यह हमारा दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है क़ि शुभ, लाभ एवं मंगलकारी वस्तु, विषय एवं समय सब कुछ हमारी आँखों के सामने से गुजर जाते है. किन्तु हम अपनी मूर्खता, हठवादिता, दिखावापन या एक दूसरे को नीचा दिखाने के होड़ में उसे गुजर जाने देते है. हमारे पूर्वजो, बुजुर्गो एवं परम्पराओं के द्वारा यह बताया गया है, या बताया जाता रहता है क़ि श्राद्ध पक्ष में तर्पण करने से पितर तृप्त होते है. पितरो की तृप्ति हमारे कुल, वंश एवं परिवार की बहुविध रक्षा करती है. और अनेक शुभ शकुन दायक परिणाम प्राप्त होते है.
किन्तु कोई हमें कूपमंडूक न कहे, जाहिल न कहे, रूढ़ीवादी न कहे, अंधविश्वासी न कहे, या साम्प्रदायिक न कहे, इसी के घातक लोभ में हम अपने कुल-वंश को दांव पर लगा देते है. भले अपने परिवार का सुख, शान्ति, विकाश या मान-मर्यादा छिन्न-भिन्न हो जाय, पर दूसरा यह सब न कहे. अपनी इस प्रवृत्ति, आदत या इच्छा को और क्या कह सकते है?
श्राद्ध पक्ष में किया जाने वाला तर्पण प्रत्यक्ष रूप से कुष्ठ, प्रकुपित वायु दूषण, संतान वाधा, एवं दृष्टि दोष को दूर करता है. इसे चाहे तो आधुनिक विज्ञान अपने समस्त यंत्र, संयंत्र, उपकरण, उपस्कर एवं प्रयोगशाला के सहारे परख ले. किन्तु यह परखने की आवश्यकता अब केवल हिन्दुस्तान में ही रह गयी है. या फिर इसी तरह के वे सब देश जो अभी विकाशशील है, उनके लिए अभी भी इसको परखने की आवश्यकता है. विकशित देशो में या उत्कृष्ट वैज्ञानिक क्षमता से युक्त देशो- अमेरिका, चीन, जापान, इटली. रोम आदि देशो में यह बहुत सालो पहले से किया जाता रहा है. और आज भी किया जाता है.
इटली के सार्सीडिया एवं सार्डीनिया का समस्त समुद्र तट आज की तिथि में रात दिन भरा रहता होगा. श्राद्ध एवं तर्पण करने वालो की लम्बी कतार देखी जा सकती है.
किन्तु बहुत अफसोस की बात यह है क़ि आज धूर्त एवं पाखंडी पंडितो ने इस व्यवस्था को ऐसा तार तार कर दिया है क़ि जिस देश में इसका जन्म हुआ वहां पर यह व्यवस्था अब कब्रनशीं होने के कगार पर है. किन्तु जहाँ पर इसका नामो निशान नहीं था, या जहाँ की परम्परा में इसका घोर विरोध होना चाहिए, वहां पर इसे सिर आँखों पर बिठाया जा रहा है. पंडितो ने इसे अपना एवं सिर्फ अपना हक मान कर रख लिया है. तथा लोगो में यह धारणा फैला रखी है क़ि यदि ब्राह्मण ने यह कर्म नहीं कराया तो श्राद्ध या तर्पण सफल नहीं होगा. तथा पितरो का शाप लगेगा. जिसका परिणाम यह होता चला जा रहा है क़ि अब लोग इस काम को करने से ही दूर होते चले जा रहे है. क्योकि लोगो को अब मालूम हो गया है क़ि अब ब्राह्मण पढ़े लिखे मिलने कठिन है. तथा जो यह कर्म कराने वाले है, उन्हें इसका स्वयं ही ज्ञान नहीं है. तो फिर चलो इस तर्पण के न करने से कोई लाभ नहीं मिलेगा. किन्तु अशुद्ध करने से पाप एवं धन हानि तो नहीं मिलेगा. बस यही सोच कर लोग अब इससे दूर होते चले जा रहे है. जो सर्वथा उचित, तार्किक एवं आवश्यक ही है.
इसमें कोई संदेह नहीं क़ि जिस ब्राह्मण को वैदिक ऋचाओं के सस्वर उच्चारण करने का ज्ञान न हो, जो ऊर्ध्वनिष्ठ न हो, जिसने कभी पञ्चयज्ञ न किया हो, या जो कसी तरह का नशा सेवन करता हो उसके द्वारा किया गया श्राद्धकर्म पाप एवं हानि दोनों देता है.
तर्पण आदि कार्य कदापि न करावे यदि वह ब्राह्मण सर्वथा योग्य न हो. केवल सिर पर तिलक, लम्बी चोटी, सफ़ेद या गेरुवा वस्त्र या दो चार तोता रटंत मन्त्र ज्ञान वाले ब्राह्मण से यह अति पवित्र कार्य करवाने से पुण्य तो नहीं ही मिलता है, पीछे का किया गया पुण्य भी समाप्त हो जाता है.
एक सबसे बड़ी बात और जो लगभग परम्परा ही बन चुकी है, जब तक गया में पिंड दान नहीं किया जाएगा, तृप्ति नहीं होगी. अब आप स्वयं सोचिये, इस प्रकार संसार के 92% लोगो के द्वारा तो यह किसी भी हालत में नहीं किया जा सकता है.
इसमें कोई संदेह नहीं क़ि जिस किसी ने लोगो में यह धारणा फैला रखी है वह घोर हिन्दू विरोधी, वेद विरोधी एवं महाठग है. यदि इससे सम्बंधित तथ्यों का सूक्ष्म विवेचन एवं अध्ययन किया जाय तो इसका स्पष्टिकरण स्वतः ही हो जाता है. तर्पण के कारण, आवश्यकता, शर्तें और प्रकार से सम्बंधित तथ्यों का तार्किक, प्रामाणिक एवं वैदिक आधार ढूंढा जाय तो यह निश्चित हो जाएगा क़ि ऐसा स्थान जहाँ पर सूर्य की किरण बहते जल धारा से तिर्यक प्रारूप अर्थात व्यक्ति से दोनों तरफ समबाहु त्रिभुज के आकार में परावर्तित होती हो आर्द्रता अर्धोन्मीलित हो, सप्त धान्य, पञ्च गव्य, त्रिपर्णी हव्य एवं तीक्ष्ण वितान उपलब्ध हो वहां पर तर्पण का कार्य करना चाहिए. गया, प्रयाग एवं काशी में चूंकि ऐसी स्थिति आराम से प्राप्त हो जाती है, इसलिए इन स्थानों की महत्ता विशेष रूप से दर्शाई गई है. अन्यथा इस धरती के ऐसे अनेक स्थान है जहाँ पर इसे और भी ज्यादा प्रभावी प्रकार से संपन्न किया जा सकता है. तथा और भी ज्यादा पुण्य फल प्राप्त किया जा सकता है.
कोई भी विद्वान जो गणित एवं भैषज्य में रूचि रखने वाला हो इसके साथ ऊहापोह एवं स्थूणाभिखनन के द्वारा इसे सिद्ध कर सकता है. संक्षेप में किसी भी नदी के किनारे, सूर्य के अंतरिक्ष में मध्यस्थ रेखा से आगे जाते ही स्थिर होने पर ऊपर कथित सामग्री के सहयोग से इसे संपन्न कर सकता है.
तर्पण प्रत्येक व्यक्ति का एक आवश्यक कर्त्तव्य है. यदि निरोग, सुखी एवं प्रसन्न रहना है तथा इसमें स्थायित्व बनाए रखना है तो श्राद्ध एवं पितृ तर्पण तो करना ही पडेगा. अन्यथा जीवन में स्थाई सुख संपदा का सदा अभाव बना रहेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है. चाहे कोई इस कार्य का कितना भी बहिष्कार, शिकायत एवं विरोध क्यों न करे.
संतानवाधा, राहू-केतु कृत दोष, भयंकर चर्म रोग एवं पारिवारिक विघटन के निवारण के लिए इस कार्य को अनिवार्य रूप से करना चाहिए.
अफसोस इस बात का है क़ि वर्त्तमान समय में यह काम कुछ तो मंहगाई के कारण बहुत कठिन हो गया है. और कुछ धूर्त एवं ठग पंडितो द्वारा इसे दुरूह बना दिया गया है. किन्तु इसमे कोई संदेह नहीं क़ि केवल तिल, शहद एवं कुशा के द्वारा किया गया तर्पण भी विपन्नता निवारण का रामवाण उपाय है.
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