आसमान में लाली को देख कर यह मत सोचिये कि यह उदयाचल पर आने वाला सूरज है. उदयाचल पर आने से पूर्व सूरज जब अरुण को अपने सारथी के रूप में आगे आगे भेजता है, तों उसकी चाल में गति होती है. एक व्यग्रता होती है—-कही जल्दी जाने क़ी. किसी मनमीत से मिलने क़ी. उससे गले मिल अपने दिल क़ी व्यथा कहने क़ी. या उससे मिल कर उसके दुःख को बांटने क़ी. उसे चिंता नहीं है कि रास्ते में और भी ऐसे है जो मनमीत बनाए जाने योग्य है. इसीलिए कही प्रकाश तों कही छाँव करते बहुत तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है. देखें, वह नहीं देख रहा है कि जाड़े में अपनी माँ क़ी बूढ़ी कमजोर हड्डी से ठिठुर कर चिपका हुआ अबोध शिशु उसकी एक उष्णता युक्त किरण क़ी तरफ ललचाई नज़रो से देख रहा है. जब कि वह बूढ़ी माँ अपनी वात्सल्यता से भरी निगाहें उस शिशु क़ी तरफ लगातार देख रही है कि कही उसके बच्चे के शरीर का कोई अँग ढके बिना तों नहीं रह गया. और अपने फटे पुराने आँचल से कभी बच्चे के एक अँग तों कभी दूसरे अँग को ढकने का असफल प्रयत्न करती चली जा रही है.
वह नहीं देखता कि पेड़ के कोटर में घोसला बनाकर जो गौरैया अपने बच्चो को अपने पंखो को फैलाकर ठण्ड से बचा रही है, उसके बच्चे अपनी माँ के पंखो के बीच से झाँक रहे है कि कब सूरज क़ी रोशनी उसके कोटर पर पड़ेगी. तथा उसकी माँ उनके लिये दाना चुगने बाहर निकलेगी. लेकिन वह गौरैया माँ कही और ही देख रही है. उसे वह बाज दिखाई दे रहा है जो टक टकी लगाए यह प्रतीक्षा कर रहा है कि कब वह गौरैया घोसले से बाहर निकले और वह उन छोटे छोटे बच्चो को खा जाय. किन्तु गौरैया इस प्रतीक्षा में है कि जब सूरज क़ी पूरी रोशनी उसके कोटर पर पड़ने लगेगी तों और भी पक्षियों क़ी दृष्टि उसके कोटर पड़ने लगेगी तथा वह बाज़ आसानी से उसके बच्चो का शिकार नहीं कर पायेगा.
वह नही देखता कि कदम्ब एवं ताड़ वृक्षों क़ी छाँव में पड़े होने के कारण सरोवर में कमल खिल नहीं पा रहे है. और रात भर उस कमल क़ी पंखुडियो के नीचे रह कर पराग रस चूसने के लिये भौंरे कमल के खिलते ही उसमें से निकल कर खुसी से झूमते अपने बाल बच्चो के बीच पह्नुचेंगें. तथा उन्हें पराग रस का पान करायेगें. इसीलिए वे भी सूरज क़ी रोशनी का इंतज़ार कर रहे है. किन्तु तभी गजराज उस सरोवर में घुसता है तथा मद मस्त होकर वह उन कमल को जड़ से उखाड़ कर चबा जाता है. और भौंरे के मन क़ी लालसा मन में ही दफ़न हो जाती है. अब उसे क्या पता कि उसके बच्चे कैसे होगें?
वह नहीं देखता कि दूसरी तरफ जहाँ वह रोशनी फैला रहा है, वहां बेचारे चोरो के लिये आफत खड़ी होने लगी है. वे जल्दी जल्दी में अपने चोरी के सामान को समेटने के चक्कर में कीमती सामान बिखेरते चले जा रहे है. तथा कूड़ा करकट अपने थैलों में भरते चले जा रहे है. लेकिन इसी बीच शाही प्रहरियो क़ी निगाह उनकी तरफ पड़ती है. तथा वे उन चोरो को पकड़ कर बुरी तरह दण्डित करते हुए तथा प्रताड़ित करते हुए महल क़ी तरफ लेकर चल देते है.
वह नहीं देखता कि एक लम्बे अरसे के बाद अपने पति से मिली विरहिणी अपने विरही के साथ अभिसार में व्यस्त है. तथा कातर निगाह से सूरज क़ी तरफ देखते हुए मानो यह विनती कर रही है कि कुछ देर तक और ठहर जाते. क्योकि अब तों होत बिहान मेरे मनमीत कही दूर देश निकल जायेगें. और अभी मन क़ी सारी बातें अपने पिया से वह कह ही नहीं पायी है.
और इस प्रकार अरुण बहुत शीघ्रता पूर्वक रथ को हांकते हुए सूरज को लिये हुए आगे बढ़ता चला जा रहा है.
किन्तु हाय !!! यह तों कोरा भ्रम निकला. यह तों अरुण अस्ताचल को जा रहा है. क्योकि उसकी चाल में व्यग्रता नहीं है. वह अब स्वयं अब कातर निगाहों से बार-बार पीछे घूम घूम कर देख रहा है कि कोई तों ऐसा मिलता जो अरुण को रथ हांकने से रोकता. पश्चिम दिशा से चारागाह से लौटती गायो के खुरो से उडी हुई धूल तेजी से आकाश क़ी तरफ उड़ाते हुए सूरज को ढकने को लालायित है. और सूरज इसे देख कर मायूस है. कोई भी उसकी सहायता के लिये आगे नहीं आ रहा है. चारो तरफ शान्ति ही दिखाई दे रही है. न तों खुशी भरी चिडियों क़ी चह चहाहट, न तों गोशाले में बछड़ो क़ी उछल कूद. न तों पक्षियों के कोटरों में कोई सुगबुगाहट. निशामुख समीर भी दम तोड़ती हुई प्रवाहित हो रही है. असहाय सूरज लगातार पश्चिम के अथाह गहरे अँधेरे के गर्त में गिरता पड़ता चला जा रहा है.
शायद वह सिसक रहा है. किसी अन्तरंग मित्र के बिछड़ने के गम में. शायद अपने किसी प्रिय से अलग होने क़ी पीड़ा में. और इसीलिए अरुण भी सोच रहा है कि जितना ज्यादा वह रुकने क़ी कोसिस करेगा, उसके स्वामी सूरज को और ज्यादा पीड़ा होगी. इसीलिए वह पीछे मुड़ कर नहीं देख रहा है. किन्तु उसका मुँह तों आगे है. क्या पता उसकी आँखों से भी आंसू टपक रहे हो?
और यह उपनिषद् वाक्य——-“सुख दुखम समं कृत्वा—-“
अपने चार पैरो —–अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष—-पर स्थिर खडा सूरज क़ी आत्म अन्तर्दशा से लोक नियमन क़ी शाश्वत शिक्षा देता चला जा रहा है.
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