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असाध्य रोग एवं ज्योतिष

वेद विज्ञान
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असाध्य रोग एवं ज्योतिष
यह शरीर इन्द्रिय, सत्व (मन) एवं आत्मा का एक संयोग है। इन तीनो जटिल कारको के स्थूल रूप को ही शरीर कहते है। तथा इनके अदृष्य या सूक्ष्म रूप को आयु कहते है। आयु या दूसरे शब्दों में जीवन के इस शास्त्र को आयुर्वेद या “आयुषो वेदः” कहा गया है। तो जब आयु की कोई सीमा नहीं तो फिर इस शास्त्र की सीमा कैसी?
“न ह्यस्ति सुतरामायुर्वेदस्य पारम। तस्मादप्रमत्तः अभियोगे अस्मिन गच्छेत अमित्रस्यापी वचः यशस्यं आयुष्ये श्रोतव्यमनुविधाताव्यम च।”
जिन प्राकृतक दृष्यादृष्य कारको तथा पूर्वापर कृत्यों एवं प्रभावों के कारण इस शरीर को आयु के साथ संचलन/विचलन या विराम (मृत्यु) प्राप्त होती है, उसको जिस प्रकाश या ज्योति में दृष्य या जानने पहचानने योग्य ग्रहण किया जा सकता है, उस शास्त्र को ज्योति शास्त्र या “ज्योतिष” कहते है।
ऊपर कथित तीनो कारक या यौगिक स्वयं बहुत ही जटिल है। अर्थात इनके निर्माण कारक असीमित है। जिसे ज्योतिष ने तो अपने गणित के बल बूते पर वर्गीकरण कर उनका निदान सुनिश्चित कर रखा है। किन्तु आधुनिक चिकित्सा विज्ञान जब अपनी सीमित या अपूर्ण ज्ञान क्षमता के बल पर जब कोई नई व्याधि देखता है, तो नित्य उसका एक नया नाम देता चला जाता है। उदाहरण स्वरुप आज से पच्चीस तीस साल पहले जब एक नया रोग दिखाई दिया तो उसे “कैंसर” का नाम दिया गया। उसके पूर्व इसे विज्ञान नहीं जानता था। तब यह रोग असाध्य माना जाता था। धीरे धीरे इसका इलाज़ विज्ञान ने अपने सीमित एवं अपूर्ण साधनों/संसाधनों के बल पर लक्षणाधारित किञ्चित एवं सीमित निवारण ढूंढा। यद्यपि आज भी “रक्तार्बुद (Blood Cancer)”, ऊतकार्बुद, श्लेष्मार्बुद, कोशिकार्बुद आदि असाध्य ही हैं। उसके बाद जो नयी व्याधि विज्ञान की दृष्टि में आई है उसे “एड्स” कहा जा रहा है। जो अभी तक असाध्य ही है।
किन्तु ज्योतिष के तीक्ष्ण एवं आलोकित प्रकाश में समग्र प्रभावोत्पादक कारको को इस त्रिगुणात्मक संरचना के संपर्क में आयुर्वेद ने देखा तथा उन सबको अपने अध्ययन विस्तार से आवृत्त कर दिया।
किन्तु अतिशय पश्चाताप एवं शोक का विषय यह है कि शताब्दियों तक विदेशी लुटेरो के भयंकर चंगुल में तडफडाता यह देश जो आज स्वदेशी डकैतों के खूंखार पंजो में दुःख, शोक, पश्चाताप एवं अपनी भूल के कारण बिलबिला रहा है, अपनी अतिशय समृद्ध सम्पदा एवं स्वाभिमान को तिलाँजलि देकर विलासिता एवं पापपूर्ण विदेशी छलावे वाली आधारहीन वैशाखी के बल पर मृगमरीचिका में अंधाधुंध दौड़ लगाता चला जा रहा है।
खैर देश तो एक नाम है जो एक निश्चित भूभाग को सीमित करता है। वास्तविक रूप से इस समृद्धि के विनाश के दोषी तो वे देशवासी है, जो इस विद्या के ठेकेदार (ज्योतिषाचार्य, आयुर्वेदाचार्य आदि), तथा स्वदेशी कम विदेशी साहित्य, संगीत, कला एवं धर्म के मर्मज्ञ भारतीय समाज सुधारक एवं सामाजिक कुरीतियों तथा विसंगतियों के मिटाने वाले (या समस्त मूल भारतीयता को ही मिटाने वाले?) परम विद्वान आधुनिक भारतीय मनीषी हैं, तथा तथा झूठी लोकप्रियता के लिए तालियों की गडगडाहट में फूले न समाने वाले लोकसेवक (लोक सभा एवं विधान सभा के सदस्य) हैं। जो ज्यादा से ज्यादा विदेशी मुद्रा संग्रह के लोभ में अपनी इस परम पवित्र, अद्वितीय, अन्यत्र दुर्लभ एवं एक पूर्ण संपदा को उनके हाथो गिरवी रख दिये हैं।
आप स्वयं सोचें, आज दो सौ साल पूर्व जब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान अस्तित्व में नहीं आया था, उसके पहले हजारो लाखो वर्ष पूर्व किस विज्ञान या गणित के आधार पर खगोलीय घटनाओं का सटीक एवं प्रामाणिक संतुलन प्राप्त किया जाता था। या किस एलोपैथी चिकित्सालय से दवा करायी जाती थी?
किन्तु कुछ प्रलापी, मूर्ख एवं अभागे अब भी बड़ी निर्लज्जता से इस पर आक्षेप करते हुए कहते है कि उस समय कोई एलोपैथिक चिकित्सालय नहीं था इसीलिए लोग महामारी में मर जाते थे। गाँव का गाँव स्वाहा हो जाता था। तथा कुछ बचते भी थे तो वे ही बच जाते थे जो धन संपन्न होते थे।
मैं ऐसे पाखंडी दरिद्रों से बस इतना ही पूछना चाहूंगा कि क्या आज भी हजारो लोग महामारी से नहीं मर रहे हैं? आज भी भारत के अनेक जिले—-राजस्थान का झून्झुनू, उत्तर प्रदेश का गोरखपुर, बिहार का बेगूसराय, मध्य प्रदेश का दुद्धी एवं कोरबा, उड़ीसा का कालाहांडी एवं गंजाम आदि जिले प्रतिवर्ष “डेंगू” नामक महामारी से प्रभावित होते है। एक साल नहीं बल्कि हर साल। तो क्या अंग्रेजी में “डेंगू” कह देने से इसे महामारी नहीं कहा जाएगा? “स्वाइन फ़्लू” महामारी नहीं तो क्या प्रकृति का प्रसाद है? “मेनिन्जाइटिस” महामारी नहीं तो क्या स्वास्थ्य वर्द्धक दवा है? क्या प्रति वर्ष इससे लोग नहीं मरते हैं?
दूसरी बात यह की क्या आज भी केवल इन बीमारियों से धनी लोग ही नहीं अपनी रक्षा कर रहे है? है किसी गरीब के पास क्षमता जो सोनिया गांधी की तरह इलाज़ के लिए विदेश जा सके?
खैर, प्रसंग विचलन हो रहा है। मूर्ख, उजड्ड एवं अभागे को कभी उपदेश नहीं देना चाहिए-
“मूर्खाणाम हि उपदेशो प्रकोपाय न शान्तये। पयः पानं भुजन्गानाम केवलं विष वर्द्धनम।”
हम यहाँ रोग के विविध ज्योतिषीय कारणों पर विचार करने जा रहे हैं। कुछ व्याधियां साध्य होती है। जैसे सिर दर्द, फोड़ा फुंसी, चोट-मोच आदि। कुछ रोग असाध्य होते है। जैसे क्षय (राज्यक्षमा या Pulmonary Tuberculosis), कुष्ठ (Leprosy), योषापष्मार (Hysteria), मृगी (Glandular Epilepsy), कुब्ज या कुबडापन, कर्कट (Cancer), ग्रंथ्यार्बुद या कोशिकीय क्षय जिसका एक रूप वर्त्तमान समय में “एड्स” के नाम से जाना जा रहा है, तथा नपुंसकता आदि।
आचार्य मन्त्रेश्वर जिनका वास्तविक नाम मार्कंडेय भट्टाद्रि था और जो एक नम्बूदरीपाद ब्राह्मण थे, तथा दक्षिण भारत के धन्वन्तरी कहे जाते हैं, ने अपनी “फलदीपिका” में कहा है कि –
“षष्ठे अर्के अप्यथवाष्टमे ज्वरभयम भौमे च केतौ व्रणं शुक्रे गुह्यरुजं क्षयं सुरगुरौ मंदे च वातायम। राहौ भौमनिरीक्षिते च पिलकां सेंदौ शनौ गुल्मजम क्षीणेन्दौ जलभेषु पापसहिते तत्स्थे अम्बुरोगम क्षयम।”
  1. क्षय रोग- यदि लग्न कुंडली में छठे या आठवें भाव में गुरु तथा द्वादशांश कुंडली में लग्नेश छठे भाव में हो तो क्षय रोग होता है। या गुरु लग्नेश होकर छठे तथा शुक्र कही भी मंगल युक्त हो तथा द्वादशांश कुंडली में गुरु मकर राशि में सूर्य के साथ हो तो क्षय रोग होता है। या मकर या कुम्भ राशि में राहू-गुरु की आठवें भाव में युति हो तथा सूर्य-शुक्र की युति द्वादशांश कुंडली में युति हो तो क्षय रोग होता है। या लग्न में उच्चस्थ मंगल के साथ गुरु तथा सातवें शनि-सूर्य युति हो तथा द्वादशांश कुंडली में वृश्चिक तथा कुम्भ या तुला राशि में सूर्य-गुरु या सूर्य-शुक्र की युति हो तो क्षय रोग होता है। या छठे सूर्य-मंगल तथा बारहवें गुरु-शनि हो तो क्षय रोग होता है। या लग्नेश-षष्टेश की युति द्वादशेश के साथ लग्न में हो तथा राहू केंद्र में हो तो क्षय रोग होता है। या नीचस्थ लग्नेश छठे तथा उच्चस्थ षष्ठेश या द्वादशेश जो सूर्य न हो, लग्न में हो तो क्षय रोग होता है। या षष्ठेश-अष्टमेश की युति (मंगल-सूर्य के अलावा) लग्न में हो तथा चन्द्रमा नीच का हो तो क्षय रोग होता है।
  2. कुष्ठ रोग- “जाताकालंकार” में आचार्य गणेश कवि ने जो कुष्ठ रोग के ज्योतिषीय कारण बताये है वे निम्न प्रकार हैं-
“लग्नाधीशेन्दुपुत्रौ क्षितितनयनिशानायकौ क्वापि संस्थौयुक्तौ स्वर्भानुना वा भवति हि मनुजः केतुना श्वेतकुष्ठी। आदित्यो भौमयुक्तस्तदनु शानियुतो रक्तकृष्णाख्यकुष्ठी सार्को लग्नाधिनाथो व्ययरिपुनिधनस्थानगस्तापगंडः।”
अर्थात लग्नेश तथा बुध-मंगल-चन्द्र ये राहु से युक्त हो तथा द्वादशांश कुंडली का लग्नेश छठे भाव में हो तो ग्रंथि कुष्ठ या गलित कुष्ठ होता है। यदि केतु से युक्त हो तो ऊतक कुष्ठ होता है। यदि लग्नेश या बुध मंगल-राहु तथा सूर्य-शुक्र के मध्य हो तथा द्वादशांश कुंडली में राहु से युक्त मंगल की दृष्टि सूर्य या बुध पर हो तो श्वेत तंतु कुष्ठ, यदि मंगल दृष्ट सूर्य-शुक्र तुला या मेष में हो एवं द्वादशांश कुंडली में शनि या राहु से युक्त या दृष्ट सूर्य हो तो ऊताकीय श्वेतकुष्ठ होता है। यदि लग्नेश किसी भी भाव में सूर्य-मंगल-शनि से युक्त हो तो लाल वर्ण या श्याम वर्ण का कुष्ठ होता है। यदि लग्नेश सूर्य के साथ 6/8/12 भाव में हो तथा द्वादशांश कुडली में लग्नेश या सूर्य नीच राशिगत हो तो उग्र कुष्ठ रोग होता है। यदि मंगल-शुक्र छठे तथा राहु-सूर्य लग्न में हो तो असाध्य कुष्ठ रोग होता है। यदि शुक्र-सूर्य छठे तथा राहु-चन्द्र आठवें हो एवं द्वादशांश कुंडली में लग्नेश के साथ राहु किसी भी भाव में बैठा हो तो कभी न ठीक होने वाला कुष्ठ रोग होता है। यदि लग्नेश जो मंगल न हो, राहु के साथ छठे, आठवें या बारहवें में हो तथा शुक्र-चन्द्र पर मंगल की पूर्ण दृष्टि हो तो असाध्य कुष्ठ रोग होता है। यदि सूर्य-शुक्र-राहू की युति पर नीचस्थ चन्द्रमा की पूर्ण दृष्टि हो तो असाध्य कुष्ठ रोग होता है।यदि  भी तरह लग्नेश से बली अष्टमेश तथा अष्टमेश से बली षष्ठेश हो और सूर्य मंगल युति हो तो महापातकी कुष्ठ रोग होता है।
3. योषापष्मार- शुक्र-मंगल की युति सातवें भाव में नीचस्थ शनि से दृष्ट हो तथा द्वादशांश कुंडली में षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश लग्न, चतुर्थ या सप्तम भाव में हो तो असाध्य योषापष्मार (हिस्टीरिया) रोग होता है। यदि राहु-मंगल की युति सातवें हो तथा सप्तमेश मंगल के सिवाय कोई और ग्रह होकर नीचस्थ हो तो यह रोग असाध्य होता है। यदि लग्नेश एवं सूर्य की युति छठे भाव में हो तथा नवमांश कुंडली में कोई तीन या चार ग्रह दूसरे भाव में हो तो उग्र गर्भाशय रोग होता है। यदि नवमांश कुंडली में शनि लग्नेश होकर छठे तथा लग्न कुंडली में भी छठे हो तो शनि के दशांत में भारी गर्भाशय रोग होता है। यदि शनि लग्नेश होकर सूर्य के साथ लग्न एवं द्वादशांश कुंडली में छठे, आठवें या बारहवें बैठा हो तो यह असाध्य रोग होता है। यदि पापी सप्तमेश नीचस्थ राहु के साथ छठे या आठवें बैठा हो तथा किसी अन्य ग्रह के साथ केतु की युति हो तो उग्र गर्भाशय विकृति होती है। यदि सप्तमेश मंगल शनि के साथ छठे तथा लग्न में राहु हो तो हिस्टीरिया रोग होता है। चाहे कोई लग्न हो, यदि शनि-सूर्य छठे तथा राह़ू-मंगल सातवें हो तो इसी रोग से शीघ्र मृत्यु होती है। यदि लग्न में राहु, सातवें शनि तथा आठवें मंगल हो तो अल्पावस्था में ही इस रोग से मृत्यु हो जाती है। यदि गुरुशुक्र नीचस्थ, सूर्य-मंगल लग्न, तथा राहु चन्द्रमा से युक्त हो तो लाइलाज़ हिस्टीरिया रोग होता है।
4. नपुंसकता- यदि लग्न एवं दशांश दोनों कुंडली में शनि-मंगल युति हो, तथा लग्न कुंडली में शनि चतुर्थ भाव में हो तो नपुंसकता होती है। यदि मंगल-शुक्र में से कोई एक पंचमेश होकर नीचस्थ हो, तथा कोई एक वक्री होकर शनि युक्त हो तो नपुंसकता होती है। यदि मंगल राहू पांचवें भाव तथा सूर्य-शनि चौथे भाव में हो, तो भयंकर नपुंसकता होती है। यदि सिंहस्थ शनि चौथे भाव में राहु से युक्त हो तथा दशम भाव में शुक्र हो तो नपुंसकता होती है। यदि नवमांश कुंडली में मंगल-शनि-शुक्र लग्न में एक साथ हो तो भारी नपुंसकता होती है। यदि लग्न तथा दशमांश कुंडली में लग्नेश शनि या राहु से युक्त हो तो नपुंसकता होती है। यदि बुध-शनि सातवें तथा कर्कस्थ चन्द्रमा के साथ मंगल लग्न में हो तो अनिवारणीय नपुंसकता होती है। यदि मकरस्थ बुध-गुरु छठे तथा वृष राशि गत सूर्य-मंगल दशवें भाव में हो तो बहुत यत्न के उपरांत नपुंसकता दूर होती है। यदि दशमांश, शोडशांश एवं लग्न कुंडली में शनि चौथे भाव में पड़े तो वह किन्नर होता है।
वाग्भट्ट, हारीत संहिता, शारंगधर संहिता, वासवराजर्याम, भैषज्य रत्नावली, अनुपान तरंगिणी तथा भावप्रकाश आदि ग्रंथो में इन ग्रहों से सम्बंधित प्रतिनिधि औषधियों-वनस्पतियों का विवरण एवं योग वर्णित है। जैसे राहु का प्रतिनिधि खनिज लवण में सफ़ेद दूब (दुर्वा) का मूल, कंचनलता की पत्तियाँ, माँझी पत्थर, कर्कोटक या सिंहिनी की छाल, दोलवीणा का फल, केले का फूल और सगोहिता का फल आदि।
मंगल का खनिज प्रतिनिधि सुहागा, समुद्रफेन, वनस्पति में मकोय, जिकिकंद, सेमल, सीसम, महुआ का फल, वीरजा का फूल, फल एवं छाल, बेर का फल, मुगलई भूसी, देव दार के तने का अंदरूनी हिस्सा आदि।
इस प्रकार जिस ग्रह से जो पीड़ा हो उसके निवारण हेतु उन वनस्पतियों-खनिजो आदि को निश्चित अनुपात में पाकशोधन विधि से मिलाकर सेवन करने या उनके यंत्र आदि धारण करने से सदा ही लाभ होता है।
सहायक ग्रंथावली– भावार्थ रत्नाकर, वृहत्पाराशर होराशास्त्र, फल दीपिका, जाताकालंकार, जातकाभरणं, वृद्ध यवनजातकम, खनिज विज्ञान, योग तरंगिणी तथा वनौषधि चंद्रोदय आदि।
पंडित आर के राय
Email- khojiduniya@gmail.com

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