पिछले लेखो में मैंने लग्न को केंद्र एवं शेष भावो को उसका आश्रित बताया है. सारे भाव उसी के इर्द गिर्द घूमते रहते है. इन्हीं लेखो में मैंने बताया है क़ि धनु राशि का उदय 241वें अंश पर होता है. किन्तु जिसका जन्म वृश्चिक लग्न या धरती के मूल क्षितिज से 211वें अंश पर हुआ है . उसके लिए धनु लग्न 31वें अंश पर ही उदित हो जाती है. क्योकि उस व्यक्ति के लिए क्षितिज (0 अंश) 210 अंश पर होता है.
अब देखें, जन्म के समय जो ग्रह धरती के क्षितिज पर होगा वह उस व्यक्ति के लिए जिसका जन्म धरती के नैसर्गिक क्षितिज अर्थात सूर्य के अनुपात में विषुवत रेखा से ऋजु कोण के आधार पर होगा ऐसी स्थिति में 211 अंश पर हुआ हो उसके लिए उन समस्त ग्रहों का कितना प्रभाव होगा?
यद्यपि जन्म के समय शुक्र धरती के क्षितिज पर होगा, किन्तु वही शुक्र उस व्यक्ति के लिए 331वें अंश पर होगा. अर्थात अंतरिक्ष में अपनी समस्त आभा से प्रकाश मान शुक्र उस व्यक्ति के लिए पीठ पीछे पडेगा. या ज्योतिषीय भाषा में बारहवें या व्यय भाव में स्थित होगा. इस प्रकार धरती के विविध भागो में उसी समय जन्मे व्यक्तियों के लिए शुक्र आगे-पीछे या अगल-बगल अन्यान्य हिस्सों में होगा. जिसे वैदिक या लौकिक दोनों तरह के गणित द्वारा सिद्ध किया जा सकता है.
और इस तरह एक ही शुक्र का एक ही समय में जन्म प्राप्त व्यक्तियों के लिए अलग अलग फल होगा. उदाहरण के लिए उसी वृश्चिक लग्न में उसी समय विशेष में असम (भारत) में जन्म प्राप्त व्यक्ति के लिए शुक्र विलासिता एवं सांसारिक व्यसन वासना से सम्बंधित सामग्रियों को उपलब्ध कराएगा. जब क़ि उसी समय विशेष में चिली (अमेरिका) में जन्म प्राप्त व्यक्ति के लिए वही शुक्र मान सम्मान का दाता बन जाएगा. यद्यपि यह कथन ज्योतिष के सामान्य नियम के बिलकुल विपरीत लगता है. किन्तु सिद्धांत रूप में आप स्वयं देख सकते है क़ि विषुवत रेखा के उत्तर या ऊपर जन्म लेने वाले व्यक्ति के पीठ पीछे वही शुक्र पड़ रहा है. किन्तु विषुवत रेखा के दक्षिण जन्म लेने वाले व्यक्ति के सम्मुख शुक्र पड़ रहा है. यह अंतर धरती के गोलार्द्ध भेद के कारण उपस्थित हो रहा है. देखे सिद्धांत परिखा अध्याय 34 श्लोक 54 –
मयालावय अभ्र तृणाकुवेंदु यथा असुरेज्यो कलंक यातो.
अधरोर्मी उभयोनवीद्रवः विभेदों यशो च विद्रूप खलु जल्पतो वा.
इसी को ज्योतिष पितामह महर्षि पाराशर ने अपनी संहिता में भी उल्लिखित कर चेतावनी भी दे डाली है. क़ि गोलार्द्ध भेद से धरती के पृष्ठ एवं पुरो भाग में एक ही ग्रह एक ही समय में स्थित हो सकता है.
तो जब हमारे सिद्धांतवेत्ता त्रिकाल दर्शी ऋषि-मुनि एवं प्रत्यक्ष गणित दोनों ही एक ही तथ्य को सिद्ध एवं समर्थित कर रहे है, तो हम किस आधार पर लकीर के फकीर बने उन्ही सिद्धांत कर्त्ताओ के विपरीत चलें?
प्रायः गणित के फल इसीलिए असत्य एवं विपरीत हो जाते है.
परम विद्वान एवं वैज्ञानिक ऋषि महर्षियों ने इस भेद को बखूबी समझ रखा था. इसीलिए उन्होंने एक ही भाव से विविध फलो का प्रस्तुति करण सुनिश्चित किया. यथा- लग्न से शरीर, यश, सामाजिक स्थिति तथा सुख आदि. इस भेद को निम्न प्रकार देखा जा सकता है. यदि जन्म लग्न मेष है. तथा लग्न में कोई भी ग्रह नहीं है. एवं लग्न को कोई ग्रह नहीं देख रहा है तो धरती के चारो दिशाओं में जन्म प्राप्त व्यक्तियों के लिए फल निम्न प्रकार होगें-
धरती के उत्तरवर्ती भाग वालो के लिए (इसके लिए कृपया धरती के मान चित्र का अवलोकन करें) रक्तरोग, तकनीकी ज्ञान में दक्षता एवं आयु में क्षीणता होगी. धरती के दक्षिणी हिस्से में जन्म प्राप्त व्यक्तियों के लिए विदेश यात्रा, मन चाही पत्नी/पति की प्राप्ति एवं अचल संपदा का लाभ मिलेगा. धरती के पूर्व भाग में जन्म लेने वाले व्यक्ति के लिए अचल संपदा, उच्च सरकारी ओहदे का लाभ एवं पुरस्कार आदि का लाभ मिलेगा. धरती के पश्चिमी भाग में जन्म लेने वाले व्यक्ति के लिए दरिद्रता, पारिवारिक विघटन एवं संतति शोक से गुजरना पडेगा.
एक ही समय एवं एक ही लग्न में जन्म प्राप्त व्यक्ति के लिए स्थान भेद से फल में इतना अंतर आ जाता है.
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