा हूँ-
दुर्गा के सत्ताईस रूपों में एक रूप है उदग्रकीर्ति. विविध स्थानों के वर्णन साम्य से ऐसा लगता है क़ि यह रूप छिन्नमस्ता का ही है. क्योकि इस रूप में माता दुर्गा का सिर का भाग नहीं होता है. केवल धड ही होता है. इसके अनुष्ठानं के विधि सरल किन्तु बड़ी खर्चीली है. एक ताम्बे की छ अंगुल ऊंची बिना मस्तक वाली दुर्गा की प्रतिमा तैयार करावे. जिसकी आठ भुजाएं हो. उसके बगल में ताम्बे का ही सिंह हो. उस दोनों प्रतिमा को उत्तर की तरफ मुख कर के मोटे काले कपडे पर विराज मान करे. अपने आसन से उस प्रतिमा के नीचे लगे काले वस्त्र के नीची तक एक नंगा ताम्बे का पतला तार या छड लगा दे. प्रतिमा के सम्मुख छोड़ कर लूम लेप कर दे. लूम लेप गेहू के दाने को जलाकर तथा उसे केले एवं इमली के ऱस में पीसने से बनता है. अगर बत्ती का उपयोग न करें. केवल धुप ही जलाएं. या गूगल, लोबान, अगरु एवं तगरु के मिश्रण की धूनी जलाए रखें. जटामांसी, लटजीरा, उदुम्बर या गूलर के सूखे बीज, अनार के दाने, लाख, गुड, काला तिल, कमल गट्टा के बीज, उडद की बिना छिलके की डाल, त्रिपत्रिका का छाल तथा शुद्ध देशी घी, इन सबको एक में मिलाकर एक मिट्टी के बर्तन में रख लें. एक हाथ लंबा-चौड़ा तथा चार अंगुल गहरा एक गड्ढा खोद लें. तथा उसमें केवल शमी तथा गूलर की सूखी लकड़ी सजा लें. उसके बाद जिस व्याधि, या कष्ट या दुःख की निवृत्ति हेतु अनुष्ठानं करना हो उससे सम्बंधित द्रव्य लेवे. और उसे एक ताम्बे के बर्तन में पानी में डाल कर रख ले. एकल वस्त्र धारण कर ले. तथा उस गड्ढे में सजाई लकड़ी में कपूर की सहायता से निम्न मन्त्र पढ़ते हुए आग जलाए-
“ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं स्वः वृकाय नमः
.  यह मन्त्र लकड़ी में कपूर डालने के बाद इक्कीस बार पढ़े. जब आग जलने लगे. तब आम के पट्टे से बने स्रुवा के सहारे वह हवन सामग्री आग में डालता जाय तथा निम्न मन्त्र पढ़ता जाय.
उग्राय उग्रकवचाय महौषधि सिद्ध्याय छिन्न मस्ता प्रीत्याय हविषा विधेम. स्वाहा.
जितनी बार हवन सामग्री आग में डाले उतनी बार वह स्रुवा ताम्बे के बर्तन में रखे द्रव्य वाले पानी में डुबाता जाय. मात्र एक सौ आठ बार ही आहुति डाले. और वह द्रव्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है. उसके बाद वह द्रव्य वाला जल उस प्रतिमा के ऊपर डाल देवे. यह जल भी इकट्ठा नहीं डालना चाहिए. बल्कि थोड़ा थोड़ा कर के सत्ताईस बार डालना चाहिए. और निम्न मन्त्र पढ़ते रहना चाहिए-
या ते रूद्र शिवा तनूरघोरापापकाशिनी तयानस्तन्वा शंत मया गिरीशन्ताभी चाक शीहि.
तदुपरांत वह द्रव्य पीड़ित को धारण करा दे. विघ्न बाधा शांत हो जाती है. इसे सदा कृष्ण पक्ष की अष्टमी या अमावश्या को रात में ही करना चाहिए. भर सक जब भोर हो, तभी इसका समय बहुत अच्छा माना जाता है.
किन्तु जो व्यक्ति किसी भी तरह के चर्म रोग से पीड़ित हो उसे यह अनुष्ठानं नहीं करना चाहिए.  प्रतिमा का विकिरित द्रव्य मिश्रित जल एवं हवन के धूम में मिश्रित बकोल्क वायु बहुत नुकसान पहुंचाती है.
कुंडली में यदि शुभ ग्रहों की अवस्था स्थान या दृष्टि-युति भेद के कारण हानि कारक हो गयी हो, तो इसे कदापि नहीं करनी चाहिए. यह तभी करना चाहिए जब अशुभ ग्रह अपनी अवस्था या भाव विशेष के कारण दुःख दाई हो गए हो. इसे प्रत्येक व्यक्ति नहीं कर सकता. सबके लिए पृथक प्रतिमा एवं पूजन विधान का नियम है. यह एक अति उग्र क्रिया है. इसमें प्रयुक्त होने वाले पदार्थ भी लगभग विषैली प्रकृति वाले ही है. जैसे यदि लाजावर्त को ताम्बे के बर्तन में आधे घंटे तक गर्म पानी में डाल कर रखा जाय तो वह जल ज़हरीला हो जाता है. और उसमें यदि लाख एवं गुड मिला दिया जाय तो वह बहुत भयंकर विष बन जाता है. इसलिए पूजन तो बहुत छोटा एवं सरल है. किन्तु बहुत ज्यादा सावधानी रखनी पड़ती है.
इसीप्रकार गणपति के भी विविध रूपों की पूजा का विधान है. दाक्षिणात्य पद्धतियों में इसका विषद विवेचन उपलब्ध है.
अथर्ववेद की ऋचाओं में यह सब मिल सकता है. डाक्टर सुरेश चन्द्र मिश्र ने इसके सटीक अनुवाद का गुरुतर प्रयास किया. बहुत हद तक सफल रहे. किन्तु वेद तो वेद ही है. उसका सम्पूर्ण एवं सपाद विवेचन असंभव तो नहीं कह सकता, किन्तु वर्तमान कलिकुचक्र को देख कर यह असंभव ही लग रहा है.
महर्षि दयानानद ने भी ऋग्वेद, सामवेद एवं यजुर्वेद तक ही अपना ध्यान केन्द्रित रखा. अथर्ववेद पर टीका एवं व्याख्या को उन्होंने आलसियों एवं निठल्लो तथा साथ साथ और भी लोगो को निठल्ला और अकर्मण्य बनाने का साधन कह कर इस पर टीका से अपने आप को पृथक रखे.
वास्तव में महर्षि दयानंद सरस्वती की बौद्धिक क्षमता विलक्षण रूप से उत्कृष्ट थी. उन्होंने यह जान लिया क़ि यदि अथर्व वेद की ऋचाओं का उदाहरण सहित व्याख्या कर डी गयी तो लोग सहज राह के अनुयायी बन जायेगें कोई भी श्रम करना नहीं चाहेगा. और अति लघु मार्ग (शोर्ट कट) को अपनाने के चक्कर में संसार की वास्तविक स्थिति एवं आदर्श सञ्चलन व्यवस्था से विमुख हो जाएगा. जो आज हो रहा है.
अस्तु, जो भी हो, कराल कलिकाल के कठोर कुठाराघात से त्रसित होना ही मानव को पछता कर, हार थक कर तथा अशक्त होकर पुनः उस मार्ग पर डालेगा जो चिरस्थाई, शाश्वत सत्य एवं वेद विहित है. जब चारो और से सब कर्म कर के मानव निराश हो जाएगा तब उसे अंत में इसी मार्ग को अपनाना ही पडेगा. इसमें कोई संदेह या तर्क वितर्क की गुन्जाईस ही नहीं है.
मनिवल्लभ (संभवतः रामानुजाचार्य प्रथम) की टीका अथर्ववेद की ऋचाओं पर उपलब्ध है. उन्होंने बहुत ही सुन्दर, सहज व्याख्या की है. यद्यपि यह मूल रूप में कन्नड़ भाषा में है. तथा आज भी तामिलनाडू के तंजौर स्थित प्रसिद्ध शिवमंदिर के ग्रंथालय में राखी हुई है. मूल रूप में यह ताड़ पत्र पर लिखी है. किन्तु इस ग्रन्थ में जो वृत्तांत दिए गए है, वे आज के विज्ञान को भी भौंचक्का करने वाले है. सूर्य की जिन किरणों को पूंजीभूत (Focused) कर आज का विज्ञान सौर ऊर्जा पर विविध संयंत्र स्थापित कर रहा है, उसका वर्णन अथर्ववेद की ऋचाओं में वर्णित है.
जैसे किसी भी उत्ताल दर्पण (Convex Lens) को सूर्य के सम्मुख एक निश्चित कोण पर स्थिर कर दिया जाय तो उसकी किरण भयंकर आग लगा सकती है. तथा यदि इस पूंजी भूत किरण को यदि लिंटेथीनायिड ट्रेक्लोडायिसिन (सुहागा, साठी के चावल का मांड, शहद, घी, बिनौले के तेल एवं कपूर) के विलयन से गुजारा जाय तो यह घोल या विलयन क्षण भर के लिए मौत को भी स्तंभित कर सकता है. अर्थात ह्रदयगति तत्काल नहीं रुकने पाती.
ऐसी ही अन्य विधियों का उल्लेख दुर्गा की विविध प्रतिमाओं के अनुष्ठानं के सन्दर्भ में दिया गया है.
इस प्रकार वर्त्तमान समय को देखते हुए इन अचूक किन्तु छोटी विधियों का वर्णन किया गया है. वृहद्भ्रामरी और दन्तमंजरी (ये दोनों ग्रन्थ आज भी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के केन्द्रीय ग्रंथागार के दुर्लभ पांडुलिपि कोष में उपलब्ध है) में इसका जो विवेचन मार्तंड मुनि ने दिया है, वह निश्चित रूप से आधुनिक विज्ञान के लिए विचारणीय है.
इस विचित्र एवं वृहद् आख्यान को इस लेख में और मुझ जैसे कलिपीड़ित वेतन भोगी कर्मचारी के द्वारा सम्पूर्ण रूप में प्रस्तुत करना एक हास्यास्पद प्रयत्न ही होगा. किन्तु उत्कंठा को आत्म संवृत्त न कर पाने के कारण इसका उल्लेख यहाँ करना मै उचित समझा. इसकी उपयोगिता, उपादेयता एवं सार्थकता के साथ मेरा प्रयत्न इसके अनुपालन एवं सिद्धि सफलता पर निर्भर है.
पंडित आर. के. राय
Email- khojiduniya@gmail.com

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