इस विषय पर कुछ भी लिखने से पहले वर्त्तमान युग के महान व्यावहारिक गणितज्ञ एवं परम विभूति स्वरुप पंडित राम यत्न झा एवं निश्चित रूप से प्रकांड पंडित डाक्टर सुरेश चन्द्र मिश्र की उत्कृष्ट बौद्धिक विलक्षणता को नमन करना चाहूंगा. जिन्होंने वैदिक एवं पौराणिक सिद्धांतो एवं मान्यताओं के उन पक्षों को जिन्हें अव्यवहारिक मानकर अदूरदर्शी एवं कुंठाग्रसित मानसिकता वाले परवर्ती ज्योतिषाचार्यो ने उपेक्षित कर इसके एक परमावश्यक भाग को ही लुप्त करने की कोशिश कर दी, उसके औचित्य, आवश्यकता एवं प्रामाणिकता को पुनः जीवित किया.
परवर्ती ज्योतिषाचार्यो के श्रम-आलस्य, अल्पज्ञता एवं अपेक्षित त्रुटी वाली शीघ्रता के कारण आज ज्योतिष के कई महत्व पूर्ण तथ्य उपेक्षित हो गए है. और अब जब उनका उल्लेख आता है तो वे सिद्धांत आधारहीन, अनर्गल, अव्यावहारिक एवं असत्य बताकर त्याज्य घोषित कर दिए जाते है. और अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए आधुनिक विज्ञान जो स्वयं आज भी विकाशशील होने के कारण अपूर्ण ही है, उसका अवलंबन ले लेते है. वही आधुनिक विज्ञान जिसका एक प्रारम्भिक नमूना यहाँ प्रस्तुत है.
प्रयोगशाला में कार्बन डाई आक्साईड के बनाने की रासायनिक प्रक्रिया से सम्बंधित सूत्र को देखें-
CaCO3 + 2HCl = H2O + CO2 + CaCl2
यहाँ यह तो दिखा दिया गया क़ि चूने पर नमक का अम्ल डालने से कार्बन डाई आक्साईड गैस निकलती है. और प्रयोग के सिद्ध होने की घोषणा कर दी गई. किन्तु इसका उल्लेख छोड़ दिया गया क़ि इस रासायनिक प्रक्रिया से केवल कार्बन डाई आक्साईड ही नहीं बल्कि जल एवं कैल्शियम क्लोराईड भी बनता है. और इस प्रक्रिया से बनने वाला यह जल कार्बन डाई आक्साईड से भी ज्यादा ज़हरीला एवं घातक होता है. कारण यह है क़ि सिद्ध तो करना था क़ि इस प्रकार कार्बन डाई आक्साईड बनती है. फिर इस प्रक्रिया में उत्सर्जित जल या कैल्शियम क्लोराईड से क्या लेना देना? और इस पहलू को उपेक्षित कर दिया जाता है.
और कालान्तर में यह प्रचलित हो जाता है क़ि चूना और अम्ल के संयोग से कार्बन डाई आक्साईड ही निकलती है. इसके अलावा अन्य किसी भी चीज का उत्सर्जन नहीं होता है. और आज यदि इसे कहा जाय तो यह एक थोथी मान्यता लगती है. बाद में इस सूत्र के विश्लेषण, वर्गीकरण एवं संतुलन के श्रम से जी चुराने के कारण नितांत परजीवी की भांति यह मान लेने में ही भलाई समझी जाती है क़ि मात्र कार्बन डाई आक्साईड ही निकलती है, शेष कुछ भी नहीं निकलता है. यह सब मात्र भ्रम, अव्यावहारिक एवं झूठ है.
आवश्यक न होने पर भी कुछ मान्यताओं को जीवित रखना पड़ता है. जिससे नियम-चक्र तो पूरा हो सके. उसका सतही या ज़मीनी उपयोग भले न हो, गणना की पूर्ती एवं सिद्धी तो हो जाती है. आवश्यक न होने पर भी इन मायताओ को सैद्धांतिक संतुलन के लिए जीवित रखना पड़ता है.
प्रत्येक ग्रह अपने वृत्तीय स्वरुप की कल्पित मध्य रेखा से अंतरिक्ष की मध्य रेखा के सापेक्ष एक दूरी बनाए रखता है. इसी प्रकार प्रतेक ग्रह अपने वृत्तीय व्यास के सापेक्ष दूसरे ग्रह के व्यास से एक दूरी बनाए रखता है. अपनी आकृति-प्रकृति के कारण इनका भ्रमण मार्ग पृथक पृथक दूरी पर होता है. ऐसे ही एक ग्रह बुध है. अंतरिक्ष के सापेक्ष इसके व्यास के साथ बनाने वाला कोण चाहे जो भी हो, सूर्य के सापेक्ष यह सदा ही अधिकतम अपने व्यास एवं केंद्र के साथ समबाहु त्रिभुज ही बनाता है. इस त्रिभुज बाहू की समता के कारण ही इसे सदा ही एक उदासीन या बाल ग्रह कही कही नपुंसक ग्रह के रूप में जाना गया है. अतः आभाषी एवं प्रत्याभाषी गणना के फल स्वरुप तदास्थानीय या अंतरिक्षगत दूरी 60 अंशो तक होनी चाहिए. किन्तु आभाषी वलय एवं वास्तविक वलय के मध्य की दूरी को कम करने पर यह 12 अंश 12 विकला मिलता है. सूर्य से बुध के बाह्य वलय की दूरी 8 हजार योजन एवं वास्तविक धरातल की दूरी 8 हजार पांच सौ योजन है. अर्थात बुध के बाह्य वलय से वास्तविक धरातल की दूरी पांच सौ योजन बनती है. इस पांच सौ योजन की दूरी के द्वारा बुध के व्यास एवं सूर्य के व्यास तथा अंतरिक्ष के क्रान्ति विन्दु से 47 अंश 48 विकला का कोण प्राप्त होता है. और सूर्य से बुध की वास्तविक अधिकतम दूरी यही सैतालिस अंश अड़तालीस विकला या अड़तालीस अंश सिद्ध होती है. किन्तु पता नहीं किस प्रचलन या सिद्धांत के आधार पर बुध से सूर्य की अधिकतम दूरी कुछ एक महानुभाव मात्र 28 अंश ही बताते है.
इसी प्रकार प्रत्येक ग्रह की अंतरिक्ष के सापेक्ष दूसरे ग्रह एवं पृथ्वी से अधिकतम एवं निम्नतम अंशात्मक दूरी निर्धारित की जाती है.
अब रही आधुनिक गणना एवं उसका सिद्धांत. आधुनिक गणना को सदा के लिए स्थिर (Constant) मान लिया गया है. चाहे कुछ भी हो, उसमें कोई परिवर्तन या संशोधन आवश्यक नहीं है. यद्यपि इस अंगरेजी कैलेण्डर के आविष्कार कर्ता एवं प्रथम अनुयायी पाश्चात्य देश ग्रीष्म, युद्ध कालीन आदि तथ्यों के आधार पर अनेक मौसम एवं काल के लिए अपनी घडियो में घटा बढी करते रहते है. किन्तु हम भारतवासी फिर भी उसमें किसी तरह के हेरफेर को बर्दास्त नहीं कर सकते. हमारे वैदिक सिद्धांतो में होने वाले समसामयिक काल विचलन को अधिमास, क्षयमास एवं मलमॉस आदि के रूप में संतुलित किया गया है. जो हम आधुनिक भारतीयों को स्वीकार्य नहीं. तथा पाश्चात्य पद्धति के अनुकरण में भी घड़ी को आगे पीछे करने का श्रम करना पडेगा. जो हम करना नहीं चाहते. अतः हम वही मानेगे जो बिना किसी श्रम के सहज ही संपन्न हो जाय.
और अपनी इस मान्यता को स्थान देने एवं इसी को सर्वमान्य बनाने एवं बताने के लिए इन मूल भूत सिद्धांतो में परिवर्तन की बात करते है. चाहे इसके लिए भले ही इन सिद्धांतो की तिलांजलि ही क्यों न देनी पड़े? परिणाम यह होता चला जा रहा है क़ि हमारी आलस्य की भेंट चढ़े ये सिद्धांत आज जटिल, यथार्थ से दूर, अनावश्यक एवं निष्प्रयोजन मानकर शोधन एवं सुधार नामक कूडादान के हवाले होते जा रहे है.
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