जन्म कुंडली में सामान्यतया आचार्य लोग पति, पत्नी एवं व्यवसाय के संम्बंध में सातवें भाव से फल निकालते है. यह ठीक भी है. किन्तु यहाँ यह जान लेना आवश्यक है क़ि किसी भी व्यक्ति की कुंडली के सातवें भाव में कोई भी ग्रह अपनी पूरी क्षमता से क्रिया शील रहता है. चाहे वह उच्च का हो या नीच का, मित्र गृही हो शत्रुगृही, अस्त हो या उदित. इसके अलावा सातवें घर में बैठा ग्रह नितांत अकेले, अपने बल पर ही क्रियाशील होता है. भले ही इस ग्रह पर किसी अन्य ग्रह की दृष्टि क्यों न हो. इस दृष्टि से इस ग्रह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है. किन्तु इसके विपरीत इस सातवें भाव पर अन्य ग्रहों की दृष्टि का अवश्य प्रभाव पड़ता है. ये सारे तथ्य सामान्य नियमो के तहत नहीं आते है.
जैसे सातवें भाव में यदि मंगल बैठा हो तो वह कुंडली मांगलिक हो जाती है. यह एक सामान्य नियम है. किन्तु इस मांगलिक का प्रभाव क्या है? पौराणिक मतानुसार मंगल प्रधान रूप से मृदातत्त्व प्रधान ग्रह है. इसीलिए इसे भूमि सुत भी कहा जाता है. इस ग्रह में प्रकाश परावर्तन की क्षमता अत्यल्प होती है. इसके विपरीत प्रकाश अवशोषण की क्षमता बहुत ज्यादा होती है. इसके दोनों ध्रुवो को मिलाने वाली रेखा के संचरण दिशा का अधरभाग अर्थात इस दिशा का चौथाई भाग भयंकर ज्वलन शील होता है. ऐसा इसके इस सतह के मैथिल एल्कोहल एवं फास्फोरिक कार्बाईड के कारण होता है. जिसे शास्त्रीय भाषा में लोहिताश्म एवं चिन्मयिका कहते है. इस प्रकार ऐसे मंगल का यह भाग जिस दिशा में अर्थात लग्न से छठे भाव की तरफ है तो इस कुंडली को कोई भी मांगलिक दोष नहीं व्याप्त होगा. बल्कि इसके विपरीत ऐसा व्यक्ति बहुत ही सुखी दाम्पत्य जीवन बिताता है.
किन्तु यदि इसके विपरीत यदि मंगल का यह भाग सातवें भाव से लेकर बारहवें भाव की तरफ पड़ता है तो उस व्यक्ति का वैवाहिक जीवन तहस नहस होना ही है. चाहे इस भाव में कोई भी ग्रह बैठे या दृष्टि रखे.
सिद्धांत गणित से मंगल के इस भाग का निर्धारण किया जा सकता है. इसका सूत्र है-
परिधि गुणे त्रिज्या का वर्ग भागे क्षेत्रफल. प्राप्त फल भागे भाव . अर्थात परिधि में मंगल की त्रिज्या (चौदह हजार सात सौ) के वर्ग से गुणा कर दें. इस गुणनफल में मंगल के क्षेत्रफल (नवासी हजार आठ सौ) से भाग दें. जो भाग फल मिले उसमें उस भाव की संख्या से भाग देवें. जैसे सातवें भाव के लिए सात से भाग दें. और उस भजनफल को वृद्धि क्रम से चार स्थानों पर रख ले. जैसे मान लेते है क़ि भजनफल चौबीस प्राप्त हुआ. तो प्रथम संख्या 6 , दूसरी 12 , तीसरी अट्ठारह एवं चौथी चौबीस. इन संख्याओं में जिस संख्या से परिधि पूरी तरह विभाजित हो जाय, वह भाग गर्म एवं प्रकाश हीन होगा. जैसे यदि परिधि बारह से विभाजित हो जाती है, तो ऊपर का पृष्ठ तल होगा. और यदि किसी संख्या से विभाजित नहीं होती है तो मंगल का गर्म भाग हिम वलय से पूरी तरह आवृत्त है. और वह सर्वथा निष्क्रिय है.
इस प्रकार सातवें भाव में बैठा मंगल सौ में से मात्र पच्चीस व्यक्तियों के लिए ही वैवाहिक जीवन के लिए मांगलिक दोष कारक होगा. शेष के लिए सुखद एवं हितकर ही होगा. चल अचल संपदा का दाता भी होगा. यह फल उस स्थिति के लिए है जब इस भाव पर मात्र मंगल के फल की गणना की जाय. इस भाव पर पड़ने वाले अन्य ग्रहों के फल को उपेक्षित करने पर यही परिणाम प्राप्त होगा.
इसी प्रकार यदि सातवें भाव में गुरु बैठा है तो यह आवश्यक नहीं क़ि गुरु सदा सुख कर ही होगा, भले ही वह लग्नेश ही क्यों न हो. यद्यपि सामान्य रूप में इस गुरु का सुखद फल ही माना गया है. किन्तु इसका विशाल बर्फीला सतह इतना चमक दार होता है क़ि अन्य किसी ग्रह के किसी भी परावर्तन या अपवर्तन को अपने ऊपर आने ही नहीं देता है. यदि सातवें भाव पर एक मात्र गुरु का ही प्रभाव गिना जाय. तथा इस पर अन्य किसी ग्रह या राशि के फल को उपेक्षित कर दिया जाय तो गुरु का दो तिहाई शुभ फल ही प्राप्त हो पायेगा.
इस प्रकार पहले यह निर्धारित कर लिया जाना चाहिए क़ि इस भाव में बैठने वाले ग्रह की सतहीय रेखा क्या है? जैसा क़ि ऊपर यह स्पष्ट किया जा चुका है क़ि इस भाव में बैठा ग्रह किसी अन्य प्रभाव से सर्वथा मुक्त होता है. अब उस भाव पर पड़ने वाली दृष्टि की गणना करते है. इस दृष्टि से भाव ही प्रभावित होगा, उस भाव में बैठा ग्रह नहीं. यह गणित सिद्ध है. इस भाव में मंगल अपने वज्रपंक्ति (मंगल के बैठने की एक मुद्रा (Posture) में बैठा है. तथा इसके साथ गुरु अनुलोम होकर बैठा है. तो इस अवस्था में मंगल का ही प्रभाव ज्यादा होगा. गुरु प्रभाव शून्य होगा. और यह अवस्था जातक के वैवाहिक एवं व्यावसायिक दोनों ही जीवन के लिए घातक होगी.
ये गणनाएं विशेष फल कथन के लिए है. सामान्य नियम के स्नुसार सप्तम भाव में बैठा मंगल यदि गुरु युक्त एवं शुक्र दृष्ट या शुक्र युक्त गुरु दृष्ट हो तो उसका मांगलिक दोष नष्ट हो जाता है. किन्तु यह सर्वत्र सामान रूप से प्रभावी नहीं है.
किसी भी भाव में सर्व प्रथम दृष्टि, दूसरे ग्रह की स्थिति तथा अंत में उस भाव की राशि की प्रकृति-प्रवृत्ति का प्रभाव एवं फल होता है.
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