औरतो का क्या दर्ज़ा हो?–दुर्गापूजन के अवसर पर विशेष।
वेद विज्ञान
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औरतो का क्या दर्ज़ा हो?–दुर्गापूजन के अवसर पर विशेष।
आज के आधुनिक एवं उन्नत विज्ञान के हवाई घोड़े पर सवार एवं पाश्चात्य साहित्य, सभ्यता, संस्कृति एवं ज्ञान के साधू अभीगर्हित भारतेतर मान्यताओं से परिभाषित सिद्धांतो के स्वप्निल मधुर वायु प्रवहण के झोंके में उन्मीलित नेत्रों वाले तथाकथित उच्चविचार वाले अग्रणी समाज सेवी पौराणिक पूजा विधान एवं यंत्र-मन्त्र को ढकोषला बता कर उत्सुक किन्तु पीड़ित व्यक्तियों में खूब लोक प्रिय हो रहे है। और भोली भाली जनता इनके रंग विरंगे शिगूफो से खूब प्रभावित भी हो रही है।
यह भारत में सदा से होता आया है की जब किसी के घर का कोई सदस्य गाँव घर से बाहर जाता था। तो कुछ दिन बाद उसके वापस आने पर उसे गाँव घर में विशेष दर्ज़ा दिया जाता था। वैसे गाँवों में दूर दराज़ क्षेत्रो में यह परम्परा आज भी देखने को मिल सकती है। बस लोग शुरू हो जाते है—–
“अरे चलो रे बबुआ बम्बई से आया है। देख कर आते है। बहुत कुछ सीख कर आया है। मैंने तो उसे थोड़ा सा ही देखा है। पता नहीं कौन सी भाषा बोल रहा था। मुझे तो उसकी गिडबिड समझ में ही नहीं आ रही थी।”
दूसरा बोलेगा—
“अरे भोंदू वह बम्बई से नहीं बिलायत से आया है।”
पहला “तुम्हे कैसे पता?”
दूसरा—” देखा नहीं उसके साथ एक गोरी चिट्टी मेम भी आयी है?”
और बस कोई यह नहीं पूछेगा कि वह बम्बई या बिलायत में क्या करता था? मज़दूरी, या चोरी या किसी शेख की बकरी चराता था। बस एक ही बात सब लोग जानते है की वह बिलायत से आया है। बहुत पढ़ लिख कर आया है। और वह जो कहेगा सब कुछ सच्चा कहेगा।
आज कुछ गैर भारतीय लेखको के विदेशी साहित्य के दो चार पन्ने पढ़ कर भारतीय साहित्य, ज्ञान, संस्कार, आचार-विचार एवं परम्परा के विरोध में बोलने वालो की भी यही स्थिति भारत में है। इन्हें भी “बिलायत से आये बबुआ” की हैसियत से देखा जाता है। लेकिन नीला सियार की तरह धुप एवं वर्षा में शरीर का नीला रंग जब उतर जाता है। तो वही “बिलायती बबुआ” दूध में गिर पडी मक्खी की तरह निकाल फेंका जाता है। उसमें भी यदि कोई मक्खी चूस मिल गया तो वह निकाल कर फेंकने से ही संतुष्ट नहीं होगा। बल्कि उस मक्खी को तब तक निचोडेगा जब तक उसके शरीर से एक एक बूँद दूध का नहीं निकाल लेता है। चाहे मक्खी का कीमा बन जाए।
जिस तरह से नेता लोग चुनाव के समय बिलकुल पाक साफ़ छबि वाले बन कर वोट माँगने आते है। उनका प्राकट्य बिलकुल निष्कपट, कर्त्तव्यपरायण, जन सेवा के लिए मन-कर्म एवं बचन से समर्पित, बहुत अनुभवी होता है। जनता उन्हें चुन कर लोक सभा एवं विधान सभाओं में भेज देती है। किन्तु वहां जाने के बाद जब उस नीले सियार का असली रूप प्रकट होता है, तब जनता माथा पीट कर रोने लगती है।
आज भारत में यह विशेष रूप से हर जगह आसानी से देखने को मिल सकता है। पंडित झूठा है, ज्योतिष पाखण्ड है, रीतिरिवाज ढकोषला एवं सामाजिक अनुशासन एक अवांछित तथा विकाश में बाधक प्रतिबन्ध है। ऐसे ही सुनने एवं देखने में बहुत ही आकर्षक लगने वाले नारे लगाकर ये “बिलायती बबुआ” लोग कुछ देर तक लोगो को उन्नति के सब्जबाग़ दिखाते है। और उस बेचारे सीधे सादे व्यक्ति को जब तक इस “बिलायती बबुआ” की हकीकत मालुम हो, उनका सब कुछ लुट चुका होता है। और उसे सिवाय पश्चात्ताप एवं बर्बादी के आंसू बहाने के कुछ भी हाथ नहीं लगता है।
आज औरतो को बहुत कुछ गाने बजाने , ढोल पीटने , चीखने चिल्लाने के बाद महज़ पुरुषो के बराबर दर्ज़ा देने की सरकार से मांग की जा रही है। तो क्या यह दर्ज़ा कोई दवा की डिबिया है जो सरकार किसी गोदाम से निकाल कर औरतो के हाथ में दे देगी? सरकार से क्यों मांग रहे हो? सरकार भी तो तुम्ही को कहेगी की उसे बराबरी के स्तर से रखो। फिर सरकार से चीखने चिल्लाने से क्या फ़ायदा? वह काम स्वयं ही क्यों नहीं करते हो? जब तुम स्वयं औरतो को अपने बराबर रखना, देखना, समझना एवं व्यवहार करना शुरू कर दोगे तो बिना सरकार के चाहे भी औरतो को समाज में बराबरी का दर्ज़ा अपने आप मिल जाएगा। किन्तु यह तो घडियाली आंसू बहाकर औरतो की सहानुभूति बटोरने का वर्त्तमान समय में बहुत ही मुफीद नुस्खा बन गया है। और इस सहानुभूति की हंडिया में आज ये ही नारा बुलंद करने वाले घपले, घोटाले एवं शोषण की खिचडी में राजनीति का घी डाल कर बड़े ही प्रेम से चटखारे ले ले कर रहे है।
अरे धोखेबाजों ! तुम तो सरकार से सिर्फ कागजो में औरतो के बराबरी का दर्ज़ा मांग रहे हो। इन औरतो को तो आदि काल से ही पूज्या होने का गौरव प्राप्त है। वैदिक कालीन लोपामुद्रा, घोषा एवं सरस्वती आदि को क्यों भूल रहे हो? दुर्गा, लक्ष्मी तथा पार्वती आदि स्त्रियों की पूजा से क्या शिक्षा मिलती है? तुम तो सिर्फ कागजो में मांग कर रहे हो। इनकी तो आज प्रत्यक्ष पूजा होती है।
पहले तुम अपने घरो में तो अपनी पत्नी की पूजा करो। अपनी बेटी को पूजा के योग्य बनाओ। ताकि पराये घर में जाने पर उसकी पूजा होवे। आज किस लड़की का बलात्कार हो रहा है? किसका लड़का बलात्कार कर रहा है? तुम्हारे ही लडके लड़की तो हैं? उन्हें तो पूज्या बनाते नहीं हो? उन्हें तो पाश्चात्य चमक दमक से ओतप्रोत एक आकर्षक रूप प्रदान कर झूठे अहंकार की धातु से बनी प्रदर्शन की थाली में परोस देते हो। लडके या लड़की की शारीरिक बनावट, स्वभाव, प्रकृति या भूमिका को नज़र अंदाज़ कर देते हो। स्थानीय परम्परा, रीतिरिवाज को बीते ज़माने का एक अनावश्यक बंधन मान कर पुराने लोगो,बुजुर्गो एवं पुरखो की “सठियाई बुद्धि” की खिल्ली उड़ाते हो। तो फिर आज क्यों हल्ला मचाये हुए हो? पश्चिम में तो पतियों एवं पत्नियों का प्रतिदिन नवीनीकरण वहां की परम्परा का एक अंग है। और भारत में उसे व्यभिचार के रूप में माना जाता था। आज के गर्लफ्रेंड एवं ब्वायफ्रेंड का क्या औचित्य है? क्या कभी गर्लफ्रेंड एवं ब्वायफ्रेंड की परिभाषा के व्यभिचारी पहलू एवं उसके विषाक्त घातक सामाजिक दूरगामी दुष्परिणाम वाले पहलू का भी अध्ययन किये हो? आज अगर किसी बच्चे ने पिताजी एवं माताजी कह दिया तो उसकी खैर नहीं। उसे अगले कई महीने तक डैडी एवं मम्मी कहने के लिए मार खानी पड़ेगी। आंटी एवं अंकल कहने से “प्रेस्टीज एवं ग्लेमर के अलावा स्टेटस” भी बहुत ऊंचा उठ जाता है। चाचा एवं चाची तथा मौसी आदि शब्दों से घिन होने लगी है।
मत चीखो चिल्लाओ। अब और ज्यादा बेवकूफ न बनाओ। माँ यदि बच्चे की गुस्ताखी माफ़ कर रही है तो इसे उसकी मूर्खता मत समझो। यदि अपना, अपने परिवार, बेटा-बेटी, का उद्धार एवं चतुर्दिक उत्थान चाहते हो तो इसकी शुरुआत पहले अपने परिवार से करो। फिर गाँव, उसके बाद राज्य एवं देश का उत्थान अपने आप हो जाएगा।
मत औरतो के बराबरी के दर्जे की मांग करो। उन्हें पूज्या एवं आदरणीया बनाओ। उन्हें उनके अनुकूल सुखी, खुश एवं विकशित होने की शिक्षा एवं चर्या की व्यवस्था करो।
आज जगज्जननी माता दुर्गा के पवित्र पूजन अवसर के सन्निकट होने पर यह तो शपथ लो।
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