पूजा चाहे किसी भी देवी या देवता की हो उसमें कुछ बातें सामान्य एवं आवश्यक होती है। जैसे पवित्र एवं एकाग्रचित मन, शुद्ध एवं निरापद स्थान, शुद्ध सामग्री एवं निश्चित लक्ष्य।
आज संसार की बहुविध जटिलताओं के कारण मन का एकाग्रचित्त होना बहुत कठिन हो गया है। इसके लिए पूजा के पहले अनुपूरक, प्रक्षेप एवं विभाजक व्यायाम पांच-सात बार कर लें। उसके बाद लगभग पांच मिनट के लिए शवासन कर लें। और उसके बाद उन्मीलन करने के उपरांत आसन पर बैठ जाएँ।
स्थान के बारे में बताया गया है की आबादी से दूर निर्जन नदी का तट सर्वोत्तम होता है। किन्तु वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में यह कठिन हो गया है। अतः पारिवारिक आवास से हट कर किसी स्थान को पूजा के लिए चुने। आवासीय परिसर यज्ञादि क्रियाओं के लिए अनुपयुक्त या प्रतिबंधित है। संभवतः आप को यह विदित होगा की पुराने ज़माने में मंदिर या ठाकुरवाडी गाँव के बाहर बनायी जाती थी।
अभी तो क्या बताएं? घर बनाते समय नींव तथा चतुर्दिक इन्द्र, अग्नि तथा यम आदि दवताओं को प्रतिष्ठित किया जाता है। वास्तु देवता को प्रतिष्ठित कर घर को एक परिधि में उन देवी-देवताओं की सुरक्षा के सुपुर्द कर दिया जाता है। और फिर उसी में शौचालय का निर्माण कर उन देवताओं को उसका प्रहरी नियुक्त कर दिया जाता है कि हे देवी देवता ! कृपया आप लोग शौचालय का भी रखवाली करते रहना।
पुराने जमाने में शौचालय तो दूर, अन्तः कक्ष यहाँ तक की कोपभवन तक प्रपूजित नींव की परिधि से बाहर हुआ करते थे। शौचालय तो दूर की बात रही। अब मेरे इस कथन पर कुछ संभ्रांत लोग टिप्पड़ी करेगें की आज बढ़ती आबादी में जहां सर छिपाने की जगह नहीं मिल पा रही है। संकीर्णता में किसी तरह घर बनवाना पड़ रहा है। जमीन के भाव आसमान छू रहे हैं। वहां पृथक शौचालय कैसे बन सकता है?
बात भी सही है। किन्तु आप खुद ही देखें, किसी किसी के पास इतने फ़्लैट और बहुमंजिला इमारतें है की कोई रहने वाला नहीं। और किसी के पास सर छिपाने की छत नहीं। अब अगर इस विषय पर कुछ कहता हूँ तो यह एक अलग ही बहस का मुद्दा हो जाएगा। आज कल एक फैशन बन गया है। लोग यह दिखाने के लिए कि मेरा शहर में भी मकान बना है। ताकि लोगों की नज़रो में “स्टेटस” ऊंचा उठे लोग इजात की नज़र से देखें। दौड़ दौड़ कर ढेर सारा पैसा लगाकर शहर में घर बनवा रहे है। बस दो कमरे बन गए। एक कमरे को छोटा कर के उसी में शौचालय एवं स्नानघर बन गया। दूसरे में छोटा कर के उसी में पाकशाला बन गयी। बस शहर का मकान खडा हो गया। और इस प्रकार “बड़े आदमी” बन गये।
तो दोनों में से कोई एक ही हो सकता है। या तो शहर की रंगीली खुशनुमाइयों के चमक दमक भरे पोखरे में डुबकी लगाओ। या खुली जगह पर स्वतंत्र एवं स्वच्छ हवा में सांस लो।
अस्तु, प्रसंग विचलन होने लगा है। पारिवारिक आवास से दूर यदि साधना के लिए स्थान चुना जाय तो बहुत अच्छा। आसन के लिए ऊनी वस्त्र या कुश या पत्तो की चटाई उत्तम है। अगरबत्ती का प्रयोग पूजा के लिए कदापि न करें। धुप का इस्तेमाल करें। सदा ताम्बे के जल पात्र का प्रयोग करें। या फिर मिट्टी के बर्तन का प्रयोग करें। सुन्दर फूल ले लें।
आसन लगाकर बैठ जाएँ। पूर्व बतायी विधि से मन को क्षणिक ही सही मन को नियंत्रित करें। आसन पर बैठें। उस समय देख लें की किस दिशा से हवा बह रही है। उसके विपरीत मुंह कर के बैठें। यदि दाहिने हाथ में सोने की अंगूठी हो तो ठीक है। अन्यथा पवित्री धारण करें। यदि सर पर चोटी नहीं है तो चोटी के स्थान पर ताजी हरी दूर्वा रख लें। तथा सिर को धुले साफ़ वस्त्र से ढक लें। इस प्रकार सिर पर वह दूर्वा दब जायेगी। पांच बार जितनी लम्बी सांस खींच सकते हो, खींचें। उसके बाद पांच बार जितनी ज्यादा देर लगाकर सांस बाहर निकाल सकते है, बाहर निकालें। इस क्रिया के बाद दाहिने हाथ से शरीर के बाएं अंग को ऊपर से नीचे तक तथा बाएं हाथ से दाहिने भाग को स्पर्श करते चले जाएँ। उसके बाद सम्मुख भूमि पर तीन लाल फूल पंक्ति बद्ध कर के रखें। उनमें से पहले फूल को दुर्गा का लक्ष्मी स्वरुप मानें। दूसरे को काली के स्वरुप में देखें। तथा तीसरे को सरस्वती के रूप में देखें। आप के पास जो कुछ भी हो जैसे मीठा, फल, नारियल, दूध, अक्षत, दही, उसे तीनो माताओं के नाम से क्रम से फूलो पर चढ़ावें। नहीं संभव हो या कोई कठिनाई हो तो सिर्फ अक्षत ही चढ़ावें। उसके बाद तीनो माताओं को धुप, दीप दिखावें। और फिर तीन माला मन्त्र का जाप करें। पहले क्रम से लक्ष्मी के नाम से और उसके बाद काली एवं सरस्वती के नाम से नवार्नव मन्त्र का जाप करे। मन्त्र निम्न प्रकार है—
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।
कृपया उच्चारण का ध्यान रखें। यदि भय हो की शुद्ध उच्चारण नहीं हो पायेगा तो न करें। फिर केवल दुर्गा देव्यै नमः का ही जाप करें। जब तीनो मालाओं का जाप हो जाय। तो आँख बंद कर कल्पना में माताजी के शेर पर सवार प्रसन्न मुद्रा में वरद हस्त वाले रूप का ध्यान करें। आँख बंद किये हुए ही दोनों हाथो से उनके पाँव को स्पर्श करें। कल्पना में ही देखें कि आप की आँखों से आंसू गिर रहे है। और आप आतुर होकर अपने अपराध एवं गलतियों के लिए क्षमा मांग लें। उसके बाद आँखें खोलें। और निम्न मन्त्र आराम से धीरे धीरे पढ़ते जाएँ———-
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वरी।
यदक्षर पद भ्रष्टं स्वर व्यंजन विवर्जितम । तत्सर्वं क्षम्यताम देवि प्रसीद परमेश्वरी।
फिर जल पात्र से थोड़ा थोड़ा जल तीनो फूलो पर बारी बारी से गिराएं। और उसके बाद फूलो को उठाकर सर से लगाते हुए अन्य चढ़ाई गई सामग्रियों के साथ किसी साफ़ झाडी में डाल दें। या फिर थोड़ा गड्ढा खोद कर उसमें दबा दें।
यह माता की पूजा का सबसे छोटा विधान है।
किन्तु यह पूजा का विधान है। साधना का नहीं।
साधना की प्रक्रिया जटिल, कठिन एवं दीर्घ है।
यदि माता जी की कृपा रही तो तांत्रिक साधना का भी उल्लेख करूंगा।
विशेष एवं विस्तृत जानकारी के लिए मेरे पिछले लेखो का अवलोकन करें।
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