सृष्टी का विनाश तों होता है. किन्तु सर्वनाश कभी नहीं होता है. विनाश में कुछ विशेष चीजो, परिस्थितियों का नाश या विभाजन या रूप परिवर्तन हो जाता है. किन्तु जिसे शास्त्रों में जीव या वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार तत्व कहा गया है उसका कभी नाश नहीं होता है. जैसे जल अपने रूप को बदल देता है. कभी वाष्प, तों कभी बर्फ और कभी जल रूप में बदलता रहता है. ठीक उसी तरह शास्त्रीय वचन में कहा गया है कि जीव भी सदा अपने वस्त्रो को परिवर्तित करता रहता है. इस प्रकार जल या हाईड्रोजन पराक्साईड जब अन्य किसी तत्व से मिश्रित हो जाता है तों वह अशुद्ध हो जाता है. जैसे आर्सेनिक. आर्सेनिक मिला जल सदा घातक होता है. लेकिन यह कथन तर्क पूर्ण नहीं है. जल नहीं घातक होता है. बल्कि जल में मिला आर्सेनिक घातक होता है. उसी प्रकार शरीर या वस्त्र में लिपटा जीव कभी दूषित नहीं होता है. बल्कि उसका आवरण दूषित होता है. तथा उस दूषित वस्त्र से जन्म लेने वाले क्रिया-कलाप चाहे वे सूक्ष्म (भाव या कल्पना) हो या स्थूल (हिंसा-अहिंसा आदि).
ठीक इसी प्रकार कोई भी ग्रह अपने मूल रूप में कभी पापी नहीं होता है. चाहे वह शनि हो या राहू, मंगल हो या केतु. जैसे दशम भाव में शुक्र के साथ बैठा उच्च राशिगत शनि तथा लग्न में मंगल जैसा पापी ग्रह पाप राशि का हो जाय तों ऐसे जातक को धन, कीर्ति, यश एवं सम्मान अपार मिलती है. अब आप स्वयं देखें मंगल भी पापी, शनि भी पापी. तथा दोनों ही केंद्र में. यदि ये अशुभ है तों इनका फल दरिद्र बनाना एवं अपमान एवं कलंक आदि देने वाला होना चाहिए. किन्तु ऐसा न होकर ये दोनों रंक को भी राजा बनाने क़ी क्षमता रखते है.
ग्रह कुंडली में जिस भाव में अपनी दृष्टि रखता है, उस भाव को अपने प्रकाश या प्रभाव के वश में कर लेता है. इस प्रकार सदा नैसर्गिक या स्वाभाविक पापी कहा जाने वाला ग्रह भी भाव या राशि के अनुसार पाप या शुभ फल देता है.
गुरु स्वाभाविक शुभ ग्रह है. किन्तु यदि वह उच्च का ही क्यों ना हो मंगल या बुध के साथ सुख भाव में बैठ जाय तों जीवन नरक बन जाता है. कारण यह है कि ऐसी अवस्था में गुरु अपनी अंतिम राशि मीन का स्वामी होगा जो व्यय भाव का स्वामी है. तथा यदि मंगल के साथ बैठता है तों उच्च गुरु के साथ मंगल नीच का हो जाएगा. या बुध के साथ बैठता है तों बुध ऐसी अवस्था में अपनी अंतिम राशि कन्या का स्वामी होगा जो छठे भाव में है. इन तीनो ही अवस्थाओं में व्यक्ति बहुत दुखी जीवन बिताने पर मज़बूर हो जाएगा.
यही आप एक उदाहरण और देखें, सूर्य, शनि एवं मंगल तीनो अति क्रूर एवं पापी ग्रह कहे जाते है. किन्तु यदि उच्च का सूर्य लग्न में हो जो केंद्र भाव है, शनि सातवें केंद्र भाव में हो तथा मंगल दशवें केंद्र भाव में हो तों ऐसा व्यक्ति अवश्य ही राजा होगा, तथा उसे पुरा संसार जानेगा.
कारण यह है कि ऐसी अवस्था में सूर्य पांचवें विद्या, यश एवं संतान भाव का स्वामी होकर उच्चस्थ होगा. दशवें भाव में लग्नेश मंगल उच्चस्थ होगा. तथा सातवें भाव में लाभेश या आयेश तथा राज्येश एवं पिता भाव का स्वामी शनि उच्चस्थ होगा. फिर कौन सा ऐसा ग्रह होगा जो इसे राजा होने से रोक सके?
ग्रह जिस भाव में बैठते है उससे ज्यादा फल या प्रभाव उस भाव का दिखाते है जिस पर उनकी दृष्टि पड़ती है. यद्यपि ग्रह जिस भाव में बैठते है, उस भाव का भी फल देते है. किन्तु यह तभी संभव है जब उनका प्रकाशित तल उस भाव में स्थित राशि पर पड़े. जैसे यदि पांचवे भाव में शुक्र भले अपने उच्च मीन राशि में ही क्यों न बैठा हो, किन्तु यदि 13 से 20 अंशो के बीच है, तथा किसी भी राशि में मंगल दशम भाव में है तों शुक्र का कोई भी शुभ प्रभाव पांचवें भाव के लिये नहीं होगा. क्योकि मीन राशि के तेरह से बीस अंशो के बीच मंगल दृष्ट शुक्र अंधा हो जाता है. या उसका अन्धेरा तल सम्मुख हो जाता है. किन्तु इस शुक्र का अंधा तल नीचे पड़ गया तों प्रकाशित तल ऊपर क़ी तरफ होगा. तथा इसकी दृष्टि ग्यारहवें भाव के लिये ह़र हालत में अनुकूल फल देने वाली होगी. अब यह अलग तथ्य है कि वह अनुकूल फल किस तरह का होगा. अर्थात लाभ अनैतिक प्रकार से होगा या नैतिक माध्यम से. इस प्रकार दृष्टि का फल उत्कट होता है.
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