जैसा क़ि मैं अपने पहले के लेखो में यह स्पष्ट कर चुका हूँ, राशि का तात्पर्य होता है ढेरी, समूह या सदृश प्रवृत्ती, प्रकृति एवं आकार-प्रकार वालो का एक संगठन. जैसे भैंस कह देने से स्वतः ही एक रूप हमारी आँखों के सामने घूम जाता है क़ि एक काले रंग का दूध देने वाला जानवर. ऐसी प्रकृति वाले या स्वभाव वाले जीव समूह को भैंस का समूह कहा जाता है. तथा इसके बाद अनेक तरह के भैंस का स्वरुप आँखों के सामने नाच जाता है. इसी प्रकार एक ही बनावट, वातावरण, देशकाल, आचार-विचार एवं रहन-सहन के साम्यता आदि को देखते हुए समूचे ग्रहगोल या पिंड को जिसमें धरती भी शामिल है, कुछ भागो में बांटा गया है जिसे वृत्तखंड या राशियाँ कहते है. यह मात्र धरती के लिए ही नहीं, बल्कि समस्त ग्रहों, उपग्रहों एवं पिंडो के लिए है. और यही नियम अंतरिक्ष के लिए है. अंतरिक्ष को भी अध्ययन के लिए मोटे तौर पर 12, उससे सूक्ष्म 28 नक्षत्रो, उससे सूक्ष्म 112 चरण एवं उससे भी सूक्ष्म अंश-कला आदि में बाँट दिया गया है. ऐसा विभाग प्रत्येक ग्रह के लिए किया गया है. प्रत्येक ग्रह के लिए ये विभाग स्थिर है. एक ग्रह का यह विभाग या विभाजन दूसरे ग्रह के लिए स्थिर नहीं है. आज यदि मंगल का कर्क वृत्त पृथ्वी के सामने है तो यह आवश्यक नहीं क़ि कल भी मंगल का वही खंड पृथ्वी के सामने पडेगा. क्योकि जिस तरह धरती नित्य घूमती है, वैसे ही अन्य ग्रह भी नित्य संचरण करते रहते है. इस लिए यह मान लेना क़ि धरती के सम्मुख गुरु मिथुन राशि या भूखंड में है, तो वह चन्द्रमा के लिए भी उसी भूखंड में ही होगा. और चन्द्रमा का वही तल, सतह या हिस्सा ही होगा, बिलकुल गलत है. यदि धरती पर मकर, कर्क या विषुवत वृत्त है, तो उसी प्रकार चन्द्रमा एवं अन्य ग्रहों पर भी मकर एवं कर्क आदि वृत्त है.
ज्योतिष के मूल उद्भव भाव को देखा जाय तो इसका संकलन या आविष्कार केवल धरती के लिए नहीं बल्कि समूचे अंतरिक्ष के लिए किया गया था. किन्तु कालान्तर में इसकी उपयोगिता मात्र धरावासियों तक ही सीमित हो गयी. और शेष ग्रहों के गुण, प्रभाव, उनका सतहीय उनका वर्गीकरण एवं विभाजन, उनका अध्ययन एवं उनके प्रत्येक हिस्से से उत्सर्जित होने वाले विलक्षण प्रभावों का अध्ययन लुप्त प्राय हो गया. किन्तु संहिता ग्रन्थ सदा ही इसका अनुमोदन करते है क़ि यह ज्योतिष नामक विज्ञान ग्रह, सौरमंडल एवं आकाश गंगाओं से भरे अंतरिक्ष एवं बाह्यदृक सर्वकालिक एवं सबके लिए समान रूप से प्रभावी है. और इसीलिए यह एक पूर्ण, ठोस, संतुलित सार्थक एवं अविचल आधार युक्त सम्यक ज्ञान से भरा विज्ञान है. शेष सारे ज्ञान-विज्ञान एकांगी, परिसीमित या अभी भी विकाशशील है. आज भी देखें, वाराह मिहिर की वृहत्संहिता में पेड़-पौधों, वनस्पतियों एवं पालतू से लेकर जंगली जीवो तक के जातक सिद्धांत आधारित ठोस एवं सिद्ध विवरण मिल जायेगें.
और जब हमने इस विज्ञान के अध्ययन को धरती एवं आज केवल मनुष्यों तक ही सीमित कर दिया है, तो गणित के साथ साथ फल में भी विचलन पैदा होगा ही.
जैसे एक सामान्य नियम है क़ि लग्न में मंगल एवं चन्द्रमा के होने से जातक को भयंकर सिर दर्द या ऐसी ही पीड़ा से गुजरना पड़ता है. इसके विकल्प के रूप में विविध अन्य भी उदाहरण दिए जाते है क़ि यदि केन्द्राधिपति होकर कोण में स्थित गुरु एवं/या कोनाधिपति होकर केंद्र में स्थित आदि की दृष्टि पड़ने पर इस दोष में कमी आती है. किन्तु इसके अलावा भी एक अत्यंत महत्त्व पूर्ण तथ्य है.
यदि चन्द्रमा का वह हिस्सा या चन्द्रमा का अपना राशिखंड या जीवा जो किसी भी अप्रकाशित या अर्धप्रकाशित ग्रह पिंड के सम्मुख पड़ने के कारण प्रकाशहीन हो गया हो, और ऐसी स्थिति में वह अर्धप्रकाशित ग्रह मंगल के साथ बैठ जाय. सनद रहे, मंगल अर्द्धप्रकाशित ग्रह है जिसके प्रकाश परावर्तन की क्षमता मात्र 48 प्रतिशत ही होती है. इसका विवरण मैंने अपने पिछले लेख में दे दिया है. तो इस व्यक्ति के लिए पूर्वोक्त फल प्राप्त होगें. किन्तु यदि किसी अन्य पूर्ण प्रकाशित ग्रह के कारण चन्द्रमा का वह हिस्सा जो मंगल के साथ संलग्न हो रहा है, प्रकाशित हो रहा है, तो इस जातक को सिर से सम्बंधित पीड़ा हो ही नहीं सकती.
और यही सूक्ष्म, प्रामाणिक एवं तथ्यपरक फलादेश है. किन्तु मै पुनः यह कहना चाहूंगा क़ि मेरा यह विश्लेषण कुछ ज्योतिषाचार्यो के गले नहीं उतर सकता है. कारण यह है क़ि यह ज्योतिष के सामान्य नियमो के विपरीत हो जाएगा.
करण सिद्धांत के सिरमौर जाह्नुक याज्ञवल्क्य ऋषि ने अपने ‘करण जौहर” में यह स्पष्ट किया है क़ि किसी भी ग्रह के बल की गणना तीन मार्गो से 49 विन्दुओ के आधार पर की जाती है. इन तीन मार्गो का एक स्थूल विवेचन मै अपने पूर्व के लेख में स्पष्ट कर चुका हूँ. सरसरी तौर पर ग्रह के बल के 49 विन्दुओ के बारे में मै यहाँ पर इतना ही कहना चाहूंगा क़ि 49 दिशाओं में ग्रहों की स्थिति के अलग अलग बल होते है. अब प्रश्न उठता है क़ि दिशाएँ तो आठ या दश ही होती है. तो इसका विश्लेषण देने से इस लेख का मूल प्रसंग विचलित हो जाएगा. फिर भी मै इतना बता दूं क़ि इसका बहुत अच्छा संकेत संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में दे दिया है-
“हरि प्रेरित तेहि अवसर चलेऊ मरुत उनचास.
अट्टहास करि गरजा कपि बढ़ी लागि आकाश.”
अथात लंका दहन के समय उनचासो दिशाओं से वायु चलने लगी.
अस्तु, मूल विषय पर आते है. धरती पर स्थित स्थिर राशियों में प्रकाश फैलाने वाले ग्रहों के उस प्रभाव के तारतम्य को भी गणना में शामिल करना नितांत आवश्यक है क़ि उस ग्रह का कौन सा खंड या उस ग्रह का अपना कौन सा राशि खंड धरती के उस राशि-खंड पर प्रकाशित था. केवल यह कह देना पर्याप्त नहीं होगा क़ि अमुक ग्रह इस राशि में बैठा है. बल्कि गणना यह भी आवश्यक रूप से करना ही पडेगा क़ि जिस राशि में वह ग्रह बैठा है उस ग्रह की कौन सी राशि धरती के उस राशि या खंड की तरफ थी. और तभी गणना को पूर्णता प्राप्त होगी. और केवल तभी फलादेश को सच्चाई भी मिल सकती है. अन्यथा किसी भी हालत में फलादेश सत्य नहीं होगा.
हाँ, यह अवश्य है क़ि यह एक अति जटिल तथा श्रम साध्य विषय है. जिसके पचड़े में पड़ना आज के हम जैसे ज्योतिष जानने वाले नहीं चाहते. परिणाम यह हो रहा है क़ि मरे हुए ढोर की हड्डी चबाने के लिए टकटकी लगाए कुत्ते की भांति इस महाविज्ञान पर नास्तिको एवं हिन्दू धर्म विरोधियो को मुंह फाड़ने का अवसर मिल जा रहा है.
इस तरह राशिया स्थिर होती है. किन्तु ये राशिया उस ग्रह, गोल या पिंड के लिए ही स्थिर होती है. दूसरे ग्रहों या पिंडो के लिए सदा चलायमान होती है.
अगले लेख में लग्न के सम्बन्ध में यथा शक्ति विवरण प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा.
मुझे खुशी हो रही है क़ि एक सज्जन ने मेरे पिछले लेखो पर सार्थक, सम्बंधित एवं उचित टिप्पड़ी की है. आगे भी यही अपेक्षा है.
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