यद्यपि यह एक अजीब प्रश्न है. क्योकि ग्रह कोई दूकानदार या दानी नहीं है जो कुछ देता फिरता है. किन्तु इस प्रश्न के बारे में मै कुछ कहूं, एक महाशय की एक शंका का संक्षेप में यहाँ समाधान करना चाहूंगा. क़ि ग्रह 49 तरह से फल कैसे देते है? मुझे नहीं मालूम क़ि उन्हें ग्रह गोल के बारे में जानकारी है भी या नहीं. किन्तु उस सूत्र का उल्लेख मै यहाँ कर देना चाहूंगा. जो संभवतः आप को भी उत्सुकता का कारण बने.
कक्ष्या अर्थात सातो ग्रहों की सात भ्रमण परिखा को द्विगुणी अर्थात दो गुना करें. और पुनः वारो से अर्थात सात दिनों की संख्या या सात की संख्या से गुणा कर के उसका अर्द्ध फल जो प्राप्त होवे वह ग्रहों का विन्दु निपात होवे. इस प्राकार सात गुणे दो बराबर चौदह उसका सात गुणे बराबर 98 उसका आधा बराबर 49 हुआ. यह तो सूत्र हुआ. किन्तु इसके पीछे तर्क क्या हुआ? क्यों दो गुणा? क्यों वार से गुणा करना? २७ नक्षत्रो से गुणा क्यों नहीं करना?
राहू-केतु का अपना कोई पृथक अस्तित्व न होने से उनकी गणना ग्रहों में नहीं हुई है. फल कथन में भाव-स्थान के अनुरूप ग्रह साम्य या युति के आधार पर इनका प्रभाव होता है. इस प्रकार ग्रह मात्र सात ही माने गए है. परस्पर पड़ने वाली छाया के कारण ग्रहों के दो रूप हो जाते है. एक प्रकाशित भाग तथा दूसरा अप्रकाशित. इस प्रकार इन ग्रहों के चौदह रूप हुए. निरंतर कक्ष्या भ्रमण के कारण प्रत्येक ग्रह का परिवर्तित तल या सतह अन्य भ्रमणशील स्थानच्युत अपर ग्रहों पर परिवर्तित होता रहता है. किन्तु जिस धुरी से कर्षण प्राप्त कर इन ग्रहों की कक्ष्या बनती है, वह होरा (अहो + रात्र) के कारण वार या दिन रूप में सात ही है. जो रविवार से शनि पर्यंत है. इस प्रकार चौदह गुणे सात बराबर 98 होता है.
किन्तु
निपात बिन्दुना सोढ़म परत्रेह परिव्राजयेत.
अर्थात प्रभावित होने वाले बिंदु के अस्तित्व परिवर्तन (अस्ति नास्तो वा) के विभाग के परिणाम स्वरुप इन ग्रहों का इसका आधा ही निपात सार्थक प्रमाणित होता है. अस्ति नास्तो वा का सीधा अर्थ है जन्मोपरांत एवं जन्म पूर्व. अर्थात आधे फल जीवन काल में मिलते है. तथा शेष देहावसान के बाद. नियमन चक्र के अनुसार देहावसान के बाद का फल पर जन्म या अगले जन्म में समायोजित हो जाता है. इसलिए इन अपर आधे फलो की गणना फल प्राप्ति या प्रभाव प्राप्ति के लिए नहीं बल्कि गणितीय चक्र पूरा करने के लिए उपयोगी है. ताकि सिद्धांत के एक पक्ष का लोप न हो पाए.
जिस महानुभाव की शंका का यहाँ समाधान मैंने करने की कोशिश की है, उनके अनुसार नाम की कोई महत्ता नहीं होती है. गुलाब को चाहे कुम्हाडा कहें या गुलाब, कोई फर्क नहीं पड़ता है. इसलिए इन 49 निपात बिन्दुओ के नाम का उल्लेख उनके लिए कोई औचित्य नहीं रखता है.
चूंकि यह मात्र एक लेख है. और इसमें ज्योतिष के समस्त सिद्धांतो का समावेश असंभव है. उसमें भी कलिकाल के विविध प्रभावों से कुंठित मनोकाय मुझ जैसे अल्पज्ञ की विसात ही क्या है?
क्षमा कीजिएगा. एक अत्यंत अरुचिकर प्रसंग मै ले बैठा था.
ग्रह फल देते नहीं है. हम ही उसे विविध प्रकार से लेते है. आज सौर ऊर्जा, प्रस्तारिका (कैल्शियम के अन्य यौगिको का निर्माण) आदि के रूप में सूर्य से लाभ अर्जित करना इसका प्रमाण है. जब किसी औषधीय पदार्थ के संयोग से इसका संग्रह होता है तो यह चिकित्सा का रूप ले लेता है. तथा जब किसी संयंत्र के साथ इसका संयोग करते है तो एक नया संयंत्र बन जाता है. इस प्रकार हम इन ग्रहों से फल प्राप्त करते है. चन्द्रमा की अवधानक किरणे (Skeptical Rays) जल से लावण्यता (Sodium Chloride) का भेदन करती है. मंगल की शोडाधिमय (इसका वैज्ञानिक नाम मै अभी याद नहीं कर पा रहा हूँ) किरणे धरती के मरिता, प्रीता, द्योता, लोहिता आदि तत्वों को मृत या सुषुप्त होने से बचाती है. इन मृदा तत्वों का अंगरेजी नाम क्या है, मुझे नहीं मालूम.
सूर्य की प्रतिकूल किरणे शरीर के जिस अँग पर पड़ती है, वहा अर्बुद या चर्मविद्रूपता या अस्थि भंजन हो जाता है. इसी प्रकार शरीर के जिस भाग पर इसकी अनुकूल किरणे पड़ती है. वहां अस्थि संवर्द्धन या परिपोषण, रक्त शोधन आदि होता है. इसे ही कुंडली में भावो के नाम से जाना जाता है. यदि वलीपली अर्थात असमय सिर के बाल झड़ने का कारण सूर्य से है, तो निश्चित रूप से प्रबल सूर्य का पाप सम्बन्ध लग्न या लग्नेश से है. यदि सूर्य के कारण गलित कुष्ठ है, तो निश्चित रूप से लग्नेश-पंचमेश या लग्न-पंचम भाव का सम्बन्ध प्रबल पापी सूर्य से ही है.
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