मै अपनी ही धुन में लेपटाप के कीपैड पर उंगलियाँ टिक टिक करता चला जा रहा हूँ. थोड़ी ही दूरी पर मेरी सहधर्मिणी जी हाथो में चाकू को टमाटर काटने में लगा रखी है. वह कभी मेरी तरफ, कभी उंगलियों की तरफ और फिर कभी हाथ के टमाटर की तरफ देख लेती है. असल में पितृपक्ष में लगासूं प्याज से हम परहेज रखते है. तो फिर भोजन का एक ही सहारा बचता है. या तो सलाद से खाएं. या फिर दही के साथ. मैं रात में दही खाने से परहेज रखता हूँ. इस लिए रोटी को बिना सब्जी के चबाने से अच्छा है क़ि थोड़ा सलाद काट लिया जाय. और जैसे तैसे खाकर ऊपर से थोड़ा दूध पी लिया जाय. जे हाँ, थोड़ा दूध इस लिए क़ि दूध बच्चो से ही नहीं बच पाता है. इसके अलावा चाय भी बनानी ही पड़ेगी. तो फिर ज्यादा दूध खरीदना मेरे बूते से बाहर की चीज हो जाती है. अड़तीस रुपये किलो दूध बहुत हिम्मत कर के साढ़े तीन किलो रोज खरीद पाने की क्षमता ही रखता हूँ. इससे ज्यादा हिम्मत दिखाने पर सब गड़बड़ हो जाएगा.
इसे ही ध्यान में रख कर मेरी धर्म पत्नी जी मेरे लिए सलाद काटने में जुटी है. कारण यह है क़ि टमाटर पच्चीस रुपये में एक क़िलो मिल जाता है. अतः यह सस्ता, स्वास्थय वर्धक एवं स्वादिष्ट भी हो जाता है.
मेरी धर्म पत्नी जी एक पढी लिखी महिला है. एक अच्छी एवं उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी उन्हें गृह मंत्रालय का कार्य भार ज्यादा पसंद आया. अतः एक सफल गृहिणी के रूप में अपने 38 वसंत उन्होंने गुजार दिए है. तथा नाती पोतो में व्यस्त रहती है.
और आज यही मुझे बहुत विचित्र लग रहा है. कारण यह है क़ि मै जब कुछ लिखने बैठता हूँ तो अक्सर मेरे पास कोई नहीं आता है. मेरी धर्म पत्नी जी को भी यह मालूम है क़ि इससे मेरे लेखन में बाधा पहुँचती है. किन्तु आज वह स्वयं मेरे पास पूरा प्लेट लिए हुए तथा उसमें टमाटर, हरी मिर्च एवं अदरक लिये पहुँच गयीं. तथा थोड़ी दूरी पर कुर्सी पर बैठ गयी. और सलाद काटना शुरू कर दीं.
मै कुछ देर तक इधर ध्यान नहीं दिया. मै सोचा क़ि बच्चे संभवतः पढ़ने में व्यस्त है. इसलिए वह उधर से इधर आकर बैठ गयी है. और मै लिखता रहा.
वैसे तो प्रत्येक पति को अपनी पत्नी की प्रशंसा करनी चाहिए. किन्तु यहाँ मैं अपनी पत्नी की यह जान कर के भी अलग से प्रशंसा कर रहा हूँ. ताकि जो मुझसे भी ज्यादा अपनी पत्नी से प्रेम करते हो उन्हें मुझसे ईर्ष्या हो.
अस्तु, श्रीमती जी ने सलाद काट लिया. और अब वह एक नज़र लगाए मेरी तरफ देख रही है. अब उनकी नज़रें मुझे चुभने जैसी लगने लगीं. बार बार लिखने की व्यस्तता के बावजूद भी मै उनकी तरफ मुखातिब हुआ. उंगलियाँ रुक गयीं. मैंने उनसे पूछ ही लिया.
हाँ भाई, क्या बात है? आज इधर बैठने का मौक़ा कैसे मिल गया?
बस कुछ नहीं. बहुत सरलता से उत्तर देते हुए उन्होंने पूछा क़ि रातदिन जब भी ड्यूटी से फुर्सत मिलता है तो या तो बच्चो के साथ छेड़छाड़ करते है या फिर लिखने बैठ जाते है. कुछ घर परिवार के बारे में बात नहीं करते है.
मैंने कहा क़ि एक पढी लिखी पत्नी के होने से यही तो फ़ायदा होता है क़ि घर परिवार के झमेले से मुक्त रहें. मैंने हंसते हुए पूछा क़ि आखिर बात क्या है?
कोई बात नहीं. बस ऐसे ही बैठ गयी. उन्होंने उत्तर दिया.
मैंने पूछा क़ि पहले तो इस तरह नहीं बैठती थीं.
शायद आप को विघ्न पहुँच रहा है. आप लिखिए. मैं जा रही हूँ.
तभी अन्दर से बड़ा वाला बेटा थाली में दीपक लिये उधर आया. मुझे और विचित्र लगा. क्योकि बड़ा बेटा पूजा पाठ तो करता है. किन्तु आरती करने के बाद वह आरती किसी को नहीं दिखाता है. सब लोग पूजा स्थल पर ही जाकर आरती लेते है. आज यह आरती लेकर सबको दिखाने आ रहा है. बड़ी विचित्र बात है. मै भी उठ कर खडा हो गया. किन्तु उसने थाली टेबल पर रख कर अपनी माँ के पैर छुए. उसके बाद उसने माँ को आरती दिखाना तथा उसके ऊपर नीचे दीपक घुमाना शुरू कर दिया. तभी बारी बारी से छोटा बेटा एवं बेटी वहां पर आगईं. उन लोगो ने भी पाँव छूकर उनकी आरती उतारीं. तथा पाँव छुए. मेरी धर्म पत्नी जी की आँखों से आंसू गिर रहे हैं. और वह लगातार मुझे देखती चली जारही है.
मै भौंचक्का खडा हूँ. मेरी समझ में नहीं आ रहा है. किंकर्तव्यविमूढ़ सा होकर खडा हूँ. सब बारी बारी से आरती उतार कर एक तरफ खड़े हो गए. उसके बाद धर्मपत्नी जी उठ कर मेरे पाँव की तरफ झुकीं. मैं थोड़ा पीछे हट कर उन्हें उठाया. मुझे कुछ याद या समझ में नहीं आ रहा था. फिर बेटी ने ही बताया क़ि अम्मा का जन्म दिन है.
मै पछताने लगा. पूरा दिन बीत गया. रात हो गयी. और जो बेल मेरे शरीर के तने से लिपट कर ही सुखी रहने का अहसास करती है. सूरज डूबते ही जैसे छाया मूल रूप में ही अन्तर्निहित हो जाती है, उसी तरह मेरी सेवा के लिये दूसरे शरीर के रूप में तथा सेवा पूरी होते ही छाया के सामान मेरे अन्दर ही समाविष्ट हो जाती है. जो मेरे साथ भोजन करके ही अपने आप को तृप्त मानती हो. जिसने मेरे समकक्षी शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी कही नौकरी करना सिर्फ इसलिए पसंद नहीं किया क़ि दूसरा कोई देख रेख करने वाला नहीं होगा. आधुनिकता का लिबास असभ्यता एवं निर्लज्जता का द्योतक लगा, इसलिए उन्होंने पारंपरिक परिवेश ही सर्वोत्कृष्ट मान कर उसे ही परम सुख का आश्रय माना. और मैं स्वार्थी एवं दुर्बुद्धि ऐसी सहधर्मिणी के लिये इतना भी समय नहीं निकाल सका क़ि एक तिथि को ध्यान में रख सकूं.
जी हाँ, मेरे परिवार में अंगरेजी तारीख से नहीं बल्कि हिंदी तिथि से जन्म दिन मनाया जाता है. आज आश्विन कृष्ण षष्ठी को मेरी धर्म पत्नी जी का जन्म दिन था. मुझे बहुत ग्लानी हुई. मै कुछ लिख रहा था. मैंने एक ही झटके में समूचे लेख को डिलीट कर डाला. और चारपाई पर पड़ कर कही दूर खो गया.
इस महिला ने अपना सुख कुछ जाना ही नहीं. बच्चो के पालन पोषण में ही अपनी सारी जिन्दगी बिता दीं. घर-परिवार सहेजने-समेटने में ही रात-दिन लगी रही. बुखार से तपते रहने पर भी प्रत्येक चारपाई पर घूम घूम कर सबका हाल लेती रही. दूसरे घर से आई महिला मेरी बन गयी. लेकिन मै आज तक उसका नहीं बन सका. भोजन और वस्त्र तो आदमी अपने नौकरों को भी दे देता है. और मै भी इसके अलावा उन्हें दिया ही क्या. दिमाग में उमड़ घुमड़ मची हुई है. जब सिर में कुछ दर्द सा महसूस हुआ तो चारपाई से उठा. घर से बाहर निकला तथा मेस की तरफ बढ़ गया.
भले ही एक संभ्रांत एवं सुशील परिवार से उनका सम्बन्ध रहा हो. भले ही उच्च शिक्षा उन्होंने प्राप्त किया हो. आखिर आयीं तो पराये घर से ही थीं. फिर भी दूध में पानी की तरह इस अनजाने परिवार से घुल मिल गयीं. इस परिवार का सारा दुःख-सुख उनका अपना हो गया. परिवार की छोटी से छोटी से अच्छी या बुरी घटना उनकी अपनी हो गयी. लेकिन मै उनका अपना नहीं हुआ.
लानत है मेरी पढ़ाई लिखाई पर. लानत है दूसरो को दी जाने वाली मेरी शिक्षा पर. लानत है मेरे पंडित की संज्ञा से विभूषित होने पर. पंडित तो दूर, मै तो एक आम आदमी भी नहीं बन सका. एक सामान्य आदमी भी अपनी बीबी एवं बच्चो की छोटी बड़ी बातो का ध्यान रखता है. मै अपने आप को एक बहुत नामी पंडित मानता हूँ. लेकिन आज बहुत घृणा महसूस हुई है.
आज तक जिसे किसी से झगड़ा करने का तरीका नहीं मालूम हो सका. पहले तो आज तक उनका किसी से झगड़ा होता नहीं है. यदि ज्यादा गुस्सा हो गयीं तो दूसरा ही आकर उनसे क्षमा मांग लेता है. और उनकी आँखें गंगा-यमुना बन जाती है. चाहे कोई कितना भी बुरा क्यों न हो, इनका भक्त बन कर ही रह गया. और मै, भक्त तो दूर, परिवार का एक जिम्मेदार सदस्य भी बन कर नहीं रह सका जो इन छोटी छोटी बातो को भी बंटा सकूं.
जिसकी पूजा भी समस्त परिवार की सुख शान्ति के निमित्त होती है. जिसकी इच्छा भी परिवार के विकास तक ही सीमित है. जिसका उद्देश्य ही मेरे दीर्घायु तक सीमित है. जिसका अपने लिये कुछ भी नहीं, वह मेरे लिये ही कुछ नहीं के समान है, इस पर विचार आज आया. और मेरा सारा वजूद ही हिल गया.
निश्चित रूप से उन्होंने कुछ नहीं कहा. उन्होंने इस बात को भी आम दिन की दिनचर्या का एक हिस्सा मान लिया. किन्तु मेरे लिये यह एक आघात सा लग गया.
क्या सब को नैतिकता का शिक्षा देने वाला मै स्वयं अपनी ही दूसरो को दी जाने वाली नसीहत का अनुकरण करता हूँ? क्या मै दूसरो को नसीहत देने के योग्य हूँ? क्या मै लोक परलोक की शिक्षा दूसरो को देकर इसके गुण दोष का जो व्याख्यान देता हूँ, वह मेरे ऊपर लागू नहीं है?
इसमें कोई संदेह नहीं क़ि आज जीवन के अड़तीस वसंत गुजारने के बाद शास्त्र का यह कथन उन्होंने अक्षरशः सत्य कर डाला है-
“कार्ये दासी रतौ वैश्या भोजने जननी समा.
आपदां बुद्धिदात्री च सा भार्या भू दुर्लभा.”
अर्थात सेवा करने में दासी के सामान समर्पित, सहवास के समय एक वैश्या की सफल भूमिका अदा करने में चतुर, भोजन कराने में एक ममतामयी माँ के रूप में व्यवहार करने वाली तथा विपत्ति के आने पर सटीक बुद्धि देने वाली सहधर्मिणी धरती पर मिलना दुर्लभ है.
और मैं, इस दुर्लभ भूरत्न के पाने पर भी एवं आज अड़तीस साल बाद भी इसका अनुमान या अहसास नहीं कर सका. क्या यह मेरी अवनति का प्रथम चरण है? या कलियुग समूचे लाव लस्कर के साथ मुझसे लिपट गया है?
तभी मेस से सटे एक सरकारी आवास में रह रहे पति पत्नी के गाली गलौज एवं झगड़ने की जोर जोर की आवाज सुनाई देने लगी. तभी लगा क़ि पति किसी चीज से अपनी पत्नी को मार रहा है. पत्नी चीख रही है. मै तथा एक और व्यक्ति लपकते हुए उधर बढ़ चले. अचानक किसी पुरुष के चीखने की जोर की आवाज आई. हम थोड़ा तेजी से उधर दौड़ पड़े. घर के अन्दर का दृश्य ही कुछ और था. पत्नी ने सिल बट्टे से अपने पति के सिर पर दे मारा था. पति ज़मीं पर पडा तडफडा रहा था.
पत्नी के सिर, मुंह एवं पीठ पर चोट थी. कपडे फट गए थे. जगह जगह से खून रिस रहा था. एक तरफ दो बच्चे सहमे खड़े रो रहे थे. धीरे धीरे पड़ोस के भी लोग एकत्र हो गए. सरकारी एम्बुलेंस आई. पति पत्नी दोनों को लेकर मिलिट्री हास्पीटल चली गयी. दोनों बच्चो को लेकर मेरी धर्म पत्नी अपने घर आ गयीं. मै बाहर ही घूमता रहा.
पुनः वे ही झंझावात दिल दिमाग को मथने लगे. मुझसे अपनी पत्नी का आज तक कड़ी जुबां में बात नहीं हुई. जब क़ि मै स्वभाव से अक्खड़, पेसे से फौजी, नित्य कर्म भी कठोर एवं अनुशासित, फिर भी आज तक ऊंची आवाज में उनसे बात नहीं हुई.
और आज उनका जन्म दिन भी मै याद नहीं रख सका. मेरा जन्म दिन तो मुझे खुद ही याद नहीं. जब मै अपनी ज्योतिष की पढ़ाई पूरी कर लिया. तो एक दिन मुझे अपनी ही कुंडली बनाने की इच्छा हुई. मैंने अपनी माँ से अपनी जन्म तिथि के बारे में पूछा. माँ कुछ देर चुप रह कर और बहुत सोच कर बोली—- “जब बड़ी वाली बाढ़ आई थी, उसके तीन दिन बाद भूरी भैंस ने बच्चा दिया था. उसके अगले दिन शाम को तुम्हारा जन्म हुआ था.”
मेरा दिमाग चकरा गया. अब बड़ी वाली बाढ़ कब आई थी? वह भूरी भैंस कौन थी? उसके अगले दिन कौन तिथि थी? बस मेरी कुंडली बन गयी. लेकिन मेरी धर्म पत्नी जी एक अनुमान के सहारे ज्येष्ठ की पूर्णिमा को बड़े ही श्रद्धा एवं रूचि के साथ मेरा जन्म दिन मनाती है. अच्छा खासा आयोजन करती है. इसका विवरण यहाँ देना उचित नहीं लगता. किन्तु मैं उनका जन्म दिन मनाना तो दूर, याद तक नहीं रख सकता.
मेरे अन्तःकरण में बहुत हलचल हुई. एक बार तो मन में यह विचार आया क़ि चल से उनसे क्षमा मांग लूं. किन्तु कुछ सामाजिक माँ मर्यादा को ध्यान में रखते हुए या अपने पति होने की उच्चता के झूठे अहंकार में मुझे यह बहुत भद्दा लगा. एक औरत से क्षमा कैसे मांगूं? लडके क्या कहेगें? मन एवं तर्क सब परस्पर टकराते रहे. अन्दर झंझावात की आंधी चल रही थी. क्या करूँ> क्या न करूँ? मुंह सूखने लगा. मै पानी पीने घर में आया.
देखा तो मेरी धर्म पत्नी जी बड़े मनोयोग से अपनी पोती तथा उन दोनों बच्चो को खाना खिला रही है. और बच्चे सब कुछ भूल कर हंस हंस कर खाना खा रहे है. पता नहीं वह कौन कौन सी कहानी कहती चली जा रही है. और बच्चे खुश होकर खाते चले जा रहे है.
मै सोचा क़ि अगर पानी मांगता हूँ. तो वह उठ कर पानी लाने चली जायेगीं. तथा बच्चो के खाने में व्यवधान पडेगा. मै पुनः वापस मेस की तरफ बढ़ गया. वहां जाकर मेस ब्वाय से पानी मांग कर पानी पिया.
फिर मै दूसरी तरह से सोचना शुरू किया. क्या मेरी धर्मपत्नी उम्र दराज़ हो गयी है इसीलिए मै उसे उपेक्षित कर रहा हूँ? क्या उसका शारीरिक आकर्षण या शरीर सौष्ठव अवनत हो गया है इसलिये मेरा झुकाव या रूचि उधर से कम हो गयी है? किन्तु स्वयं जबाब मिलता है क़ि जब वह युवावस्था में थी तो कौन सा मै रोज उनकी आरती उतारा करता था? ठीक है क़ि मेरा उनके प्रति सम्बन्ध बहुत ही मधुर, आदर्श, पवित्र एवं स्वच्छ रहा है. बल्कि यूं कहें क़ि ज्यो ज्यो दिन बीतते गए, उनके आचरण, सोच, भूमिका एवं दिनचर्या ने इस सम्बन्ध को और ज्यादा गहरा एवं सुदृढ़ बना दिया. किसी को विश्वास नहीं होगा, मेरे स्वर्गवासी पिताजी जो सत्तैसो गाँव के मुखिया एवं एक बहुत दिमागदार प्रसिद्ध ज़मींदार थे, मेरी धर्मपत्नी के हर बात पर आँख बंद कर के हामी भर देते थे. किन्तु मेरे परिप्रेक्ष्य में क्या यह सब एकांगी या स्वार्थपरता के आधार पर टिकी थी? या अब भी उसी पर टिकी है?
और यदि मेरी यही भावना है तो निश्चित रूप से इस सोच वाला व्यक्ति अगली पीढी के लिये खाज में कोढ़ प्रमाणित होगा.
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