किसी भी काम की सफलता के लिए व्यक्ति हर संभव प्रयत्न करता है. हर मार्ग अपनाता है. किन्तु फिर भी सफल नहीं हो पाता है. कुंडली के बारह भावो से इन कार्यो का वर्गीकरण सपष्ट किया गया है. मै यहाँ पर प्रचलित एवं प्रसिद्ध भावो का उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ.
लग्न भाव– कुंडली में प्रथम भाव को लग्न या तन भाव कहते है. यह शरीर की अवस्था, यश, सामाजिक स्तर, प्रकृति एवं आकार प्रकार आदि को प्रतिबिंबित करता है. सामान्य सिद्धांतो के अनुसार लग्नेश एवं लग्न दोनों शुभ ग्रहों से युत-वीक्षित हो तो इस भाव का समग्र अनुकूल फल प्राप्त करता है. किन्तु विशेष नियम इस प्रकार है. जैसे मान लीजिये आप कोई सामाजिक कार्य कर रहे है. किन्तु उसका परिणाम विपरीत मिल रहा है. आप को उसका कोई यश या प्रसिद्धि नहीं मिल पा रही है. इसके पीछे कारण यह है क़ि या तो द्वादशांश कुंडली में लग्नेश एवं लग्न दोनों ही पीड़ित हो. और त्रिषडायेश की महादशा में किसी त्रिषडायेश की ही अन्तर्दशा चल रही है. या लग्नेश की महादशा में त्रिषडायेश की अन्तर्दशा चल रही हो. या जिस योगिनी की भी महादशा चल रही हो उसका स्वामी नवांश कुंडली में त्रिषड में बैठा हो. या पाचक दशा तथा संध्या दशा में भावसप्तक की अवस्था चल रही हो. इनमें से कोई भी दो शर्तें यदि उपस्थित है तो चाहे कुछ भी कर लें, प्रयत्न करने का कोई भी शुभ या अनुकूल परिणाम नहीं मिलने वाला. शरीर कमजोर, स्वभाव चिडचिडा तथा किसी अनजाने भय से संताप बढ़ता रहेगा.
चतुर्थ भाव– कुंडली में चौथे भाव को मामा, माता, सुख एवं शान्ति का घर मानते है. यदि चतुर्थांश कुंडली में लग्न और लग्नेश दोनों पीड़ित हो, तथा द्वितीयेश की महादशा में सप्तमेश, एकादशेश या व्ययेश की अन्तर्दशा हो, या जिस योगिनी की महादशा चल रही हो उसका स्वामी त्रिषड में बैठा हो, या आठवें या ग्यारहवें भाव में से किसी के स्वामी की महादशा तथा उसमें किसी भी पापी ग्रह की अन्तर्दशा चल रही हो, या संध्या दशा में पाचक दशा के ग्रह की स्थिति कुंडली में किसी त्रिषड भाव में हो, तो माता विविध रोगों से कष्ट पायेगी, मामा कंगाल होगा, सुख के सारे साधन-संसाधन नष्ट हो जायेगें. कोई उपाय काम नहीं करेगा.
पंचम भाव – पांचवां भाव विद्या एवं संतान तथा राजकीय सम्मान का है. यदि षोडशांश कुंडली में लग्नेश एवं लग्न दोनों ही पीड़ित हो. तथा तृतियेश की महादशा में सप्तमेश या सप्तमेश की दशा में तृतियेश की अन्तर्दशा चल रही हो, या जिस योगिनी की महादशा चल रही हो उसका स्वामी तृतीय या सप्तम भाव में बैठा हो, या विषम भाव की संध्या दशा में पंचम भाव की पाचक दशा चल रही हो तो संतान संबंधी सुख से विमुख होना पड़ता है. तथा शिक्षा में अवरोध उत्पना हो जाता है. और हर कोशिस बेकार होती है.
सप्तम भाव – सातवाँ भाव दाम्पत्य सुख एवं व्यावसायिक स्थिति को प्रतिबिंबित करता है. यदि सप्तमांश कुंडली में सप्तमेश या सप्तम भाव तथा लग्नेश एवं लग्न भाव दोनों पीड़ित हो तथा उस ग्रह की महादशा में किसी तृषडायेश की अन्तर्दशा चलरही हो जिस योगिनी का स्वामी वह ग्रह हो तो चाहे कुछ भी कर लें, वैवाहिक जीवन विषाक्त हो जाता है. व्यवसाय में भयंकर हानि होती है. किन्तु उपरोक्त दोनों शर्तें यदि साथ हो तभी यह संभव है. अर्थात सप्तमांश कुंडली के लग्न एवं सप्तम भाव तथा उसी कुंडली के लग्नेश एवं सप्तमेश पूरे पीड़ित एवं अत्यंत निर्बल हो तभी यह पीड़ा मिलेगी.
नवम भाव– नवम भाव से धार्मिक स्थिति, रूचि, भाग्य, सहन सीमा एवं आचार-विचार का निर्धारण किया जाता है. यदि नवमांश कुंडली में लग्नेश एवं नवमेश तथा लग्न भाव एवं नवम भाव दोनों ही दोस्षित, पीड़ित एवं निर्बल हो तथा उस ग्रह की महादशा में किसी तृषडायेश की अन्तर्दशा चलरही हो जिस योगिनी का स्वामी वह ग्रह हो तो व्यक्ति भाग्य हीन होता है. वह मांसाहारी एवं अधार्मिक होता है. कोई भी काम चाहे कितना भी सोच समझ कर क्यों न करे, सफल नहीं होता है. उपरोक्त प्रकार से यहाँ भी यह आवश्यक है क़ि नवमांश कुंडली में लग्न, नवम भाव तथा लग्नेश एवं नवमेश एक साथ ही चारो पीड़ित, निर्बल एवं दूषित हो.
दशम भाव– दशम भाव से पूर्वजन्म कृत कर्मो की प्रवृती, प्रकृति, मात्रा, पिता की स्थिति, नौकरी, राजकीय सामान-दंड आदि का निर्धारण किया जाता है. दशमांश कुंडली में यदि दशम भाव तथा उसका स्वामी एवं लग्न भाव तथा उसका स्वामी ये चारो पीड़ित, निर्बल एवं दूषित हो तथा उस ग्रह की महादशा में किसी तृषडायेश की अन्तर्दशा चलरही हो जिस योगिनी का स्वामी वह ग्रह हो तो व्यक्ति को कोई भी सम्मानित नौकरी नहीं मिल पाती है. यदि नौकरी कर रहा हो तो उसे शासकीय दंड भुगतना पड़ता है. सामाजिक हीनता का शिकार होना पड़ता है. पिता अपमानित होता है.
उपरोक्त स्थितियों में कोई भी यंत्र, गण्डा, ताबीज़, झाड-फूंक या टोना-टोटका काम नहीं कर सकता है. सिर्फ एवं सिर्फ उपाय संकल्प पूर्वक किया गया विधिवत अनुष्ठान्न ही है. इसी से हो सकता है कष्ट में कमी एवं हानि से बचाव हो जाय. इसलिए ऐसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए सम्बंधित कार्य करें. इस प्रकार धन एवं समय दोनों की बचत हो सकती है.
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